सत्र
भारत में आस्था एवं विज्ञान की लोक परंपरा
लोकमंथन में ‘भारत में आस्था एवं विज्ञान की लोक परंपरा’ सत्र में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. अभिराज राजेंद्र मिश्र ने बताया कि श्रद्धा, समर्पण, विश्वास प्रणति, उपनति, संभावना आदि शब्द अभिप्राय की दृष्टि से एक ही कुल के प्रतीत होते हैं, तथापि ये एक ही नहीं हैं। सबका अपना पृथक आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक इतिहास है। संस्कृत चूंकि एक यौगिक भाषा है, जिसमें प्रत्येक शब्द किसी न किसी धातु और प्रत्यय के सहयोग से ही बनना संभव होता है। अत: उस शब्द का उपयुक्त विविध सौंदर्य भी उसी धातु और प्रत्यय से प्रकाशित हो जाता है।
जब हम किसी वस्तु, इच्छा अथवा प्रत्यय की पूर्ति के लिए अधीर हो जाएं, अशांत हो जाएं, अपना सुख-चैन खो दें तो वही शिष्ट भाषा में श्रद्धा है तथा लोक व्यवहार में आसक्ति है।
— प्रो. अभिराज राजेंद्र मिश्र, पूर्व कुलपति,संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय
उन्होंने कहा कि सम्पूर्ण विश्व में संस्कृत ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमें प्रत्येक शब्द यौगिक है। अतएव सरलता से व्याख्या योग्य भी है। वस्तुत: श्रद्धा शब्द श्रत् एवं धा धातु (श्रत् + धा = श्रद्धा) के सहयोग से बना है। चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा ने अपने प्रख्यात कोषग्रंथ ‘संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ’ में इस शब्द की सुंदर व्याख्या की है। उसे उद्धृत करते श्री मिश्र ने कहा कि एक प्रकार की मनोवृत्ति जिसमें किसी बड़े या पूज्य व्यक्ति के प्रति भक्तिपूर्वक विश्वास के साथ उच्च और पूज्य भाव उत्पन्न होता है।
उन्होंने कहा कि श्रद्धा तथा विश्वास को गोस्वामी तुलसीदास ने परस्पर अभिन्न माना है- भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वास रूपिणौ। लोक में प्राय: हम श्रद्धा का प्रयोग तीव्र उत्कंठा, अदम्य निष्ठा अथवा दुर्निवार अभिमुखता के अर्थ में पाते हैं। जब हम किसी वस्तु, इच्छा अथवा प्रत्यय की पूर्ति के लिए अधीर हो जाएं, अशांत हो जाएं, अपना सुख-चैन खो दें तो वही शिष्ट भाषा में श्रद्धा है तथा लोक व्यवहार में आसक्ति है।
मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है- श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम् तत्पर: संयतेन्द्रिय। अर्थात् जो ज्ञान के प्रति श्रद्धालु हो, ज्ञान पाने के लिए अशांत हो, विकल हो, कातर हो, आतुर हो, व्यग्र हो- वही ज्ञान को प्राप्त करता है। ज्ञान की प्राप्ति का अर्थ है ईश्वर की प्राप्ति। उन्होंने कहा कि किसी प्रयोजन के कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि मंदबुद्धि (मूर्ख) भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। यह प्रयोजन क्या है? प्रकर्ष के साथ जो भावना किसी को कार्य विशेष में योजित कर दे, लगा दे, वही प्रयोजन है। प्रयोजन शब्द की यह व्याख्या प्रकारान्तर से श्रद्धा की ही व्याख्या है।
एक किसान इस विश्वास के साथ ही खेत में बीजवपन करता है कि उससे बीज अंकुरित होंगे। यदि बीजा अंकुरण के प्रति उसकी श्रद्धा न हो तो वह कभी भी वपन नहीं करेगा। एक विद्यार्थी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के हद विश्वास से ही पढ़ता और परीक्षा देता है। एक दम्पति इस श्रद्धा से ही सन्तति उत्पन्न करते हैं कि वह संतान (पुत्र) ही वृद्धावस्था में उनका सहारा बनेगा, वही उन्हें पुत् नामक नरक में जाने से बचाएगा, वही लोकान्तर में भी उन्हें पिण्डोदक देगा। श्रद्धा एवं विश्वास की यह अटूट परम्परा पिण्डज, अण्डज, स्वेदज एवं उद्यिसन- सभी में समान रूप से व्याप्त है। जननी चाहे मानवी हो चाहे पशु, श्रद्धा की मूर्ति होती है।
उन्होंने कहा कि लोहा तो बस लोहा है। इससे चिमटा बना लो, रसोई में सहायक सिद्ध होगा और कटारी-भाला बनवा लो तो किसी की हत्या में सहायक होगा। ऐसे ही श्रद्धा व्यवहार में सत्प्रेरक भी हो सकती है, दुष्प्रेरक भी। उन्होंने बताया कि सृष्टि में कोई वस्तु, तत्व नहीं होगा जिसमें भाव-अभाव का रूप विद्यमान न हो।
रात का अभाव ही दिन है, दिन का अभाव ही रात्रि है। ह्रास का अभाव रोदन, रोदन का अभाव ह्रास है। गुण का अभाव गुणहीनता (दोष) तथा दोष का अभाव गुण है। इस प्रकार परमेश्वर ने सृष्टि में प्रत्येक वस्तु को भाव तथा अभाव दोनों के युग्म रूप में प्रकट किया है। और यही कटु सत्य उन प्रपंची, छद्म दार्शनिकों तथा दिखावटी आस्थावानों के मुंह पर बड़ा तमाचा भी है, जो परमेश्वर को सगुण या साकार (अवतारी) नहीं मानते। उनसे कोई पूछे कि यदि ईश्वर साकार नहीं (आचार्य यास्क के शब्दों में- पुरुषविध) है तो तुम्हें कैसे पता चला कि वह निराकार है!
टिप्पणियाँ