राष्ट्र को सर्वप्रथम और सर्वोपरि रखने वाले चिंतकों और कार्यकर्ताओं का यह सम्मेलन देश के समक्ष उपस्थित ऐसी समकालीन समस्याओं (जो देश ही नहीं, पूरे विश्व पर प्रभाव डाल रही हैं) को साझा करने, उन पर मंथन व विचार करने के लिए सार्वजनिक विमर्श का एक मंच है।
लोकमंथन ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की भावना से परिपूर्ण विचारकों और कर्मशीलों का लोकमंच है। यह समकालीन मुद्दों को साझा करने, बौद्धिक विमर्श तथा आख्यान के लिए सबसे बड़ा मंच बनकर उभरा है, जो न केवल देश, बल्कि दुनिया को भी प्रभावित कर रहा है। इस राष्ट्रीय विमर्श का मंत्र परानुभूति और जागरूकता के आधार पर उभरते राष्ट्रवाद, अपेक्षाओं, सामाजिक न्याय तथा समता के आधार पर विकास को माध्यम बनाते हुए सामाजिक गतिशीलता के समस्त प्रयासों का संगम है। इस संगम के सूत्रधार एवं प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक जे. नंदकुमार ने लोकमंथन के लक्ष्य और उद्देश्यों पर प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि राष्ट्र को सर्वप्रथम और सर्वोपरि रखने वाले चिंतकों और कार्यकर्ताओं का यह सम्मेलन देश के समक्ष उपस्थित ऐसी समकालीन समस्याओं (जो देश ही नहीं, पूरे विश्व पर प्रभाव डाल रही हैं) को साझा करने, उन पर मंथन व विचार करने के लिए सार्वजनिक विमर्श का एक मंच है। देश के समक्ष मौजूदा चुनौतियों को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि मंथन भारतीय दर्शन का मूल आधार है। स्वस्थ विचार-विनिमय और रचनात्मक संवाद ने इस महान राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ज्ञान प्रदान करने का अनूठा तरीका हमारी ज्ञान-परंपरा की विशिष्टता को रेखांकित करता है। भारत में ज्ञान के संप्रेषण की विधि और स्वरूप हमेशा से बहुआयामी रहा है। अत: संवाद की हमारी शैली समग्र एवं व्यापक है और उसे ठीक से समझने के लिए हमें उसे उसकी संपूर्णता में देखना और अनुभव करना होगा।
हम एक थे और एक हैं
श्री नंदकुमार ने कहा कि हमारी संवाद परंपरा का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है, उपादेयता या अंतिम परिणाम की संकल्पना। हमारे प्राचीन और आधुनिक ऋषियों ने हमेशा बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है, ‘‘इसका उद्देश्य केवल तर्क-वितर्क करना, अंक हासिल करना या किसी भी कीमत पर विजयी होना नहीं है। इसका उद्देश्य स्वयं ज्ञान प्राप्त करना और दूसरे को ज्ञान देना है।’’ अत: जब भी हम भारत की समृद्ध ज्ञान परंपरा पर विचार करें तो केवल और केवल लाभान्वित करने वाले इस कारक को भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए। जैसा कि समाज में व्याप्त है कि बौद्धिक विचार-विमर्श या मंथन हमेशा से हमारे समाज का हिस्सा रहा है। इस संदर्भ में लोकमंथन अत्यंत प्रासंगिक है। लोकमंथन ऐसे व्यक्तियों की संगोष्ठी होगी जो विचारशील हैं और अपने विचारों को कार्य रूप में परिणित करते हैं। हम किसी सर्वाधिकारवादी शासक, किसी संविधान या किसी एक भाषा के कारण एक राष्ट्र नहीं हैं। हम हमेशा से एक थे और हैं, क्योंकि हमारी संस्कृति, परंपराएं और रीति-रिवाज एक हैं। हमारी संस्कृति की यह समानता, हमारे देश के साधारण लोगों के दैनिक जीवन में अभिव्यक्त होती है।
संवाद, वाद-विवाद और चर्चा शासन की आत्मा हैं। इस मामले में समसामयिक परिदृश्य, विशेष रूप से विधायिका में चिंताजनक है। अपने समृद्ध अतीत से सबक लेकर संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र का उत्थान किया जा सकता है।
— जे. नंदकुमार, अखिल भारतीय संयोजक, प्रज्ञा प्रवाह
उन्होंने कहा कि हमारी इस अटूट सांस्कृतिक एकता का सौंदर्य और उसकी शक्ति यही है कि वह हमारे राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक पहलू में प्रतिबिंबित होती है। साधारण सांसारिक मसलों से लेकर उदात्त आध्यात्मिक पहलुओं तक इस ऐक्य को अनुभव किया जा सकता है। हमारी शाश्वत भारतीय आत्मा की अद्वितीयता को पर्यावरण के प्रति हमारे दृष्टिकोण से लेकर मानव जीवन को उच्चतम स्तर पर ले जाने और अंतत: उसकी मुक्ति की अवधारणा तक में अनुभव किया जा सकता है।
बीज बोते समय और फसल काटते समय कृषकों द्वारा गाए जाने वाले गीतों से लेकर सैनिकों के कदमताल की लय तक एवं हर स्थान पर हम राष्ट्र की धड़कन को स्पष्ट महसूस कर सकते हैं। सिस्टर निवेदिता ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘द वेब आफ इंडियन लाइफ’ में लिखा है, ‘‘भोजन और स्नान, जो कि मुख्यत: स्वयं के लिए किए जाने वाले कार्य हैं, का भी सांस्कारिक महत्व है। इनमें सामाजिक प्रतिष्ठा और पवित्रता के प्रति आग्रह होता है।’’
