दशकों तक यह देश तरह-तरह के वोट बैंकों, छोटे-छोटे समूहों में होने वाले टकरावों और परिवारवाद जैसी चीजों के हवाले रहा। लंबे समय से जो ठिठकन थी, परिवारवाद था, तुष्टीकरण था, इसे तोड़ने के लिए जिस संकल्प की आवश्यकता थी, जनता ने उसकी इच्छा जताई थी और भाजपा को कमान सौंपी थी। जिसे जनता ने चुना, उसके सामने चुनौतियां भी बड़ी हैं ।
देश की राजनीति अब उस मोड़ पर है, जहां समाज को अपनी संकल्प शक्ति दिखानी होगी। क्या आवश्यक है कि हम विकास के पथ पर आगे बढ़ें, तो हमारा लोकतंत्र उसमें बाधक बने? आवश्यक है कि हम अपनी आंतरिक उदारता को अक्षुण्ण बनाने की कोशिश करें, तो वह अराजकता में बदल जाए? आवश्यक है कि हमारा लोकतंत्र सदैव हमें एक राजनीतिक-आर्थिक जड़ता और असुरक्षा के दायरे में बनाए रखे? इन प्रश्नों का उत्तर भारत की जनता को खोजना ही होगा।
भारत की राजनीति ने लंबे समय तक एकपक्षीय व्यवस्था देखी है और उससे देश की प्रगति पर, समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा है। विडंबना है कि लोकतंत्र और आंतरिक उदारता की आड़ में अराजकता, मुफ्तखोरी, अकर्मण्यता, नशाखोरी और भ्रष्टाचार आधारित ढांचा बनाने की कोशिश की जा रही है। लोगों की आंखों में धूल झोंकना और उसे लोकतंत्र के दायरे में उचित ठहराना किसी भी देश की सबसे बड़ी विडंबना होगी।
दशकों तक यह देश तरह-तरह के वोट बैंकों, छोटे-छोटे समूहों में होने वाले टकरावों और परिवारवाद जैसी चीजों के हवाले रहा। लंबे समय से जो ठिठकन थी, परिवारवाद था, तुष्टीकरण था, इसे तोड़ने के लिए जिस संकल्प की आवश्यकता थी, जनता ने उसकी इच्छा जताई थी और भाजपा को कमान सौंपी थी। जिसे जनता ने चुना, उसके सामने चुनौतियां भी बड़ी हैं । उदाहरण के लिए- चाहे सड़क हो, बिजली हो, शिक्षा हो, स्वास्थ्य हो, किसी भी क्षेत्र में बेहतरी की कल्पना भी लोगों ने छोड़ दी थी।
स्वतंत्रता के इतने समय बाद तक देश में गांवों तक बिजली नहीं पहुंची, इसे लोगों ने नियति मान लिया था और यह कमी राजनीति को भी विचलित नहीं करती थी। परंतु जब सत्ता बदली, तो आंखें खुलीं कि बहुत काम बाकी रह गया था- शौचालय, रसोई गैस और बहुत सी अन्य चीजें।
कहावत है कि गांव बसा नहीं, मांगने वाले आ गए। यही स्थिति देश की आर्थिक प्रगति और आर्थिक सुरक्षा के साथ पैदा करने की कोशिश की जा रही है। भारत ने विकास की ओर अभी कुछ ही कदम बढ़ाए हैं और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था तक पहुंचने के लिए अभी हमें कई प्रयास करने हैं और कई चुनौतियों का भी सामना करना है।
विडंबना यह कि हमारे लोकतंत्र को ही इन प्रयासों में बाधा बनाने की कोशिश हो रही है। मुफ्तखोरी की राजनीति, सरकारी पैसों का विज्ञापनों में दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के नित नए मॉडल प्रस्तुत करके रातों-रात बिना श्रम अमीर बनने के इच्छुक लोगों के मन में लोभ जगाना, उस आर्थिक विकास को ही नोचने की कोशिश है, जिसे हमें अभी और बढ़ाने की आवश्यकता है।
मुस्लिम समाज में बहस
यही स्थिति देश की सुरक्षा की भी है। हमारी उदार व्यवस्था की आड़ लेकर उसका प्रयोग विध्वंसकारी गतिविधियों में किया जाए, तो यह न केवल देश हित के विरुद्ध है, बल्कि समाज के तौर पर हमारी यह परीक्षा भी है कि क्या हम खुले समाज और सुरक्षित समाज – इन दोनों अवधारणाओं को साथ लेकर आगे बढ़ सकते हैं। जिस राजनीति ने मुस्लिम वर्ग को बिल्कुल हाशिए पर छोड़ दिया था, जिसे राजनीतिक दल अपनी सुविधा के लिए इस्तेमाल करते थे, अब उस वर्ग में तीन बड़ी बहस छिड़ती दिख रही हैं।
