ऋषि सुनक की हिंदू पहचान को लेकर एक भावनात्मक ज्वार देखा गया और दूसरे, चीन के बारे में आशंकाओं के बादल गहरा गए। परंतु वास्तविक स्थिति यह है कि इन दोनों घटनाओं का तुरत-फुरत आकलन नहीं किया जा सकता। विश्व परिदृश्य बदलता हुआ दिखाई दे रहा है। भारत को इन दोनों घटनाओं को सधी नजर से देखने और नाप-जोख कर चलने की जरूरत है।
दीपावली के उजियाले समय पर विश्व परिदृश्य में दो धमाकेदार घोषणाएं हुईं। एक भारतवंशीय ऋषि सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना। दूसरे, चीन में शी जिनपिंग को लगातार तीसरी बार पांच साल के लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव घोषित किया जाना।
दोनों ही घटनाओं पर हमने कुछ अतिरेकी प्रतिक्रियाएं देखीं। ऋषि सुनक की हिंदू पहचान को लेकर एक भावनात्मक ज्वार देखा गया और दूसरे, चीन के बारे में आशंकाओं के बादल गहरा गए। परंतु वास्तविक स्थिति यह है कि इन दोनों घटनाओं का तुरत-फुरत आकलन नहीं किया जा सकता। विश्व परिदृश्य बदलता हुआ दिखाई दे रहा है। भारत को इन दोनों घटनाओं को सधी नजर से देखने और नाप-जोख कर चलने की जरूरत है।
ब्रिटेन की मुश्किलें
ब्रिटेन इतिहास की सबसे बड़ी उठापटक के दौर से गुजर रहा है। ब्रिटेन संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है। वह शक्तिशाली देशों के गुट जी-7 का भी सदस्य है। बीते चार महीने में, वहां महारानी के देहांत, दो प्रधानमंत्रियों के बदलने, कर्ज पर ब्याज दरों के बढ़ने और वहां की अर्थव्यवस्था के भारत से पिछड़ने से आर्थिक साख को चोट जैसी घटनाएं हुई हैं। ब्रेक्सिट का भी अनुमानित लाभ न होने से ब्रिटेन मुश्किल में है।
ऋषि सुनक केवल हिंदू पहचान की वजह से प्रधानमंत्री नहीं बने हैं। उनकी कंसर्वेटिव पार्टी में आंतरिक उथल-पुथल है। मंदी, महंगाई रोकने और आर्थिक साख बहाल करने की चुनौती को उनकी ही पार्टी का आप्रवासन विरोधी धड़ा और बड़ा बना रहा है। लिज ट्रस की समर्थक रहीं गोवा मूल की सुएला ब्रावरमैन के आप्रवासन विरोध के कारण ही भारत और ब्रिटेन का मुक्त व्यापार समझौता टल गया था, फिर भी उन्हें दोबारा गृह मंत्री बनाया गया है। इसलिए आपको भावनात्मक ज्वार से परे ब्रिटेन के नेतृत्व को परखना होगा।
चीन की आक्रामकता
इसी तरह, चीन के लिए भी बड़ा संकटकाल है। वह सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और जी-20 का हिस्सा है। वह आर्थिक और कूटनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ता जा रहा है तो राजनीतिक आक्रामकता भी बढ़ रही है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन में पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओं को क्रूर ढंग से बैठक से बाहर किया गया, वे अपने साथ एक कागज ले जाने की कोशिश कर रहे थे, शी जिनपिंग ने उन्हें वह कागज भी सभागार से नहीं ले जाने दिया। यह अक्खड़ता विस्तारवाद से जुड़ी हुई है। चीन की विस्तारवादी नीति के दायरे में दक्षिण मंगोलिया, हांगकांग, ताइवान, शिनजियांग, तुर्कमेनिस्तान, तिब्बत हैं। चीन की यह आक्रामकता किस सीमा तक जाएगी और वह विश्व राजनीति पर किस तरह प्रभाव डालेगी, इसके सधे आकलन की जरूरत है।
भारत के लिए अब अंतरराष्ट्रीय फलक की घटनाएं इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो रही हैं क्योंकि विश्व परिदृश्य पर भारत जनसंख्या की दृष्टि से ही नहीं, मानव संसाधन की दृष्टि से, बाजार की दृष्टि से भी और अपनी आर्थिक क्षमताओं के कारण भी, पहचान बना रहा है। हमें इन सारी चीजों का ध्यान रखना होगा
नस्लीय हिंसा
ऋषि सुनक और शी जिनपिंग, दोनों के ही क्षेत्र में मानवाधिकार के सवाल उठ रहे हैं। एक तरह की नस्लीय हिंसा और सांस्कृतिक नरसंहार का एक क्रम और उसके विरोध में आक्रामकता बढ़ती दिख रही है। जैसे बर्मिंघम और लैसेस्टर के दंगे, ब्रिटेन हिंदुओं पर हो रहे हमलों पर असहाय दिखा और शासन तंत्र उनके लिए काम करने नहीं आया। दूसरी तरफ, शिनजियांग में मुस्लिम कुचले जाते हैं, और इसके बारे में कोई आवाज नहीं उठती। दोनों जगह जनांकिकी में बदलाव आ रहा है। चीन में हान आबादी के बूते जातीय सफाया किया जा रहा है और इधर, लंदन, बर्मिंघम में मुस्लिम आव्रजन के कारण पुराना स्वरूप बदल गया है।
भारत का स्वर
भारत उन स्वरों का प्रतिनिधित्व करता है जो लोकतंत्र और मानवता के स्वर हैं। इसलिए दोनों ही मोर्चों पर भारत से अपेक्षाएं बड़ी हैं। ब्रिटेन और चीन के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम जो संकेत और संदेश दे रहे हैं, उसमें दुनिया की नजर उन पर रहेगी और भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
भारत के लिए अब अंतरराष्ट्रीय फलक की घटनाएं इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो रही हैं क्योंकि विश्व परिदृश्य पर भारत जनसंख्या की दृष्टि से ही नहीं, मानव संसाधन की दृष्टि से, बाजार की दृष्टि से भी और अपनी आर्थिक क्षमताओं के कारण भी, पहचान बना रहा है। हमें इन सारी चीजों का ध्यान रखना होगा।
भारत के हित दोनों जगहों से महत्वपूर्ण ढंग से जुड़े हुए हैं। ‘लुक ईस्ट’ की हमारी नीति के तहत हमारे लिए ब्रूनेई, आस्ट्रेलिया, विएतनाम, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, जापान महत्वपूर्ण हैं। वहां विस्तारवाद के खिलाफ और लोकतंत्र के लिए जो लड़ाई चल रही है, उसमें भारत की बात गंभीरता से सुनी जा रही है। इसलिए किसी घटनाक्रम पर आशंकित होने या अतिरेकी उत्साह के बजाय भारत को सधे कदमों से आगे बढ़ना होगा और दुनिया की लामबंदी को लोकतंत्र और मानवता के पक्ष में खड़ा करना होगा।
@hiteshshankar
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