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जिसके नाम से कांपते थे मुस्लिम शासक ऐसी थी पहाड़ों की महारानी, जानिए क्या है नाक काटने वाली रानी की कहानी

रानी से पराजित शाहजहां के कट्टर इस्लामिक बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल राज्य पर हमले की अनेक नाकाम कोशिश की थी। उसके बाद मुगलों की हिम्मत नहीं हुई कि वे कुमाऊँ-गढ़वाल की तरफ आँख उठाकर देखते।

by उत्तराखंड ब्यूरो
Nov 2, 2022, 06:38 pm IST
in भारत, उत्तराखंड, संस्कृति
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भारतीय इतिहास में कर्णावती नाम की दो प्रमुख वीरांगना रानियों का विस्तृत उल्लेख मिलता है इनमें एक राजस्थान में चित्तौड के शासक महाराणा संग्राम सिंह की पत्नी थी तथा दूसरी उत्तराखण्ड राज्य के गढवाल क्षेत्र की सुप्रसिद्ध शासिका महारानी कर्णावती थीं। इतिहास में गढवाल की रानी का उल्लेख नाक काटने वाली महारानी कर्णावती के नाम से मिलता है। गढ़वाल की इस रानी ने मुस्लिम आक्रांताओं की लुटेरी मुगल सेना को अपमानित–पराजित कर बाकायदा उनकी नाक कटवायी थी।

उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में श्रीनगर नाम से ऐतिहासिक प्राचीन नगर स्थित है, श्रीनगर को राजधानी बनाकर पंवार वंश के महाराजा महिपतशाह राज्य करते थे, इनकी महारानी का नाम कर्णावती था। महाराजा अपने राज्य की राजधानी सन 1622 में देवालगढ़ से श्रीनगर ले आए थे। महाराजा महिपतशाह एक स्वतन्त्र, स्वाभिमानी और प्रजापालक शासक के रूप में प्रसिद्ध थे, महारानी कर्णावती भी ठीक वैसी ही थीं। कभी किसी आक्रांता को इन्होंने अपने राज्य में घुसने नहीं दिया था। महारानी कर्णावती ने गढ़वाल में अपने नाबालिग बेटे पृथ्वीपति शाह को राजगद्दी पर आसीन कर उस समय शासन सत्ता के सूत्र स्वयं संभाले थे, दिल्ली में जब मुगल आतताई शाहजहां का कब्जा था। तत्कालीन समय में बादशाहनामा या पादशाहनामा लिखने वाले अब्दुल हमीद लाहौरी ने भी गढ़वाल की इस रानी का जिक्र किया है। शम्सुद्दौला खान ने ‘मासिर अल उमरा’ में गढ़वाल की महारानी कर्णावती का उल्लेख किया है। इटली के लेखक निकोलाओ मानुची सत्रहवीं सदी में भारत में आये थे तो उस समय उन्होंने आक्रमणकारी शाहजहां के कट्टर इस्लामिक मतांध पुत्र औरंगजेब के मुगल दरबार में काम किया था। उन्होंने भी अपनी किताब ‘स्टोरिया डो मोगोर’ यानि ‘मुगल इंडिया’ में गढ़वाल की एक रानी के बारे में विस्तार से लिखा हैं, जिसने पराजित मुगल सैनिकों की नाक कटवा ली थी।

भारतीय इतिहास में सुप्रसिद्ध राजा महिपतशाह जिनके शासनकाल में रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे महान सेनापति हुए थे। जिन्होंने तिब्बत के आक्रांताओं को बार–बार पराजित कर उन्हें छठी का दूध याद दिलाया था। माधोसिंह भण्डारी के बारे में उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में अनेक किस्से कहानियां प्रचलित हैं। पहाड़ का सीना चीरकर अपने गांव मलेथा में पानी लाने का सत्य घटनाक्रम भला किस भारतीय को पता नहीं होगा। भारतीय इतिहास से जानकारी प्राप्त होती हैं कि रिखोला लोदी और माधो सिंह भण्डारी सिंह जैसे महान सेनापतियों की मृत्यु के पश्चात राजा महिपतशाह भी जल्द ही एक युद्ध के समय परम वीरगति को प्राप्त हुए थे। महाराजा महिपतशाह रणक्षेत्र में बलिदान के पश्चात उनकी विधवा महारानी कर्णावती ने गढ़वाल राज्य की शासन सत्ता संभाली। उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह उस समय केवल सात वर्ष के थे। रानी कर्णावती ने एक संरक्षिका शासिका के रूप में राज्य पर शासन किया था। रानी कर्णावती अपनी विलक्षण बुद्धि एवं गौरवमय व्यक्तित्व के लिए इतिहास में सुप्रसिद्ध हुईं। पुत्र के नाबालिग होने के कारण रानी कर्णावती जन्मभूमि गढवाल के हित के लिए अपने पति के रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त होने पर सती नहीं हुईं थीं बल्कि महान धैर्य और साहस के साथ उन्होंने पृथ्वीपति शाह की संरक्षिका के रूप में राज्यभार संभाला था। रानी कर्णावती ने राजकाज संभालने के बाद अपनी देखरेख में शीघ्र ही शासन व्यवस्था को बेहद सुदृढ़ किया। गढवाल राज्य के सम्बंध में उपलब्ध प्राचीन साहित्य और प्रचलित लोकगीतों में रानी कर्णावती की प्रशस्ति में उनके द्वारा जनहित में निर्मित अनेक बावड़ियों, तालाबों, कुओं आदि का वर्णन आता है।