सतर्क रहने की आवश्यकता
यही बात साहित्य, नाटक, संगीत, त्योहारों, उत्सवों और अन्य सभी चीजों के बारे में सही है। आवश्यकता केवल हमें एक करने वाले कारकों को ढूंढने की दृष्टि की है। हमें परस्पर जोड़ने वाले सूक्ष्म तत्वों और उन चीजों को ढूंढना आसान नहीं है, जो हमें एक सूत्र में बांधती हैं। इसके लिए स्पष्ट दृष्टि और बौद्धिक मंथन आवश्यक है और इसलिए लोकमंथन महत्वपूर्ण है। यहां दार्शनिक और कलाकार एक साथ मिलकर समाज को सशक्त बनाने के तरीके और माध्यम ढूंढने का प्रयास करेंगे। वैज्ञानिक और शिल्पकार एक छत के नीचे देश और उसके भविष्य, काल और परिस्थितियों पर चिंतन करेंगे। इस अर्थ में यह एक अनोखा प्रयोग होगा। उन्होंने आसन्न संकट के प्रति आगाह करते हुए कहा कि विघटनकरी शक्तियां देश को कमजोर करने में लगी हुई हैं। समाज में बढ़ रही इन खतरनाक प्रवृत्तियों के प्रति हमें सजग रहना होगा।
उन्होंने कहा कि देश में बिखराव उत्पन्न करने के प्रयासों के पीछे मुख्यत: दो कारक हैं। पहला, औपनिवेशीकरण, जिसने हमारी अत्यंत उत्कट बौद्धिक प्रणाली को पटरी से उतार दिया था, जिसका प्रभाव अभी भी है। इतिहास, समाज विज्ञान, कला, साहित्य, विधिशास्त्र आदि के बारे में कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। डॉ. डी. एस. कोठारी ने राष्ट्रीय शिक्षा आयोग पर अपनी रपट में कहा था कि हमारी शिक्षा का गुरुत्व केंद्र यूरोप की तरफ खिसक गया है।
शिक्षाविदों के समक्ष सबसे बड़ा कार्य है, इस गुरुत्व केंद्र को वापस लाना और शिक्षा को भारत-केंद्रित बनाना। यह विडंबना है कि स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी हम ऐसी शिक्षा नीति की तलाश कर रहे हैं, जो वास्तविक अर्थों में राष्ट्रीय हो। अत: हमारा नैतिक कर्तव्य है कि हम भारतीयों के मन-मस्तिष्क को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त करने का तरीका ढूंढें और उन्हें सूत्रबद्ध करें। इसी को ध्यान में रखते हुए वर्तमान सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 लेकर आई है।
समाज में भ्रम फैला रहे वामपंथी
दूसरा कारक है, घिसे-पिटे वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के समर्थकों की विघटनकारी विचारधारा और गतिविधियां। वे हमारी भिन्नताओं को खोद निकालने और समाज को विभाजित करने में सिद्धहस्त हैं। लोगों में बाह्य भिन्नताएं ढूंढ निकालना बहुत कठिन नहीं है। सबकी त्वचा का रंग, शारीरिक ढांचा, वेशभूषा, भाषा, रहन-सहन और जन्म स्थान एक नहीं हो सकते। बौद्धिक होने का स्वांग भरने वाले मार्क्सवादी इन मामूली और क्षुद्र भिन्नताओं को उछालकर परपीड़क आनंद का अनुभव करते हैं। वे एक ऐसी विचारधारा, जो सिद्धांत के स्तर पर त्रुटिपूर्ण और व्यवहार के स्तर पर खतरनाक है, का उपयोग कर समाज में अफरा-तफरी और भ्रम फैलाने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें भारत से कोई प्रेम नहीं है। उनके लिए भारत एक राष्ट्र न होकर विभिन्न राष्ट्रीयताओं का समूह है।
स्टालिन, जो अपने जीवनकाल में और उसके बाद भी भारतीय कम्युनिस्टों का प्रेरणास्रोत था, ने 1925 में लिखा था, ‘‘इन दिनों भारत को एक राष्ट्र बताया जा रहा है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि वहां क्रांतिकारी उथल-पुथल होने पर अब तक अनजान अनेक नई राष्ट्रीयताएं उभर कर सामने आएंगी, जिनकी अपनी-अपनी भाषाएं और अपनी-अपनी विशिष्ट संस्कृति होगी।’’ श्री नंदकुमार ने कहा कि हम एकीकरण के दर्शन में आस्था रखते हैं, टकराव के दर्शन में नहीं। हम प्रसारण की राह पर चलते हैं, संकुचन की राह पर नहीं। हम जीवन के हर पहलू विशेषकर, बौद्धिक चर्चाओं के मामले में अपने अस्तित्व के ब्रह्मांड को विस्तार देने के लिए प्रयासरत हैं। इस कठिन प्रयास में हम हर प्रकार की छोटी-छोटी अस्मिताओं से ऊपर उठकर एक बड़ी अस्मिता में उनका विलय करने के पारंपरिक रूप से आदी रहे हैं। यह आत्मोन्नति का हमारा सदियों पुराना तरीका और मुक्ति की राह है।
भारत में बहस, चर्चा, ज्ञान को साझा करने, सार्वजनिक प्रवचन और बौद्धिक विचार-मंथन की एक महान बेजोड़ विरासत है। प्राचीन काल में एक स्वस्थ स्थान था, जहां विभिन्न धार्मिक, दार्शनिक और नैतिक मुद्दों पर वाद-विवाद आयोजित किया जाता था। श्रीमद्भगवद् गीता जैसे भारतीय महाकाव्य संवाद के रूप में नैतिकता और दर्शन पर गहन चिंतन हैं।
प्रस्तुति- डॉ. अमरेंद्र कुमार आर्य
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