दीपावली के ठीक छठे दिन, कार्तिक शुक्ला षष्ठमी को मनाए जाने वाला छठ पर्व अपने धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व के कारण एक अलग पहचान रखता है। यूं तो यह पर्व मुख्यतः बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तरप्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है, लेकिन लोगों में बढ़ती धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना और जागरूकता के कारण यह पर्व सम्प्रति राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र सहित देश के अन्य प्रांतों में भी मनाए जाने लगा है। इस पर्व की अपनी बड़ी पौराणिक मान्यता है। ‘ब्रह्मवैवर्त‘ पुराण में ‘प्रकृति खंड‘ के तैतालिसवें अध्याय में देवी ‘षष्ठी’ की महिमा का वर्णन आता है कि यह भगवती मूल प्रकृति की कलाओं में से है, जो कि उनके छठवें अंश के कारण ‘षष्ठी‘ देवी कहलाती है। यह बालकों की अधिष्ठात्री देवी ‘विष्णुमाया‘ है। यह लोकमातृकाओं में से एक ‘देवसेना’ है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में एक कथा आती है कि स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत और उनकी प्रेयसी भार्या मालिनी के कोई संतान नहीं थी। कश्यप ऋषि ने उनसे पुत्रैष्टि यज्ञ करवाया। यज्ञ के प्रसाद के रूप में राजा की धर्मपत्नी मालिनी को ‘चरु‘ प्रदान किया। ‘चरु-भक्षण’ के पश्चात् मालिनी गर्भवती हुई तथा समय आने पर उसने एक मृत कुमार को जन्म दिया। मृत पुत्र पाकर राजा प्रियव्रत और उनकी प्रेयसी भार्या मालिनी बहुत ही दुःखी हुए। राजा प्रियव्रत मृत पुत्र को लेकर श्मशान गए और उसको अपने सीने से लगाकर ज़ोर-ज़ोर से विलाप करने लगे। उसी समय एक स्वर्णिम रथ पर सवार देवी प्रकट हुई। उसने राजा प्रियव्रत को अपना परिचय ब्रह्मा की मानसी कन्या, कार्तिकेय की धर्मपत्नी और ‘देवसेना’ के रूप में दिया। राजा ने देवी के दर्शन पाकर, उनका सुंदर स्तवन किया। देवी की मृत बालक पर दृष्टि पड़ते ही मृत बालक जीवित हो उठा। देवी राजा के पुत्र को लेकर आकाश लोक गमन करने लगी, तो प्रियव्रत ने देवी को उनका पुत्र लौटना की याचना की। तब देवी ने उस बालक को ‘सुव्रत’ नाम दिया और राजा प्रियव्रत को आज्ञा दी कि वह अपने राज्य में प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मेरी पूजा, स्तुति और यज्ञ करवाएं तथा विप्रों को दान-दक्षिणा देंवे, जिससे बालक सुव्रत की तैलोकी में कीर्ति और यश फैलेगा। स्कन्द की पतिव्रता भार्या देवी की आज्ञा अनुसार राजा प्रियव्रत ने अपने पूरे राज्य में देवी षष्ठी की पूजा-पाठ, स्तुति और यज्ञ करवा कर, देवी का स्तवन करते हुए अविच्छिन्न राज किया। तब से कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को संतान, धन, स्वास्थ्य लाभ की कामना के लिए देवी ‘षष्ठी’ की पूजा की जाती रही है। इस पर्व की धार्मिक महत्ता तो है ही, लेकिन प्रकृति पूजा से जुड़ा होने के कारण इसका पर्यावरणीय दृष्टि भी अपना महत्त्व है। इस पर्व पर भगवान सूर्य, धान (अनाज) पानी, उषा आदि की पूजा पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन को दर्शाती है।
छठ पर्व से जुड़ी ‘नहाय-खाय‘ परम्परा जीवन में सभी प्रकार से पवित्रता और शुद्धता बनाए रखने का संदेश देती है। अस्तु, यह पर्व हमें प्रकृति की शुद्धता और पवित्रता को बनाए रखने का आह्वान करता है। ‘नहाय-खाय’ से व्रती छत्तीस घंटे निर्जला रहकर, शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को घुटनों तक पानी में खड़ी रहकर, अर्घ्य अर्पित करती है। इससे व्रती में आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय का भाव जगता है। दूसरे दिन व्रती, उदयगामी सूर्य और उषा की पूजा करती है और तत्पश्चात् व्रत का पारायण होता है। भगवान सूर्य नारायण की आराधना से व्रती के जीवन में नवीनता, तेज़, आशा और ऊर्जा का संचार होता है। सुहागिन व्रती अपने पीहर और ससुराल पक्ष की समृद्धि की कामना छठ मइया से करती है। यह पर्व व्रती को मानसिक शक्ति और शांति देता है। वर्तमान परिदृश्य में छठ पूजा नारी सशक्तिकरण का प्रतीक है। छठ पर्व के पूर्व इसकी तैयारी (नदी के घाट की सफ़ाई आदि) से लेकर इसकी पूर्णता तक सभी व्रती पूर्ण मनोयोग से व्रत की सफलता के लिए उद्यम करते है। इस प्रकार यह पर्व हमें जीवन में निरंतर परिश्रम की भी प्रेरणा देता है। छठ पर्व में सूर्य और छठ मइया के स्तवन से जुड़ें लोक गीतों का भी अपना धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। ये छठ गीत लोकगीतों की अपनी विरासत संजोए हुए हैं। इनमें अंचल विशेष की मिट्टी की सौंधी महक बसती है। ये गीत सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक ताने-बाने की मज़बूती और समरसता को बढ़ावा देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इन छठ गीतों की बड़ी लोकप्रियता है। व्रती बड़े चाव-भाव और आनंद से भक्तिमय गीतों से सूर्य देव और छठ मइया को प्रसन्न करती है। ये गीत व्रती के आराध्या के प्रति श्रद्धा,भक्ति और समर्पण को दर्शाते हैं। बोली की मधुरता के लिहाज़ से भी इन भोजपुरी लोक गीतों की अपनी विलक्षण महिमा है। इन गीतों के माध्यम से व्रती छठ मइया से अपने कृत अपराधों के लिए क्षमा याचना करती है।
जैसे कि-
‘पहिले-पहिले हम कईनी,
छठी मईया वरत तोहार
छठी मईया वरत तोहार
करिह छमा छठी मईया,
भूल-चुक गलती हमार,
भूल-चुक गलती हमार।
और इसी कड़ी में-
‘ऊ जे केरवा जे फरेला खबद से,
ओह पर सुग्गा मेड़राए,
मारबो रे सुग्गवा धनुख से,
सुग्गा गिरे मुरझाए।
ऊ जे सुगनी जे रोएली वियोग से,
आदित होई ना सहाय।।’
इन गीतों में उदयगामी सूर्य देव की उपासना, प्राकृतिक सौंदर्य और कारुण्य भावों का प्राधान्य झलकता है। ये छठ लोक गीत एक सांस्कृतिक विरासत है, जिसे आज की युवा पीढ़ी को निरंतरता देने की ज़रूरत है।
ये गीत सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक ताने-बाने की मज़बूती और समरसता को बढ़ावा देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इन छठ गीतों की बड़ी लोकप्रियता है। व्रती बड़े चाव-भाव और आनंद से भक्तिमय गीतों से सूर्य देव और छठ मइया को प्रसन्न करती है।
-बद्रीनारायण विश्नोई,
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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