एक ऐतिहासिक संयोग के कारण सन 1634 में उत्तराखण्ड राज्य के मानस खण्ड में स्थित श्री बदरीनाथ धाम की यात्रा के समय छत्रपति राजे शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास की गढवाल राज्य के श्रीनगर में सिक्खों के श्री गुरु हरगोविन्द सिंह से भेंट हुई थी। महापुरुषों की यह भेंट इसलिए बेहद महत्वपूर्ण थी क्योंकि उनका का एक ही लक्ष्य और उद्देश्य था, किसी भी प्रकार आतताई मुगलों के बर्बर शासन से मुक्ति प्राप्त करके सनातन हिन्दू धर्म की रक्षा करना। देवदूत के रूप में समर्थ गुरु स्वामी रामदास सन 1634 में श्रीनगर पधारे और रानी कर्णावती को उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। समर्थ गुरु रामदास ने रानी कर्णावती से पूछा कि क्या पतित पावनी मां गंगा की सप्त धाराओं से सिंचित भूखंड में यह शक्ति है कि वह वैदिक धर्म एवं राष्ट्र की मर्यादा की रक्षा के लिये आक्रमणकारी मुगलों से युद्ध कर उन्हें पराजित कर सके। इस पर रानी कर्णावती ने विनम्र निवेदन किया पूज्य गुरुदेव इस राष्ट्र हित के कर्तव्य के लिये हम गढवाल निवासी सदैव कमर कसे हुए उपस्थित हैं।

इससे पूर्व जब राजा महिपतशाह गढ़वाल राज्य के राजा थे तब सन 1628 को बर्बर हिन्दू हत्यारे मुगल शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था। जब वह गद्दी पर बैठा तो देश के अनेक राजा आगरा पहुंचे थे। राजा महिपतशाह आगरा नहीं गये। उन्हें मुगल शासन की अधीनता स्वीकार नहीं थी। बर्बर शाहजहां इससे बेहद चिढ़ गया और तब किसी ने उसको बताया कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदानें हैं। राजा महीपति शाह के शासनकाल में मुगल सेना तो गढवाल विजय के सम्बंध में सोचती भी नहीं थी। लेकिन जब राजा मृत्यु को प्राप्त हुए और रानी कर्णावती ने गढवाल का शासन संभाला तब धर्मांध शाहजहां ने सोचा कि उनसे शासन छीनना सरल होगा।

आतताई शाहजहां को समर्थ गुरु रामदास और श्री गुरु हरगोविन्द सिंह के श्रीनगर पहुंचने और रानी कर्णावती से मुलाकात करने की खबर लग गयी थी। मुगल आक्रांता शाहजहाँ ने आदर्श इस्लामिक लूट परंपरा का पालन करते हुए तत्काल गढ़वाल राज्य पर हमले की योजना बना ली। शाहजहाँ ने गढ़वाल राज्य पर कई हमले किए, लेकिन सफल नहीं हो सका अंत में नजाबत खां नाम के एक मुगल आक्रमणकारी लुटेरे को गढवाल पर कब्जा की जिम्मेदारी सौंपी गयी। लुटेरा नजाबत खां सन 1635 में एक विशाल प्रशिक्षित सेना लेकर गढ़वाल राज्य पर आक्रमण के लिये आया। उसके साथ पैदल सैनिकों के अलावा घुडसवार सैनिक भी थे। विषम परिस्थितियों में रानी कर्णावती ने सीधा मुकाबला करने के बजाय कूटनीति से काम लेना उचित समझा। गढ़वाल की रानी ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया लेकिन जब वे वर्तमान समय के लक्ष्मणझूला ऋषिकेश से आगे बढ़े तो उनके आगे और पीछे जाने के समस्त रास्ते रोक दिये गये। गंगा के किनारे और पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ आक्रमणकारी मुगल सैनिकों के पास खाने की रसद सामग्री समाप्त होने लगी थीं।

