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झारखंड के अल्प ज्ञात स्वतंत्रता संग्राम की कहानी

अंग्रेजों का विरोध पहली बार अठारह सौ सत्तावन में किया गया था लेकिन इससे बहुत पहले अब के झारखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी, उसके सामंतों एवं साहूकारों के शोषण के खिलाफ नीय लोगों ने संगठित होकर बहादुरी से प्रतिरोध किया था।

by WEB DESK
Oct 25, 2022, 06:32 pm IST
in भारत
सांकेतिक - चित्र

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इतिहास की आम धारणा के मुताबिक भारत के अधिकांश क्षेत्रों में व्यापक रूप से अंग्रेजों का विरोध पहली बार अठारह सौ सत्तावन में किया गया था जिसे स्वतंत्रता के पहले संग्राम के नाम से भी जाना जाता है। परंतु झारखंड प्रदेश में इससे बहुत पहले, स्थानीय लोगों ने संगठित होकर एक सदी से अधिक समय तक ईस्ट इंडिया कंपनी, उसके सामंतों एवं साहूकारों के शोषण के खिलाफ छिटपुट लेकिन निरंतर बहादुरी से प्रतिरोध किया था।

अंग्रेजों के आने के साथ ही अठारहवीं शताब्दी से झारखंड में स्थानीय स्तर पर अनेक आंदोलन हुए जोकि विदेशी आक्रांताओ के शोषण और जुल्म के खिलाफ मूल निवासियों का सहज प्रतिरोध था। स्थानीय स्तर पर जन्मे यह आंदोलन कालांतर में अत्यंत संगठित हो गए और व्यापक रूप से अंग्रेजी शासन के खिलाफ मुखर हुए। ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध में आदिवासी क्षेत्र में हुए आंदोलनों को मुख्य तौर से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

1795 से 1860 तक के प्रथम चरण में आदिवासियों ने अपने क्षेत्र में अंग्रेजी शासन और प्रशासन थोपने का स्वतः विरोध किया। इस चरण में आदिवासी नेताओं ने प्रमुख भूमिका निभाई और इसमें गैर-आदिवासी समूह भी सम्मिलित हुए। प्रथम चरण में 1857 के विद्रोह के पूर्व 1770-71 में राजा जयनाथ सिंह के नेतृत्व में चेरो विद्रोह, 1783 में तिलका मांझी का विद्रोह, 1795 में चेरो आंदोलन, 1798 में चुआड़ आंदोलन और 1831 में कोल विद्रोह ने साम्राज्यवादी ताकतों को लोहे के चने चबा दिए थे। ऐसे ही स्थानीय आंदोलनों के फल स्वरुप 1857 की क्रांति उत्पन्न हुई। 1857 के संग्राम में झारखंड से चेरो और गोंड ज़मींदारो ने भाग लिया था।

तत्पश्चात 1860 में दूसरे चरण के आंदोलन शुरू हुए जो वर्ष 1910 अर्थात 50 वर्षों तक चले। इस दौर में अंग्रेजी साम्राज्य ने भूमि प्रशासन और प्रबंधन की स्थानीय व्यवस्था को समाप्त कर दिया। उल्लेखनीय है कि इस दौर में ब्रिटिश शासन के सहयोग से ईसाई धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार भी हुआ। शासन द्वारा आयोजित मिशनरी गतिविधियां आदिवासी समाज की पारंपरिक बुनियाद को हिलाने लगी। कुछ इतिहासकारों का यह मत है कि इस चरण में आंदोलन का नेतृत्व मिट्टी से जुड़े स्थानीय लोगों के हाथ से निकल कर पढ़े-लिखे लोगों के हाथ चला गया। इन नेताओं का प्रयास था कि औपनिवेशिक व्यवस्था के ढांचे में ही आदिवासी सभ्यता, संस्कृति एवं सामाजिक मूल्यों को किसी रूप में जीवित रखा जाए।

इस दौरान कृषि भूमि के शासन-प्रशासन हेतु छोटा नागपुर में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट, संथाल परगना में संथाल परगना अधिनियम और कोल्हान क्षेत्र में कोल विद्रोह के पश्चात विल्किंसन रूल की स्थापना की गई। उल्लेखनीय है कि विल्किंसन रूल के तहत परंपरागत मानकी और मुंडा को भूमि व्यवस्था का जिम्मा दिया गया।

