जगदीशराज बाली
जीराबाद, पाकिस्तान
बंटवारे के दिनों की पीड़ा मुझे आज भी दुख के गहरे सागर में डुबो देती है। आज भी मेरी आंखें भर आती हैं। हम एक साधन-संपन्न परिवार में जन्मे थे। 1947 में मैं अपनी मां के साथ मनावर में था कि अचानक एक दिन हमें फौरन वापस गांव भेज दिया गया।
लड़ाई-झगड़े शुरू हुए तो गांव के हम सब लोगों को जुकालिया शिविर में भेज दिया गया। हम दो महीने तक वहीं रहे। हमारे परिवार के सभी लोग डर के साये में एक काफिले में चलते हुए भूखे-प्यासे भारत की सीमा तक पहुंचे।
हमारे करीबी रिश्तेदार बख्शी मंगत राम ने मुसलमानों के डर से अपने परिवार की 14 लड़कियों को खुद ही जान से मार दिया, ताकि वे मुसलमानों के हाथ न लग सकें। पिताजी की एक फैक्ट्री थी। फैक्ट्री के मुसलमान नौकरों ने ही पिताजी को बंदी बना लिया। 20,000 रु. देने पर उन्होंने पिताजी को छोड़ा।
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