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लोकनायक श्रीराम की वैश्विक लोकप्रियता

कई देशों में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का प्रभाव पूरी प्रमाणिकता के साथ मौजूद है। इन देशों की लोक-संस्कृति और साहित्यिक ग्रंथ, शिलालेख, भित्तिचित्र, सिक्के, आदि पुरातात्विक अवशेष श्रीराम की वैश्विक स्वीकार्यता के सूचक हैं।

by पूनम नेगी
Oct 1, 2022, 05:45 pm IST
in भारत, संस्कृति
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लोकनायक श्रीराम भारतीय जनमानस के उच्चतम आदर्श हैं। अवतारी सत्ता होने पर भी अवतरण से लेकर लोकलीला संवरण तक उनके जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम में मानवीय आदर्श की पराकाष्ठा प्रतिबिम्बित होती है। यही वजह है सदियां बीत जाने पर भी श्रीराम की पावन जीवन गाथा विश्वमानव को एक प्रचण्ड प्रेरक शक्ति के रूप में प्रेरित करती आ रही है।

अयोध्या शोध संस्थान के रामायण विश्वकोश (ग्लोबल इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रामायण) में मौजूद सांस्कृतिक व पुरातात्विक साक्ष्य इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं कि भारत की सीमा से बाहर नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, थाईलैण्ड, वियतनाम, बांग्लादेश, तिब्बत, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा, थाईलैंड, चीन, जापान व कोरिया सूरीनाम, मॉरीशस, मध्य पूर्व ईराक, सीरिया, मिश्र सहित यूरोप इंग्लैड, बेल्जियम और मध्य अमेरिका के होण्डुरास सहित विश्व के दर्जनों देशों में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का प्रभाव पूरी प्रमाणिकता के साथ मौजूद है। इन देशों की लोक-संस्कृति और साहित्यिक ग्रंथ, शिलालेख, भित्तिचित्र, सिक्के, आदि पुरातात्विक अवशेष श्रीराम की वैश्विक स्वीकार्यता के सूचक हैं।

श्रीलंका में वह स्थान ढूंढ लिया गया है जहां रावण की सोने की लंका थी। माना जाता है कि जंगलों के बीच रानागिल की विशालका पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहां उसने तपस्या की थी। रावण के पुष्पक विमान के उतरने के स्थान को भी ढूंढ लिया गया है। श्रीलंका के इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर रामायण से जुड़े पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व के 50 स्थल ढूंढ लिए हैं। श्रीलंका सरकार की योजना भारत की मदद से इन स्थलों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की है। जानना दिलचस्प हो कि 90 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इंडोनेशिया पर राम के जीवन गाथा की गहरी छाप है। रामकथा वहां की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न हिस्सा है। जिस तरह भारत में राम की नगर अयोध्या है, वैसे ही इंडोनेशिया में योग्या है। यहां का राष्ट्रीय चिह्न ‘गरुण’ है। यहां की रामायण ‘काकविन’ 26 अध्यायों का एक विशाल ग्रंथ है। कहा जाता है कि इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति सुकर्णो के समय में पाकिस्तान का एक प्रतिनिधिमंडल इंडोनेशिया की यात्रा पर था उस प्रतिनिधिमंडल के लोग इससे हैरान थे कि एक इस्लामी गणतंत्र में रामलीला का मंचन क्यों होता है! उनके सवाल पर सुकर्णो बोले-भले ही इस्लाम हमारा मजहब है पर राम और रामायण हमारी संस्कृति हैं।

इंडोनेशिया की ही तरह लाओस, कंपूचिया और थाईलैंड के लोकजीवन पर भी राम की गहरी छाप है। लाओस के राजप्रसाद में थाई रामायण ‘रामकियेन’ और लाओ रामायण ‘फ्रलक-फ्रलाम’ की कथाएं अंकित हैं। लाओस का ‘उपमु’ बौद्ध विहार रामकथा-चित्रों के लिए विख्यात है। थाईलैंड के राजभवन परिसर स्थित  सरकत बुद्ध मंदिर की भित्तियों पर संपूर्ण थाई रामायण ‘रामकियेन’ को चित्रित किया गया है। कंपूचिया की राजधानी नामपेन्ह में एक बौद्ध संस्थान है, जहां खमेर लिपि में 2,000 ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध पांडुलिपियां संकलित हैं। इस संकलन में कंपूचिया की रामायण की प्रति भी है। शोधकर्ताओं के अनुसार थाईलैंड का प्राचीन नाम स्याम था और थाई सम्राट रामातिबोदी ने 1350 ई. में अपनी राजधानी का नाम अयुध्या (अयोध्या) रखा था।

