गुरु नानक देव भारत भूमि के उन शीर्षस्थ संतों में हैं जिन्होंने सनातन धर्म और परमात्मा के मूल तत्त्व को हृदयंगम कर लिया था। वेदों के “एकोहम् बहुस्यामि” के सिद्धांत की तरह उनका कहना था, ‘’एक दू जीभऊ लख होय, लख होय लख बीस। लख लख गेड़ा आखियै एक नाम जगदीस।।‘’ अर्थात एक ही भगवान एक से दो हो जाता है, दो से लाख, लाख से बीस लाख और फिर अरबों और खरबों हो जाता है, पर अंत में एक जगदीश ही सत्य है।
मक्का की यात्रा के समय जब मुसलमानों ने उनसे भगवान के स्वरूप के संबंध में प्रश्न किया तब भी उन्होंने ऐसा ही उत्तर दिया- एक नूर ते सब जग उपज्या को भले को मंदे। यानी सब कोई एक ही परमात्मा के बंदे हैं, उनमें किसी को छोटा- बड़ा कहना व्यर्थ है। सिख धर्म के संस्थापक प्रथम पातशाह साहिब श्री गुरु नानक देव जी को लद्दाख व तिब्बत में नानक लामा भी कहा जाता है। उनके व्यक्तित्व में महान दार्शनिक, सिद्ध योगी, गृहस्थ संत, अप्रतिम समाजसुधारक, देशभक्त कवि होने के साथ विश्वबंधुत्व के गुण समाये हुए हैं।
रावी नदी का वह तट
कहते हैं कि गुरु नानक देव जी के भीतर साधना के बीजांकुर बालपन से प्रस्फुटित होने लगे थे। रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गांव (वर्तमान पाकिस्तान में) में सन् 1469 को कार्तिक पूर्णिमा की पावन तिथि पर एक खत्री कुल में उनका जन्म हुआ। नानक के पिता का नाम कल्याणचंद मेहता व माता का नाम तृप्ता देवी था। बहन का नाम नानकी था। लड़कपन से वह सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। स्कूल छूटने के बाद इनका सारा समय आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत होने लगा। संसारिक विषयों के प्रति से इनकी विरक्ति देख माता-पिता ने 16 साल की आयु में उनका विवाह गुरदासपुर निवासी मूलराज खत्री की कन्या सुलक्खनी से कर दिया। उनके दो पुत्र श्रीचंद और लक्ष्मीचंद हुए। 1507 में नानक अपने चार साथियों मरदाना, लहना, बाला और रामदास को लेकर देशाटन पर निकले।
सिख शब्द का मूल अर्थ
सिख धर्म का उदय नानक देव जी की शिक्षाओं के साथ होता है। सिख शब्द का मूल अर्थ है शिष्य। जो लोग गुरु नानक जी की शिक्षाओं पर चलते गये वे सिख हो गये। आज यह धर्म विश्व का नौवां बड़ा धर्म है और भारत के प्रमुख चार धर्मों में इसका स्थान भी है। सिख धर्म की पहचान पगड़ी और अन्य पोशाकों से भी की जाती है लेकिन ऐसे भी कई सिख हैं जो पगड़ी धारण नहीं करते। गुरु नानक देव जी के कथनों पर चलते हुए सिख धर्म एक संत समुदाय से शुरू हुआ। वे किसी भी प्रकार के अंधविश्वास को रंचमात्र भी स्वीकार करने को तैयार न थे। उनकी भाषा “बहता नीर” थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी के शब्द समा गये थे। 19 रागों में गायी गयीं नानक जी की 974 रचनाएं गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित हैं।
श्री गुरु नानक देव जी ने अनेक देशों में मानवता का प्रकाश फैलाया। उन्होंने घर पंजाब, मक्का, मदीना, काबुल, सिंहल, कामरूप, पुरी, दिल्ली, कश्मीर, काशी, हरिद्वार जैसी जगहों पर जाकर लोगों को उपदेश दिए। नानक देव जी ने धार्मिक बाह्याडंबरों का विरोध किया और सामाजिक ढांचे को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया। नानक जी ने परमात्मा का वर्णन “एक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभऊ निरवैर अकाल मूरत अंजुनी स्वेम्भ गुरु प्रसाद” के जरिये किया है। गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी का आरंभ इस मूलमंत्र से होता है कि परमात्मा निराकार है उसका कोई आकार नहीं है। वह न किसी योनि में जन्म लेता है न ही वह कभी मरता है यानि वह अजर-अमर और अविनाशी है। उसे बनाने वाला भी कोई और नहीं है बल्कि वह स्वयं प्रकाशमान है।
कहते हैं कि इस राष्ट्र को ‘हिंदुस्थान’ नाम भी गुरु नानक जी ने ही दिया था। बात उस समय की है जब बाबर ने भारत पर आक्रमण किया था। तब नानकदेव जी ने बाबर को आक्रांता के तौर पर इंगित करते हुए इस धरती को ‘हिंदुस्थान’ कहकर संबोधित किया था।
खुरासान खसमाना कीआ, हिंदुसतानु डराईआ।
आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चडाइआ।
नानकदेव की स्मृतियों से जुड़े प्रमुख गुरुद्वारे
पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में स्थित शहर ‘’ननकाना साहिब’’ का नाम ही गुरु नानक देव जी की जन्मस्थली के नाम पर पड़ा है। इसका पुराना नाम “राय भोई दी तलवंडी” था। लाहौर से 80 किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित यह गुरुद्वारा विश्वभर के सिखों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। महाराजा रणजीत सिंह ने गुरु नानक देव के जन्म स्थान पर गुरुद्वारे का निर्माण करवाया था। यह गुरुद्वारा भारत में गुदासपुर स्थित डेरा बाबा नानक से भी दिखाई देता है। ननकाना साहिब के आसपास के कुछ अन्य गुरुद्वारे गुरु नानकदेव जी के जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं से संबंधित हैं।
कहते हैं कि जिस विद्यालय में नानकजी पढ़ने जाते थे वहां आज पट्टी साहिब गुरुद्वारा सुशोभित है। ननकाना साहब के निकट एक अन्य गुरुद्वारा ‘’करतारपुर साहिब’’ भी नानक की स्मृतियों को गहराई से संजोये हुए है। नानक जी ने यहां करतारपुर नगर बसाया था और वे 17 साल यहीं रहे। यहां उन्होंने कृषिकर्म भी किया था। यहीं सन् 1532 ई. में भाई लहिणा आपकी सेवा में आये तथा सात वर्ष की समर्पित सेवा के बाद गुरु नानक देव जी के उत्तराधिकारी बने और गुरु ने उन्हें अर्जुन देव नाम दिया। इसी स्थान पर गुरुनानक देव जी 22 सितंबर 1539 ई. को परम ज्योति में लीन हुए।
बटाला स्थित ‘’श्री कंध साहिब’’ में गुरुजी की बारात का ठहराव हुआ था। कहा जाता है कि संवत 1544 में गुरु जी की बारात जहां ठहरी थी वह एक कच्चा घर था, जिसकी एक दीवार का हिस्सा आज भी शीशे के फ्रेम में गुरुद्वारा श्री कंध साहिब में सुरक्षित है। इसके अलावा आज यहां गुरुद्वारा ‘’डेरा साहिब’’ है, जहां श्री मूलराज खत्री जी की बेटी सुलक्खनी देवी को नानक देव जी सुल्तानपुर लोधी से बारात लेकर ब्याहने आये थे। यहीं पर माता सुलक्खनी देवी जी तथा नानक देव जी की शादी की रस्में पूरी हुई थीं।
इसी तरह पंजाब लुधियाना में ‘’गुरुद्वारा गऊ घाट’’ वहां पर निर्मित है जहां गुरुनानक देव 1515 ईस्वी में आये थे। उस समय यह सतलुज दरिया के किनारे पर स्थित था। उस समय लुधियाना के नवाब जलाल खां लोधी अपने दरबारियों सहित गुरु जी की शरण में आए व आग्रह किया कि हे सच्चे पातशाह! यह शहर सतलुज दरिया किनारे स्थित है। इसके तूफान से शहरवासियों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। आप इस समस्या से निजात दिलायें। गुरु महाराज ने कहा कि आप सभी सच्चे मन से ईश्वर से प्रार्थना करें। आपकी समस्या हल हो जाएगी और दुनिया में लुधियाना नाम का डंका दुनिया में बजेगा। गुरु साहिब के कहे अनुसार आज लुधियाना शहर घनी आबादी में बसा है और सतलुज दरिया वहां से सात कोस दूर है। इसी कारण वह गुरुद्वारा जो पहले दरिया घाट पर बना हुआ था, गऊ घाट के नाम से विख्यात हो गया।
कहा जाता है कि अपनी उदासियों (यात्राओं) के दौरान नानक देव जी फजिलका के हरिपुरा गांव में रुके थे। जहां गुरुनानक देव जी ठहरे थे, वहां उनके पैरों की छाप आज भी मौजूद है। आज एक भव्य गुरुद्वारा ‘’बड़ साहिब’’ बना हुआ है। गुरु नानक देव जी ने अपने साधना काल का सबसे अधिक समय सुल्तानपुर लोधी में बिताया। यहां उनसे संबंधित अनेक गुरुद्वारे हैं। इनमें से प्रमुख हैं ‘’श्री बेर साहिब’’। गुरु जी ने यहां 14 साल 9 महीने 13 दिन तक अवधि बितायी। यहां उनके बैठने के स्थल को ‘’भोरा साहिब’’ कहते हैं। भोरा साहिब के निकट ही बेरी का एक पेड़ है जिसके बारे में मान्यता है कि गुरुजी ने अपने भक्त खरबूजे शाह के निवेदन पर उसे यहां लगाया था। बेर साहिब से तीन किलोमीटर दूर है ‘’गुरुद्वारा संत घाट’’। गुरु जी यहां प्रतिदिन स्नान करने आते थे और एक दिन डुबकी लगा कर 72 घंटे के लिए लोप हो गये। कहा जाता है कि इसी दौरान उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने एक ओंकार के मूल मंत्र का उच्चारण किया था।
टिप्पणियाँ