न भूलने वाला पल
हम लोग दाने-दाने के लिए मोहताज हो गए। पटरी तक लगाने की नौबत आ गई। बहुत बुरे हालात से गुजरना पड़ा। मेरे पिताजी ने पैसे उधार लेकर काम किया।
सुभाष बग्गा
सरगोधा, पाकिस्तान
मेरा जन्म सरगोधा में हुआ। उसी के निकट फुलवरा मंडी थी, जहां हमारे दादाजी और पिताजी का व्यापार था। दादाजी दुकान पर बैठते थे और पिताजी बाहर का सारा काम संभालते थे। मैं छह-सात साल का ही था तब। पिताजी बताया करते थे कि 15 अगस्त 1947 से एक दिन पहले हम लोग घर-दुकान यानी सबकुछ छोड़कर भारत जाने के लिए निकल पड़े थे। जैसे ही परिवार के साथ रेलवे स्टेशन पहुंचे तो वहां पर लाशों का ढेर पड़ा हुआ था। चारों तरफ अफरा-तफरी थी। माहौल में डर था। जिहादी हिन्दुओं के खून के प्यासे घूम रहे थे।
रेलवे स्टेशन जाते समय कुछ मुसलमानों ने परिवार पर हमला किया और हमें मारने की कोशिश की। लेकिन हम सभी की किस्मत अच्छी थी कि हम बच गए, क्योंकि उस समय कुछ हिन्दू परिवार वहां पर आ पहुंचे थे। यदि उनका सहयोग नहीं मिलता तो शायद हम लोग आज जिंदा नहीं होते। मैं तो उस समय बहुत छोटा था फिर भी एक जिहादी ने मेरे सिर पर तलवार से वार किया था लेकिन परिवार में से किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया।
हम लोग एक-एक दाने के लिए मोहताज हो गए। पटरी तक लगाने की नौबत आ गई। बहुत बुरे हालात से गुजरना पड़ा। मेरे पिताजी ने उधार मांगकर काम किया। उन्होंने दर्जी का काम शुरू किया जबकि उसके बारे में उनको कुछ नहीं पता था। किसी तरह काम सीखा। धीरे-धीरे जब पिताजी ने काम सीख लिया तो कुछ पैसे आने लगे और घर की स्थितियां बदलनी शुरू हुईं। फिर हम लोग भी पढ़-लिखकर बड़े हुए तो और सुधार आया। लेकिन 75 वर्ष बाद भी मैं इस जुल्म को नहीं भुला पाता जो जिहादियों ने पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ किया।
खैर, किसी तरीके से बचते हुए हम भारत के लिए निकले। लेकिन परिवार के लोगों को बताया गया कि दिल्ली जाना ठीक नहीं है। अगर जाना ही है तो हाथरस चले जाइए। मरता क्या ना करता। पिताजी सभी को लेकर हाथरस आ गए। लेकिन मेरे पिताजी का मन अभी भी पाकिस्तान में ही था। क्योंकि अभी परिवार के अलावा कुछ रिश्तेदार वहीं पर थे। अंतत: वह हमें हाथरस में सुरक्षित स्थान पर छोड़कर पाकिस्तान चले गये और सरगोधा से ताई जी सहित अन्य रिश्तेदारों को काफी मुसीबतों का सामना करते हुए लेकर आए। अब हम सभी हाथरस में रह रहे थे। यही कोई आठ नौ महीने हम लोग हाथरस में रहे। उसके बाद दिल्ली में दरियागंज आ गये।
जिस मकान में परवेज मुशर्रफ का जन्म हुआ, हम लोग उस मकान में रहे। यहां करीब 1954 तक हम सब रहते रहे। 1954 में हमें पता चला कि पाकिस्तान आए हिन्दुओं के लिए मालवीय नगर में कॉलोनी बनाई गई है। फिर हम लोग मालवीय नगर आ गए। शुरू-शुरू में जब हम मालवीय नगर रह रहे थे, उस समय हमें पैसे की दिक्कत नहीं थी, क्योंकि पिताजी किसी तरह पाकिस्तान से 25,000 रुपए नकद लेकर आये थे। क्योंकि दादाजी और पिताजी का बहुत बड़ा कारोबार था।
वहां पर हमें बग्गा सेठ कहा जाता था। दादाजी का रुतबा इतना था कि अगर किसी महिला के फटे कपड़े देख लेते थे, उसके अगले दिन उसके घर के सामने कपड़े का पूरी थान रखवा देते थे बिना जाहिर किए हुए। यदि किसी के पास अनाज नहीं होता तो बोरी की बोरी अनाज उनके घर पर पहुंचवाते थे। पिताजी और दादाजी ने बहुत अच्छे दिन देखे थे। लेकिन बंटवारे के बाद समय ऐसा आया कि सब कुछ उलटा हो गया।
हम लोग एक-एक दाने के लिए मोहताज हो गए। पटरी तक लगाने की नौबत आ गई। बहुत बुरे हालात से गुजरना पड़ा। मेरे पिताजी ने उधार मांगकर काम किया। उन्होंने दर्जी का काम शुरू किया जबकि उसके बारे में उनको कुछ नहीं पता था। किसी तरह काम सीखा। धीरे-धीरे जब पिताजी ने काम सीख लिया तो कुछ पैसे आने लगे और घर की स्थितियां बदलनी शुरू हुईं। फिर हम लोग भी पढ़-लिखकर बड़े हुए तो और सुधार आया। लेकिन 75 वर्ष बाद भी मैं इस जुल्म को नहीं भुला पाता जो जिहादियों ने पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ किया।
प्रस्तुति- अरुण कुमार सिंह, अश्वनी मिश्र एवं दिनेश मानसेरा
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