थाईलैंड में लौपबुरी (लवपुरी) नामक एक प्रांत है। इसके अंतर्गत वांग-प्र नामक स्थान के निकट फाली (बालि) नामक एक गुफा है। प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट पर स्थित आधुनिक वियतनाम का प्राचीन नाम चंपा है। थाईवासियों की तरह वहां के लोग भी अपने देश को राम की लीलभूमि मानते हैं। उनकी इस मान्यता की पुष्टि 7वीं शताब्दी के एक शिलालेख से होती है जिसमें वाल्मीकि मंदिर का उल्लेख मिलता है जिसका पुनर्निमाण प्रकाश धर्म (653-679 ई.) नामक सम्राट ने करवाया था। वियतनाम के बोचान नामक स्थान से एक क्षतिग्रस्त शिलालेख भी मिला है जिस पर संस्कृत में ‘लोकस्य गतागतिम्’ उकेरा हुआ है। दूसरी या तीसरी शताब्दी में उत्कीर्ण यह उद्धरण रामायण के अयोध्या कांड के एक श्लोक का अंतिम चरण है। संपूर्ण श्लोक इस प्रकार है- ‘’क्रुद्धमाज्ञाय रामं तु वसिष्ठ: प्रत्युवाचह। जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्यगतागतिम्।। वियतनाम के त्रा-किउ नामक स्थल से प्राप्त एक और शिलालेख यत्र-तत्र-क्षतिग्रस्त है। इसे भी चंपा के राजा प्रकाश धर्म ने खुदवाया था। इसमें वाल्मीकि का स्पष्ट उल्लेख है- ‘’कवेराधस्य महर्षे वाल्मीकि पूजा स्थानं पुनस्तस्यकृत।’

इसी तरह ईरान-इराक की सीमा पर स्थित बेलुला में लगभग 4000 वर्ष प्राचीन श्रीराम से संबंधित गुफा चित्र मिले हैं तो वहीं मिश्र में 1,500 वर्ष पूर्व राजाओं के नाम तथा कहानियां ‘राम‘ की भांति ही मिलती हैं। इटली में पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व रामायण से मिलते-जुलते चित्र दीवारों पर मिले हैं। इटली में प्राप्त इन चित्रों में राम लक्ष्मण सीताजी का वन गमन, सीता हरण, लव-कुश का घोड़ा पकड़ना, हनुमानजी का संजीवनी लाना आदि प्रमुख हैं। प्राचीन इटली में ‘रावन्ना‘ क्षेत्र मिलता है,जो रावण की कथा के समान है। यहां कुछ कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं, जिनमें स्वर्ण मृग, मारीच, सीताहरण की कथा बिल्कुल समान है। इनमें आकाशमार्ग से उड़ते हुये घोड़ों के साथ चित्र में जटायु का प्रसंग भी मिलता है। मध्य अमेरिका के देश होन्डुरास के घने जंगलों में हनुमानजी की प्रतिमा व विशाल शहर मिला है। रामकथा पर आधारित बर्मा की प्राचीनतम गद्यकृति ‘रामवत्थु’ है। मलयेशिया में रामकथा पर आधरित एक विस्तृत रचना है हिकायत सेरीराम।  चीनी रामायण को  ‘अनामकं जातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’ के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार राजा दशरथ जंबू द्वीप के सम्राट थे और उनके पहले पुत्र का नाम लोमो (राम) था। चीनी कथा के अनुसार 7,323 ईसा पूर्व राम का जन्म हुआ। जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह होबुत्सुशू में संक्षिप्त रामकथा संकलित है। यह कथा वस्तुत: चीनी भाषा के  अनामकं जातकम् पर आधारित है। चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया के लोगों को रामकथा की विस्तृत जानकारी है। वहां के लामाओं के निवास स्थल से वानर-पूजा की अनेक पुस्तकें और प्रतिमाएं मिली हैं। मंगोलिया में रामकथा से संबद्ध काष्ठचित्र और पांडुलिपियां भी उपलब्ध हुई हैं। तिब्बत में रामकथा को किंरस-पुंस-पा कहा जाता है। वहां के लोग प्राचीनकाल से वाल्मीकि रामायण की मुख्य कथा से सुपरिचित थे।