राजनीतिक दल इसे मुद्दा बना रहे हैं। वक्फ कानून पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस चल रही है। 1995
का वक्फ संशोधन कानून वक्फ बोर्ड को कोई भी जमीन वक्फ की घोषित करने की अनुमति देता है। वह जमीन वक्फ की नहीं है, यह साबित करने की जिम्मेदारी उस जमीन के कागजधारी स्वामी की है। इससे वक्फ बोर्ड की मनमानी बढ़ी और इसकी आड़ में भ्रष्टाचार, वसूली, मतांतरण जैसी चीजें
होने लगीं।
यह बहस केवल राजनीति में ही नहीं, बल्कि समाज में भी चल रही है। इसमें एक है हिजाब का मामला; दूसरा, मदरसों के सर्वे का मामला और तीसरा, वक्फ बोर्ड का मामला। यह देश की 14-20 प्रतिशत जनसंख्या से जुड़ा मामला है। परंतु इस जनसंख्या को सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से देखने वालों ने यह नहीं देखा कि इनके भीतर क्या सड़ांध पल रही है, क्या गड़बड़ियां उत्पन्न हो रही हैं? और देश की सुरक्षा के लिए कैसी नई चुनौती पैदा हो रही है।
अब ये तीनों बहसें शुरू होने से भारी विचलन शुरू हुआ है। इससे बेचैन राजनीतिक दल इसे मुद्दा बना रहे हैं। वक्फ कानून पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस चल रही है। 1995 का वक्फ संशोधन कानून वक्फ बोर्ड को कोई भी जमीन वक्फ की घोषित करने की अनुमति देता है। वह जमीन वक्फ की नहीं है, यह साबित करने की जिम्मेदारी उस जमीन के कागजधारी स्वामी की है। इससे वक्फ बोर्ड की मनमानी बढ़ी और इसकी आड़ में भ्रष्टाचार, वसूली, मतांतरण जैसी चीजें होने लगीं।
इसी तरह हिजाब पर भी सर्वोच्च न्यायालय में बहस चल रही है। तो दूसरी तरफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी हिजाब पहने एक बच्ची का महिमामंडन कर रहे हैं। इस तरह प्रकारान्तर से हिजाब का समर्थन करना कितना नैतिक है- यह एक प्रश्न है। मदरसों के सर्वे पर दारूल उलूम और जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने समर्थन किया है, लेकिन सपा और ओवैसी ने मुसलमानों को निशाना बनाने का आरोप लगाते हुए विरोध किया है।
बड़ा संकल्प जरूरी
इस प्रकार की कोशिशों ने हमारे लोकतंत्र, हमारी आर्थिक-सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा और हमारी आंतरिक उदारता, तीनों को न केवल बुरी तरह घायल किया है बल्कि उनका मजाक बनाकर रख दिया है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह जड़ता दशकों बाद टूटी है, जब हम छोटे मुद्दों से ऊपर उठकर आर्थिक सुरक्षा और विकास के बारे में न केवल सचेत हुए बल्कि उस दिशा में कुछ प्रयास भी कर सके हैं।
राजनीति में क्षेत्रीय दलों के उभार के तौर पर, क्षत्रपों के दिल्ली तक दखल के तौर पर कसमसाहट पहले भी हुई है। परंतु आज राजनीति में अस्तित्व बचाने के लिए रोज की जा रही नई तिकड़में सिर्फ एक बड़ी गंदगी हैं। समाज की दरारों को पाटने, गड़बड़ियों को दूर करने की राजनीति आती दिख रही है। हम जो देश का चेहरा बदलते हुए देखना चाहते हैं, वह रास्ता यहीं से जाता है। इसे किसी वर्ग के विरुद्ध दिखाना, देश के लोकतंत्र, विकास और सुरक्षा के साथ गद्दारी के अलावा कुछ नहीं है।
इस संक्रमणकारी काल में दल, संगठन, नेतृत्व और सूचना संसाधन – सबकी भूमिका है। लेकिन सबसे बड़ी भूमिका देश की जनता की है। उसे यह साबित करना होगा कि वह लोकतंत्र, आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा और उदार समाज की अवधारणाओं को एक साथ लेकर चल सकती है। उसे यह करना ही होगा।
@hiteshshankar
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