गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। कांग्रेस के कट्टर समर्थक अब उन पर तमाम तरह के व्यंग और आक्षेप कर रहे हैं, हालांकि इसके पहले जी 23 का गठन होने पर कपिल सिब्बल के घर पर किए गए हमले की तुलना में इन हमलों को कम से कम अभी तक उन्हें उतना गंभीर नहीं माना जा सकता है।
गौर करने लायक एक बात इन प्रतिक्रियाओं में ही है। सबका कहना है कि यह स्वार्थ है, अब तक क्या कर रहे थे, अभी ठीक समय नहीं है, नहीं ऐसा कुछ नहीं है, आदि। गौर कीजिए- कोई भी प्रतिक्रिया अप्रत्याशित नहीं है, उठाए गए विषय पर कोई उत्तर नहीं, लगभग सारी प्रतिक्रियाएं “निजी हित, स्वार्थ” आदि पर केन्द्रित हैं (क्या कांग्रेस की समझ में इससे आगे कोई राजनीतिक पक्ष हो ही नहीं सकता! ), और कांग्रेस हमेशा की तरह इनकार करने की नीति पर बनी हुई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस के ढांचे पर, कांग्रेस के नेतृत्व पर और कांग्रेस की कार्यशैली पर जो आरोप लगाए हैं, वह शब्द भले ही कितने भी निर्मम नजर क्यों ना आते हों, वास्तव में उनमें कोई भी ऐसी बात नहीं है जो देश की जनता से या कांग्रेस से छिपी रही हो।
ध्यान देने लायक बात सिर्फ इतनी है कि बहुत समय बाद कांग्रेस का कोई व्यक्ति फिर इतना साहस जुटा सका है कि इन बातों को सार्वजनिक तौर पर व्यक्त किया जाए। और कांग्रेस के लिए यह एक स्वाभाविक बात है कि अगर आप नेतृत्व पर प्रश्न उठाते हैं तो आपका कांग्रेस में साधारण सदस्य की हैसियत से भी निर्वाह नहीं हो सकता है। साहस जुटने पर कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से बाहर निकलना पड़ता है। गुलाम नबी के पत्र में व्यक्त राहुल गांधी और उनसे जुड़े मामले भी कोई खास महत्वपूर्ण नहीं हैं। राहुल गांधी कांग्रेस में पिडी संस्कृति के प्रवर्तक हैं, और अगर गुलाम नबी के पत्र में उनके निजी सचिव या सुरक्षा गार्डों के अन्य लोगों से ज्यादा महत्वपूर्ण बताया गया है, तो भी इसका अर्थ है कि गुलाम नबी की निजी स्थिति उन लोगों से तो बेहतर ही है, जिनका सामना ‘पिडी’ (राहुल गांधी का पालतू श्वान) से करवा दिया जाता था। अतीत में भी यही कांग्रेस संस्कृति रही है। नारायण दत्त तिवारी का प्रकरण तो एक किवदंती बन चुका था।
लेकिन बात और गहरी है। अतीत में एस.एस. अहलूवालिया ने भी सोनिया गांधी को इसी प्रकार का पत्र लिखा था और उसमें बहुत सारी बातें लिखी थीं। इतना ही नहीं, उन्होंने पत्र को इटालियन में अनुवादित करवा कर कांग्रेस अध्यक्ष भेजा था, शायद यह जताने के लिए कि हो सकता है कि कांग्रेस अध्यक्षा हिंदी-अंग्रेजी ठीक से ना समझती हों, या वह इटालियन ज्यादा अच्छी तरह समझती हों। कांग्रेस छोड़ने वालों का संकट पार्टी के अंदर चल रही “मनोनीत कोटरी” है, और उसका केन्द्र 10 जनपथ है, न कि 24 अकबर रोड। हालांकि इन बातों से कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ता है।
गुलाम नबी आजाद के लिखे पत्र या त्यागपत्र का कांग्रेस पर क्या प्रभाव होगा, यह कहना मुश्किल है। कांग्रेस लंबे समय से पूरी तरह मनोनीत नेताओं के बूते चल रही है और पार्टी में किसी सांगठनिक चुनाव का कोई स्वांग भी नहीं किया जाता है। गुलाम नबी आजाद ने यह बात लिखित तौर पर और सार्वजनिक रूप से पेश की है और इस नाते इस तथ्य का चुनाव आयोग को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए। कांग्रेस में चाटुकारिता का जैसा माहौल बना हुआ है, उसमें किसी एक व्यक्ति के कुछ कहने अथवा लिखने से कोई खास फर्क पड़ने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। लेकिन अगर एक राजनीतिक दल का और देश की सरकार का संचालन इस तरह से पूरी तरह गैर लोकतांत्रिक ढंग से और रिमोट कंट्रोल से होता है, तो यह देश के लिए गंभीर विषय है। लिहाजा चुनाव आयोग को इसका संज्ञान लेना चाहिए और कांग्रेस को एक राजनीतिक दल के तौर पर मिली मान्यता को समाप्त करने पर विचार करना चाहिए।
गुलाम नबी आजाद अपने साहस संकलन की चरम अवस्था में भी जिस एक और खास पहलू का का मात्र संकेत दे सके हैं, वह बहुत महत्वपूर्ण है। आजाद ने कपिल सिब्बल का परिचय यह दिया है कि यह वही हैं, जो तमाम “ओमिशन एंड कमीशन” में आपकी पक्षधरिता कर रहे थे। गौर से देखें, सारी समस्या की एक मोटी जड़ यह तमाम “ओमिशन एंड कमीशन” हैं। दूसरी जड़ चाटुकारिता की वह संस्कृति है, जो “ओमिशन एंड कमीशन” संस्कृति का अनिवार्य अंग है। तीसरी जड़ गहराई तक बसी अलोकतांत्रिक संस्कृति है, जो परिवार का वर्चस्व बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। परिवार का वर्चस्व “ओमिशन एंड कमीशन” संस्कृति की आवश्यकता भी है और उसका परिणाम भी। चौथी जड़ व्यक्तियों में है, जो जाहिर तौर पर सुधारातीत है।
यशपाल की कहानी के खान की तरह गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस के दरवाजे से सिर्फ पर्दा खींचा है। यशपाल की कहानी यहां समाप्त हो जाती है। लेकिन कांग्रेस अपनी कहानी बिना पर्दे के भी जारी रखना चाहती है। देश को क्या जरूरत है ऐसी बेपर्दा और सुधारातीत कांग्रेस की?
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