तिब्बती रामायण की छह प्रतियां तुन-हुआंग नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। कोरिया राजवंश के दस्तावेजों के अनुसार अयोध्या की राजकुमारी सुरीरत्ना  बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए पानी के जहाज से कोरिया गयी थीं. वहां उनकी मुलाकात तत्कालीन राजा किम सोरो से हुई और दोनों ने प्रेम विवाह कर लिया था जिस नाव से राजकुमारी कोरिया पहुंची थीं, वह नाव कोरिया ने 2000 साल बाद भी संभाल कर रखी है। इसके बाद भारत-कोरिया के दोस्ती इतनी मजबूत कि कोरिया ने अयोध्या में सरयू नदी के तट पर ‘रानी हो’ का स्मारक बनवाया और हर साल फरवरी-मार्च के बीच कोरियन लोग अयोध्या आकर ‘रानी हो’ को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इराक में एक भित्ति के बारे में कहा जा रहा है कि उसमें भगवान राम की तस्वीर दिख रही है। यह भित्तिचित्र 2000 ईसा पूर्व का बताया जा रहा है। अयोध्या शोध संस्थान के अनुसार, हाल ही में इराक गये भारत के एक प्रतिनिधिमंडल ने इसकी पुष्टि की थी।

श्री राम के वन गमन पथ के शोधकर्ता प्रसिद्ध इतिहाकार व पुरातत्वशस्त्री डॉ. राम अवतार शर्मा ने भी 21 देशों की यात्रा कर उन देशों की श्रीराम से जुड़ी कई  महत्वपूर्ण जानकारियां प्रस्तुत की हैं। उनके अनुसार राजा दशरथ की तीसरी पत्नी व लक्ष्मण की माँ सुमित्रा इंडोनेशिया के ‘सुमात्रा’ द्वीप की थीं। इसी तरह मध्य जावा की एक नदी का नाम सेरयू है और उसी क्षेत्र के निकट स्थित एक गुफा का नाम किस्केंदा अर्थात किष्किंधा है। श्रीराम के रूसी भक्त गेन्नादी मिरवाइलोविच पिचनिकोय अपने देश में रामलीला को लोकप्रिय बनाने के लिए चर्चित रहे हैं। इसी तरह ‘रामायण’ के आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए मॉरीशस गणराज्य की नेशनल असेंबली द्वारा  वर्ष 2001 में एक अधिनियम पारित करना एक बड़ी उपलब्धि है। ट्रिनिडाड, टोबैगा तथा फिजी व सूरीनाम छोटे देशों में रामलीला की अत्यन्त समृद्ध परम्पराएं रोमांचित करती हैं।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को विश्व मंच पर लोकप्रिय बनाने में इसाई मिशनरी से ‘मानस’ मनीषी बनने वाले फादर कामिल बुल्के का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने अपने शोध प्रबंध “रामकथा: उत्पत्ति और विकास”  के द्वारा देश –दुनिया के सामने श्रीराम की ऐतिहासिकता के 300 से अधिक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। 1934-35 में बेल्जियम से भारत आए फादर कामिल बुल्के ने राम कथा की उत्त्पति और विकास पर कार्य करके ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय’ से पहले डी.फिल. तथा बाद में 1950 में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर रामायण को विश्व साहित्य की धरोहर का दर्जा दिलवाया। फादर बुल्के ने लिखा है कि वाल्मीकि के राम कल्पित पात्र नहीं, इतिहास पुरुष थे। उन्होंने अपने शोधग्रंथ के उद्धरणों ने पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत में नहीं, अंतरराष्ट्रीय कथा है जो वियतनाम से इंडोनेशिया तक फैली हुई है। इस संदर्भ में फादर बुल्के अपने इंडोनेशियाई मित्र हॉलैन्ड के डाक्टर होयकास के हवाले से लिखते हैं कि एक दिन डा० होयकास इंडोनेशिया में शाम के वक्त टहल रहे थे; तभी उन्होंने एक मौलाना को रामायण पढ़ते देखा। होयकास ने उनसे पूछा,- मौलाना आप तो मुस्लिम हैं, आप रामायण क्यों पढ़ते हैं। उत्तर मिला- और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिए! ‘ रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के ‘वाल्मीकि’ की दिग्विजय, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय कहते थे।