तीसरा चरण 1910 और 1947 के बीच राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित विभिन्न स्थानीय आंदोलनों का था। इन आंदलनों में से 1914 में ताना भगत द्वारा शुरू किया गया सत्याग्रह प्रमुख रहा। उल्लेखनीय है कि ताना भगत सत्याग्रह से प्रेरणा लेकर महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह के सिद्धांत को पूरे भारत में प्रचलित किया। बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, बुधु भगत, सिद्धू और कान्हू मुर्मू, चांद-भैरव, नीलांबर-पीतांबर इत्यादि बहुत से वीरों का नाम तो ज्ञात है परंतु अनेकों ऐसे गुमनाम वीर हैं जो अपनी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करते हुए स्वयं का बलिदान कर गए परंतु परतंत्रता स्वीकार नहीं की। ऐसे हजारों-लाखों वीर जिनका नाम इतिहास में कहीं नहीं है वे हमारी स्वतंत्रता संग्राम का मूल स्तंभ रहे।

महिलाओं की बड़ी भूमिका

झारखंड के संग्राम में महिलाओं की भी व्यापक भागीदारी रही। 1780-85 में पाकुड़ अनुमंडल में महेशपुर की रानी सर्वेश्वरी ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह किया था जिसमें आसपास के पहाड़िया सरदारों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। पहाड़िया जनजाति के लोगों ने अंग्रेजो के खिलाफ लंबा संघर्ष किया और उन्हें अपने क्षेत्र से बाहर निकाल दिया। इस आंदोलन में बहुत सी महिलाओं ने भी अपनी शहादत दी। इनमें बटकुड़ी गांव की देव मुनि और जीऊरी पहाड़न की चर्चा होती है। इसी प्रकार 1831-32 में सिंहभूम के कोल विद्रोह में अनेक महिलाएं शहीद हुई।

वर्ष 1855 में ग्राम प्रधान चुन्नू मुर्मू और सुलखी मुर्मू के चार बेटों सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव के साथ-साथ दो बेटियां फूलो और झानो ने संथाल विद्रोह के नायक की भूमिका संभाली। लोक कथाओं में संकलित है कि सुबह सवेरे तड़के बरहेट की अंग्रेजी छावनी में घुसकर फूलो और झानो ने सोए पड़े 21 अंग्रेजों की तलवार से हत्या कर दी थी। इसी तरह जब वीर बुधु भगत ने रांची के निकटवर्ती क्षेत्रों में अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया तो इसमें बुधु भगत के बेटे हलधर भगत और गिरिधर भगत के साथ-साथ उनकी बेटियों रूनिया भगत और झुनिया भगत ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

कालांतर में पूरे भारतवर्ष में और पूरे विश्व में आदिवासियों के संघर्ष के प्रतीक बने बिरसा मुंडा ने सन् 1886 से 1900 तक अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन चलाया। धर्मांतरण के खिलाफ उन्होंने सर्वदा मिशन पर तीर चलाया, गोदाम में आग लगाई और ईसाई पादरियों पर जबरन धर्मांतरण के खिलाफ हमला किया। प्रासंगिक है कि बिरसा मुंडा के अनुयायी सरदार गया मुंडा की पत्नी मानकी मुंडा एवं परिवार की अन्य महिलाओं की वीरता को आज भी आदिवासी समाज याद करती है। जब रांची के डिप्टी कमिश्नर स्ट्रीटफील्ड पुलिस बल को साथ लेकर सरदार गया मुंडा को पकड़ने के लिए उनके घर गए तो घर की महिलाओं ने कुल्हाड़ी, दऊली और लाठी लेकर उनका मुकाबला किया और उनके 14 वर्ष के पोते ने अधिकारियों पर तीर-धनुष खींच दिया। झारखंड के इन सभी आंदोलनों में झारखंड की वीरांगनाओं की भूमिका अतुलनीय है। झारखंड की वीरांगनाओं और क्रांतिकारियों ने दमन और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने पारंपरिक हथियारों से बंदूकों और तोपों का मुकाबला किया।