मुगल सेना के लिये रसद सामग्री भेजने के सभी रास्ते भी बंद थे। मुगल सेना कमजोर पड़ने लगी और ऐसे में लुटेरे नजाबत खां ने गढ़वाल की रानी कर्णावती के पास संधि का प्रस्ताव संदेश भेजा लेकिन उसे ठुकरा दिया गया। अब मुगल सेना की स्थिति बदतर हो गयी थी। रानी कर्णावती चाहती तो उसके सभी सैनिकों का खत्म कर सकती थी लेकिन उन्होंने बर्बर लुटेरे मुगलों को सजा देने का अनोखा तरीका खोज निकाला था। रानी कर्णावती ने मुगलों को संदेश भिजवाया कि वह मुगल सैनिकों को जीवनदान दे सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। अब मुगल सैनिकों को भी लगा कि नाक कट भी गयी तो क्या जिंदगी तो रहेगी ही तब पराजित और हताश–निराश मुगल सैनिकों के हथियार छीन लिए गये और अंत में उन सभी की एक–एक करके नाक काट दी गयी। जिन सैनिकों की नाक काटी गयी उनमें बर्बर लुटेरा नजाबत खान भी शामिल था। वह इससे बेहद शर्मसार था और उसने पहाड़ों से मैदानों की तरफ वापस लौटते समय बेहद अपमानित अवस्था में आत्महत्या कर ली थी।

कुछ अन्य इतिहासकारों के अनुसार बर्बर नजाबत खान की अगुवाई वाली आक्रांताओं की मुगल सेना ने दून घाटी और चंडीघाटी वर्तमान समय में लक्ष्मणझूला, ऋषिकेश को अपने कब्जे में कर लिया था, तब रानी कर्णावती ने कूटनीति की अदभुत प्रतिभा दिखाते हुए उसके पास संदेश भिजवाया कि वह दिल्ली पर कब्जेधारी शाहजहां के लिये जल्द ही दस लाख रूपये उपहार के रूप में भेज देगी। नजाबत खान लगभग एक महीने तक धनराशि का इंतजार करता रहा। इस मध्य गढ़वाल की सेना को उसके सभी रास्ते बंद करने का मौका मिल गया था। आक्रमणकारी मुगल सेना के पास खाद्य सामग्री की कमी पड़ गयी और इस बीच उसके सैनिक एक अज्ञात बुखार से पीड़ित होने लगे। गढ़वाल राज्य की सेना ने पहले ही सभी रास्ते बंद कर दिये थे और अब उन्होंने मुगलों पर सुनियोजित आक्रमण कर दिया। रानी कर्णावती के आदेश पर मुगल सैनिकों की नाक काट दी गयी।

पराजित नजाबत खान जंगलों से होता हुआ मुरादाबाद तक पहुंचा था। शाहजहां इस हार से बेहद अपमानित और शर्मसार हुआ था। शाहजहां ने बाद में अरीज खान नाम के लुटेरे को गढ़वाल राज्य पर हमले के लिये भेजा तब नाक काटने का यही कारनामा उन्होंने दोबारा आक्रांता अरीज़ खान और उसकी सेना के साथ भी किया। पराजित शाहजहां के कट्टर इस्लामिक बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल राज्य पर हमले की अनेक नाकाम कोशिश की थी। उसके बाद मुगलों की हिम्मत नहीं हुई कि वे कुमाऊँ-गढ़वाल की तरफ आँख उठाकर देखते।

इस तरह मोहनचट्टी में हमलावर मुगल सेना को नेस्तनाबूद कर देने के बाद रानी कर्णावती ने जल्द ही सम्पूर्ण दून घाटी को भी पुन: गढवाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया था। रानी कर्णावती ने गढवाल राज्य की विजय पताका फिर आन–बान–शान के साथ फहरा दी थीं और समर्थ गुरु रामदास को उन्होंने जो वचन दिया था, उसे पूरा करके दिखा दिया था। रानी कर्णावती के राज्य की संरक्षिका के रूप में 1640 तक शासनारूढ रहने के प्रमाण मिलते हैं और यह अधिक संभव है कि युवराज पृथ्वीपति शाह के बालिग होने पर उन्होंने 1642 में उन्हें शासनाधिकार सौंप दिया होगा और अपना शेष जीवन एक वरिष्ठ परामर्शदात्री के रूप में बिताया होगा।

महारानी कर्णावती को एक कुशल प्रशासिका माना जाता था। सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के जनमानस में महारानी कर्णावती की नेतृत्व क्षमता, अदम्य वीरता, शौर्य के किस्से–कहानी–लोकगीत बेहद प्रचलित हैं लेकिन दुखद है कि यह विषय इतिहास और शैक्षिक पाठ्यक्रमों से गायब हैं। उत्तराखण्ड के गढ़वाल राज्य के दून क्षेत्र में तत्कालीन समय में जल व्यवस्था का समुचित प्रबंधन हेतू नहरों के निर्माण का श्रेय भी रानी कर्णावती ही जाता है। रानी कर्णावती ने ही राजपुर नहर का निर्माण करवाया था जो वर्तमान रिस्पना नदी जिसका प्राचीन नाम ऋतुपर्णा नदी था, से शुरू होती है और देहरादून शहर तक पानी पहुँचाती है। वर्तमान में उक्त नदी में कई बदलाव कार्य हो चुके हैं, लेकिन सम्पूर्ण दून घाटी तथा कुमाऊँ-गढ़वाल के इलाके में नाक काटी रानी अर्थात महारानी कर्णावती का योगदान अमिट है।

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