तुलसी के ’मानस‘ की विश्व विवेचना

श्रीराम की जीवन गाथा को जन जन तक पहुंचाने वाले गोस्वामी तुलसीदास की  ‘रामचरितमानस’ की महत्ता और प्रभाव के कारण भारतीय ही नहीं अपितु बड़ी संख्या में विदेशी विद्वान भी तुलसी साहित्य की के प्रति आकर्षित और प्रेरित हुए हैं। इटली के फ्लोरेंस विश्वविद्यालय में पी. एल. तेस्सी तोरी ने सन 1911 में तुलसीदास पर पहली पीएचडी उपाधि प्राप्त कर अनेक विद्वानों को चकित कर दिया था। दूसरा शोध कार्य लन्दन के जे. एन. कारपेंटर द्वारा 1918 में किया गया। इस शोध को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया। तुलसी के रचना संसार का अनुशीलन करने वाले पाश्चात्य चिंतकों में अमेरिका के अब्राहम जॉर्ज गियर्सन का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। गियर्सन के तुलसी प्रेम का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 1886 में आस्ट्रिया के वियना नगर में आयोजित प्राच्य विद्या-विशारदों के अधिवेशन में तुलसी के संबंध में प्रबन्ध ग्रन्थ पढ़ विद्वतसभा में मौजूद साहित्य प्रेमियों को अभिभूत कर दिया। एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल के ‘जर्नल’ में प्रकाशित गियर्सन के लेख ‘द मार्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में तुलसीदास के रचना संसार का विषद विवेचन मिलता है।1893 में ‘नोट्स ऑन तुलसीदास’ शीर्षक से उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई। इसके बाद गियर्सन ने 1912 में ‘इम्पीरियल गजट’ के लिए भी तुलसीदास पर लेख लिखा।

इसी क्रम में ‘रायल एशियाटिक सोसाइटी’ के जर्नल में गियर्सन का ‘क्या तुलसीदास कृत रामचरित मानस रामायण का अनुवाद है’ शीर्षक से लेख 1913 में प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने रामचरितमानस को अनुवाद न मानकर मौलिक ग्रन्थ सिद्ध किया। 1921 में प्रकाशित ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स’ में भी गियर्सन ने तुलसी सम्बन्धी लेख लिखा। तुलसी पर उल्लेखनीय कार्य करने वाले दूसरे महत्वपूर्ण विदेशी विद्वान हैं- फ्रांस के गार्सा दाताजी। इस फ्रांसीसी विद्वान ने तुलसीदास के रामचरित मानस के सुंदरकांड का फ्रैंच में अनुवाद किया जो फ्रांस में ही नहीं, आस-पास के कई देशों में भी खासा लोकप्रिय हुआ। इस क्रम में तीसरा महत्वपूर्ण नाम है- इंग्लैंड के विद्वान एफएस ग्राउज का। ग्राउज ने मानस के काव्य तत्व का अनुशीलन करते हुए तुलसी के रामचरित मानस व वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन किया। ग्राउज मानस के पहले विदेशी चिंतक हैं जिन्होंने रामचरित मानस का अंग्रेजी में अनुवाद किया। ‘द रामायण ऑफ तुलसीदास’ नामक शीर्षक से यह ग्रन्थ पृथक-पृथक भागों में 1871-1878 के बीच प्रकाशित हुआ। सरकारी प्रेस इलाहाबाद से इस ग्रन्थ के प्रथम भाग ‘बालकाण्ड’ का अनुवाद ‘द चाइल्डहुड’ शीर्षक से हुआ। तुलसी पर लेखनी चलाने वाले विद्वानों में सुप्रसिद्ध रूसी साहित्यकार अलेक्सेई वरान्विकोव (1890- 1952) का नाम भी आदर से लिया जाता है। अलेक्सेई ने दस वर्ष के कठिन परिश्रम के बाद डॉ. श्यामसुंदर दास द्वारा सम्पादित तुलसीकृत रामचरित मानस का रूसी भाषा में छन्दोबद्ध अनुवाद किया जिसे सोवियत संघ की साहित्य अकादमी द्वारा1948 में प्रकाशित किया गया। इनके अलावा रूसी विद्वान व संगीतकार जिवानी मिखाइलोव व नतालिया गुसोवा ने रामकथा की कथावस्तु को लेकर बच्चों के लिए रंगमंचीय संस्करण तैयार किया। अमेरिकी विद्वान मीसो केवलैंड भी मानस की कथाओं से बेहद प्रभावित थे। उन्होंने रामकथा को बाल साहित्य के रूप में रूपांतरित किया व इसका प्रकाशन ‘एडवेन्चर आफ रामा’ शीर्षक से किया।

Topics: श्रीराम की वैश्विक यात्रालोकनायक श्री रामविश्व भर में श्रीराम साक्ष्यShriram's global popularityShriram's global journeyLoknayak Shri RamShriram's evidence around the worldश्रीराम की वैश्विक लोकप्रियता
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