अनुराग ठाकुर
कुछ तिथियां इतनी महत्वपूर्ण बन जाती हैं कि वह आगे आने वाले समाज को न सिर्फ निरंतर प्रभावित करती रहती हैं, बल्कि आत्म अवलोकन एवं आत्म निरीक्षण करते हुए मानवता के प्रति अपने दायित्वों का भी बोध कराती हैं। 11 सितंबर उन्हीं कुछ विशिष्ट तिथियों में से एक है। 1893 में इसी दिन स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म सम्मेलन में ऐतिहासिक वक्तव्य दिया था। कभी-कभी एक भाषण राष्ट्र और समाज की तस्वीर ही बदल देता है। विवेकानंद का भाषण ऐसा ही था, जिसने भारत के बारे में मिथ्या संकल्पना को तोड़ दिया जो पश्चिम ने गढ़ रखी थी। विवेकानंद के उस भाषण से भारतीय ज्ञान को वैश्विक स्वीकार्यता तो मिली ही, उन्होंने उसे सर्वोत्तम ज्ञान परंपरा के रूप में स्थापित करने का भी प्रयास किया जिसका मुख्य आधार सहिष्णुता थी। पर आजादी के बाद छद्म पंथनिरपेक्षता के कारण न सिर्फ उनके विचारों से जनमानस को दूर किया गया, बल्कि ज्ञान को भी पश्चिम के हवाले कर दिया गया। सत्य को थोड़े समय के लिए दबाया जा सकता है, पर समाप्त नहीं किया जा सकता। प्रखर वाणी एवं ओजस्वी चिंतन के कारण ‘आध्यात्मिक क्षेत्र के नेपोलियन’ एवं ‘विश्वात्मा की अनुपम संगीत रचना’ के रूप में विख्यात विवेकानंद का अमेरिका दौरा चुनौतीपूर्ण रहा। परंतु भारतीय ज्ञान पर अटूट विश्वास ने उन्हें अंतिम सिद्धि तक पहुंचा दिया।
विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल होने के लिए विवेकानंद को औपचारिक आमंत्रण नहीं मिला था। उन्होंने बस यह सुना था कि अमेरिका में एक विश्व धर्म सम्मेलन होने जा रहा है। उनकी इच्छा उसमें शामिल होने की थी। उन्हें विश्वास था कि सही समय पर वहां उपस्थित हो जाने से सभी कार्य सिद्ध हो जाएंगे। खेतड़ी नरेश द्वारा जहाज का टिकट और काफी जिद के बाद एक अंगरखा के साथ विवेकानंद 31 मई, 1893 को मुंबई से अमेरिका के लिए रवाना हुए। श्रीलंका, जापान होते हुए वह मध्य जुलाई में शिकागो पहुंचे। जब उन्हें मालूम हुआ कि सम्मेलन के लिए पंजीकरण की अवधि समाप्त हो चुकी है तो उन्हें आघात लगा। साथ ही, सम्मेलन में भाग लेने के लिए मान्यता प्राप्त धार्मिक संस्था का परिचयपत्र भी जरूरी था। लिहाजा शिकागो से उन्होंने मद्रास के एक मान्य धार्मिक सभा से अपने लिए एक प्रमाणपत्र भेजने को कहा तो उत्तर मिला ‘शैतान को ठंड खाकर मरने दो।’ लेकिन उनकी इस समस्या का समाधान हार्वर्ड के प्रोफेसर जे.एच. राइट ने कर दिया। बोस्टन की ट्रेन में विवेकानंद की उनसे भेंट हुई थी।
11 सितंबर सम्मेलन शुरू हुआ। उसमें भारत के कई मत-पंथों के झंडाबरदार बैठे थे। इनमें ब्रह्म समाज के प्रतापचंद्र मजुमदार, ईश्वरवादियों के नागरकर, श्रीलंका के बौद्घ प्रतिनिधि धर्मपाल, जैन प्रतिनिधि गांधी, थियोसोफिकल सोसायटी के चक्रवर्ती आदि प्रमुख थे। रोमा रोलां के अनुसार विवेकानंद इन मठाधीशों के बीच उस सम्पूर्ण-भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो वैदिक ज्ञान से सम्पूर्ण विश्व को अंधरे से उजाले की ओर लाने की क्षमता रखता है। किसी भी सभा को संबोधित करने का यह उनका पहला अनुभव था। करीब 7,000 श्रोताओं से भरे कक्ष में उनसे पूर्व सभी मठाधीशों ने अपने-अपने मत-पंथ पर व्याखान दिया। सभा में मौजूद अधिकांश श्रोता लगभग शुष्क हो चुके थे। आखिरकार उन्हें मौका मिल ही गया। संबोधन की शुरुआत उन्होंने ‘अमेरिका के मेरे भाइयो और बहनो’ से की तो सभा अचानक ऊर्जावान होकर करीब 2 मिनट तक करतल ध्वनि से अभिनंदन करती रही। उसके बाद उनके भाषण ने सिर्फ सम्मेलन की दशा और दिशा बदल दी, बल्कि सम्मेलन के अगले सत्र में दर्शकों के अनुरोध पर उन्होंने लगभग बारह बार नए ज्ञान के साथ सभा को संबोधित किया। उन्होंने अपने वक्तव्य से दुनिया का ध्यान आकर्षित किया। उनकी दो बातें तो मौजूदा राजनीतिक माहौल को भी सोचने के लिए प्रेरित करती है। पहला भारतीय राष्ट्र की धार्मिक सहिष्णुता और दूसरा कन्वर्जन। विवेकानंद ने भाषण में हिन्दू धर्म एवं भारतीय समाज की धार्मिक सहिष्णुता को मुख्य आधार बनाया। उनके अनुसार यही सबसे प्रमुख गुण है जिसके कारण भारतीय सभ्यता अब तक चली आ रही है। लेकिन वर्तमान में संकुचित वैचारिक मानसिकता वाले लोगों ने समाज को असहिष्णु घोषित करने का बीड़ा उठा लिया है। इसका व्यापक एवं वैचारिक प्रत्युत्तर विवेकानंद के भाषण में मिलता है। उन्होंने कहा था- मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता का मंत्र दिया। भारत न सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास रखता है, बल्कि विश्व के सभी मत-पंथों को स्वीकार करता है। एक ऐसा देश जिसने सभी देशों और मत-पंथ के लोगों को शरण दिया। अभी तक भारत ने ही इस्रायल की स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जबकि रोमनों ने उनके पवित्र स्थलों को आक्रमण कर खंडहर बना दिया। विवेकानंद के सहिष्णुता के तर्क को उस कालखंड में विश्व ने स्वीकार किया। लेकिन हम भारत के लोग ही उसे भूल गए। यही कारण है कि आज देश के तथाकथित बुद्घिजीवी एवं राजनीतिक दल सरकार का विरोध करने के चक्कर में भारत के मौलिक मूल्यों पर प्रश्न खड़ा करते हुए समाज को असहिष्णु घोषित कर देते हैं।
सहिष्णुता हमेशा से भारतीय समाज का अभिन्न अंग रही है, जिस आधार पर यहां ज्ञान, धर्म आदि विकसित होते रहे हैं। भारत को समझने के लिए पश्चिमी ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इस देश की ज्ञान परंपरा को पुन:स्थापित करने वाले विवेकानंद जैसे विचारों से देखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए, जिससे स्वत: भारतीय समाज में सहिष्णुता दिखाई देगी।
(लेखक केंद्रीय मंत्री हैं। वर्ष 2017 में पांचजन्य में प्रकाशित लेख के प्रमुख अंश)
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