वृक्ष जीवन की परम्परा और नदी निरंतरता की परम्परा के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। जैसे वृक्ष विकसित होता है और अपने बीजों के माध्यम से विस्तारित होता है वैसे जीवन विकसित व विस्तारित होता है; और जैसे नदी निरंतर प्रवाहमान है, वैसे ही भारत की लोक परम्परा निरंतर प्रवाहमान है।
लोकमंथन के सत्र में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित और आदिवासी लोककला अकादमी, संस्कृति परिषद, मध्य प्रदेश के सेवानिवृत्त निदेशक डॉ. कपिल तिवारी ने भारतीय परम्परा के विविध प्रतीकों के माध्यम से भारत के लोक को स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि वृक्ष जीवन की परम्परा और नदी निरंतरता की परम्परा के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। जैसे वृक्ष विकसित होता है और अपने बीजों के माध्यम से विस्तारित होता है वैसे जीवन विकसित व विस्तारित होता है; और जैसे नदी निरंतर प्रवाहमान है, वैसे ही भारत की लोक परम्परा निरंतर प्रवाहमान है।
उन्होंने कहा कि कथित आधुनिक लोग भारत की लोक परम्परा पर आधुनिक न होने का आरोप लगाते हैं। ऐसे लोग मूलत: यूरंडपंथी हैं, जो न पूरी तरह से यूरोपीय हैं और न भारतीय। परंतु अब युग ने करवट बदली है, चिंतन का केंद्र धीरे-धीरे यूरोप से भारत की ओर परिवर्तित हो रहा है। उन्होंने यह कहा कि जीवन सम्पूर्ण समष्टि से जुड़ा हुआ है। शक्ति को बाहर खोजा नहीं जाता, यह अंतर्यात्रा है।
सत्य अपने आप में पूर्ण होता है, जिसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। सत्य नया नहीं होता, वह सनातन होता है। सत्य को नई तरह से कहा जा सकता है, नया नहीं कहा जाता। शब्द व विचार जब एक बिंदु की ओर केंद्रित होता है, तो वह विमर्श बनता है। उन्होंने कहा कि कोई प्रतिभा पर रुक गया तो वह उस क्षेत्र में सत्ता बन जाएगा। इसलिए हमारी परम्परा यह कहती है कि प्रतिभा को प्रज्ञा में बदलो।
सत्र
लोक परंपरा
शब्द व विचार जब एक बिंदु की ओर केंद्रित होता है, तो वह विमर्श बनता है। कोई प्रतिभा पर रुक गया तो वह उस क्षेत्र में सत्ता बन जाएगा। इसलिए हमारी परम्परा यह कहती है कि प्रतिभा को प्रज्ञा में बदलो।
डॉ. कपिल ने इस अवसर पर यह कहा कि लोक एक वाक् केंद्रित परम्परा का शब्द है। भारत की चेतना में जो लोक का विस्तार है वह षड्मातृकाओं में है। ये षड्मातृका धरती माता, पांच तत्व व तीन गुणों वाली अपरा प्रकृति के रूप में प्रकृति माता, नदी माता, स्त्री माता, गाय माता व मातृभाषा माता हैं।
भारत की इस लोक संस्कृति पर बर्बर लोगों के अनेकानेक आक्रमण हुए। परंतु ये संस्कृति की भौतिक परत को ही नष्ट कर पाए। उन्होंने लोगों के सर काटे परंतु उनकी चेतना को न मिटा पाए। भौतिक परत के बार-बार नष्ट होने पर भी यह संस्कृति फिर से खड़ी हो गई, क्योंकि इस संस्कृति में विविधता नहीं एकसूत्रता है; और वह सूत्र ज्ञान, बोध व चेतना है। यह संस्कृति इसलिए नष्ट नहीं हो पाई, क्योंकि इसके विरुद्ध संघर्ष हेतु आए समुदायों में कोई ज्ञान की परम्परा ही नहीं थी।
उन्होंने यह कहा कि भारत का लोक कभी भी राज्य के भरोसे नहीं रहा। जिस समाज में स्वानुशासन हो, उसे राज्य के विधानों व संहिताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज की नागर परम्परा में विधान के समाप्त होते ही राज्य की मर्यादा समाप्त हो जाती है। लेकिन भारत का लोक ऋत अर्थात् अस्तित्व को संचालित करने वाले महानियम पर आधारित है, इसकी मर्यादा स्वधर्म में है अत: यह समाप्त नहीं होती। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की मर्यादा किसी संहिता व विधान पर आधारित नहीं थी; वे समष्टि की मर्यादा के पुरुषोत्तम थे।
डॉ. तिवारी ने धर्म व धार्मिकता पर कहा कि धार्मिकता का संबंध रोज कर्मकांड करने से नहीं है। यदि किसान अपने खेत की मिट्टी को प्रणाम करता है तो वह उसी विराट की पूजा कर रहा है; वह यदि अपने खेत का अन्न किसी भूखे को खिलाता है तो वह धर्म का आचरण कर रहा है। उन्होंने कहा कि भारतीय लोक परम्परा यह बताती है कि धरती न जीतने के लिए होती है, न हारने के लिए; यह रहने के लिए होती है।
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