बिरसा मुंडा और तिलका मांझी का अतुलनीय जीवन

आज बिरसा मुंडा देश भर में आदिवासी अस्मिता का प्रतीक है। उनका तेल-चित्र संसद हॉल में सुशोभित है। रांची हवाईअड्डे का नाम भी उनके नाम पर है और रांची में जिस जेल में उन्हें रखा गया था वह अब उनकी बहादुरी का स्मारक है। आज बिरसा मुंडा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिया जाता है परंतु अन्य आदिवासी वीरों को भारतीय इतिहासकारों द्वारा उपयुक्त सम्मान नहीं मिला है।  ऐसे ही एक स्वतंत्र सेनानी तिलका मांझी है।

1857 की क्रांति के बहुत पहले घने जंगलों में निवास करने वाले सरल स्वभाव के पहाड़िया जनजाति के तिलका मांझी ने 1780 और 1785 के बीच पहाड़िया समाज को अंग्रेज़ों के विरुद्ध संगठित किया था। जब उन्होंने यह मोर्चा खोला तब वह मात्र 19 वर्ष के थे। इसका प्रारंभ उन्होंने स्वेच्छाचारी अंग्रेजी अफसर क्लीवलैंड को एक तीव्र गुलेल से मार कर किया था। अंग्रेजी सरकार 1785 में उन्हें पकड़ने में सफल हो गई और उन्हें घोड़े के पीछे बांधकर कई मील तक घसीटा गया एवं अन्य मानवीय कष्ट दिए गए। भागलपुर के कलेक्टर बंगले मैं उन्हें फांसी पर चढ़ाया गया। जिस स्थान पर उन्हें फांसी दी गई उससे भागलपुर में आज भी तिलका मांझी चौक के रूप में जाना जाता है।

उक्त अंग्रेजी अफसर क्लीवलैंड को भागलपुर में दफनाया गया है। उसकी कब्र के ऊपर अंकित शब्दों से पता लगता है कि किस प्रकार दमनकारी अंग्रेजों ने अपनी सभ्यता, संस्कृति और व्यवस्था जंगल के आंतरिक भाग में रहने वाले निष्कपट लोगों पर ज़बरदस्ती थोपा। इसका अनुवाद निम्नलिखित शब्दों में किया गया है:

“यह स्मृति भागलपुर और राजमहल जिलों के दिवंगत कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड की है, जिन्होंने बिना रक्तपात या अधिकार के आतंक के, केवल सुलह, आत्मविश्वास और परोपकार के साधनों को नियोजित करने का प्रयास किया। राजमहल के जंगल टेरी के वफादार और जंगली निवासियों की पूरी अधीनता, जिन्होंने अपने शिकारी आक्रमणों से पड़ोसी भूमि को लंबे समय तक प्रभावित किया, उन्हें सभ्य जीवन की कला के लिए प्रेरित किया, और उन्होंने ब्रिटिश सरकार को स्थानीय निवासियों के दिमाग पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। प्रभुत्व की सबसे तर्कसंगत विधा के रूप में दिमाग की जीत ही असली जीत है। गवर्नर जनरल और बंगाल परिषद ने उनके चरित्र के सम्मान में और दूसरों के लिए एक उदाहरण हेतु इस स्मारक को बनाने का आदेश दिया है। उन्होंने 13 जनवरी 1784 को 29 वर्ष की आयु में यह जीवन छोड़ दिया। ”

एक आक्रांता के प्रति यह सम्मान भरा कब्र का पत्थर आक्रमणकारियों की द्रिष्टि में मूल वासियों की मानसिकता पर विजय पाने की प्राथमिकता को दिखाता है। ऐसे अनेकों ज्ञात और अज्ञात स्वतंत्रता सेनानी है जिन्होंने की अपने सीमित दायरे में रहकर पारंपरिक हथियारों से दूरदराज के आंतरिक भागों में निरंतर संघर्ष किया। इनका अध्ययन राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में किए जाने की आवश्यकता है। लोक परंपराओं में निहित विचारों, भावनाओं एवं घटनाओं को वैज्ञानिक तरीके से लिखित किया जाना चाहिए इससे पहले कि लोक परंपरा में परिलक्षित संघर्ष हमसे हमेशा के लिए ओझल हो जाएँ।

– डॉ नियति चौधरी

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