क्या एक पीर या एक व्यक्ति की मजार, दरगाह सात-आठ स्थानों पर हो सकती है? ये सवाल उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में कालू सैय्यद बाबा की मजारों को लेकर है। कालू सैय्यद को पीर बाबा के नाम से यहां जाना जाता है।
कालू सैय्यद बाबा कौन है?
इतिहास में जाकर देखें तो मालूम हुआ कि कालू सैय्यद बाबा का जन्म तुर्किस्तान बताया गया, यानी वो तुर्क थे। कहा जाता है कि उन्होंने हजरत निजामुद्दीन औलिया से अध्यात्मिक ज्ञान लिया था और फिर वो कुमाऊं की तरफ चले आए। कहा जाता है कि उस समय दिल्ली में गयासुद्दीन तुगलक का राज था। कुछ लोग ये भी बताते हैं कि 1398 ई में तैमूर लंग की सेना और राजाधाम देव के बीच पिरान कलियर के पास युद्ध हुआ, जिसमें पीर फकीर भी लड़े और उनमें मैमदापीर मारे गए और कालू सैय्यद भी थे वे पराजित हुए और फिर यहां बस गए। अब कहां बसे इस बारे में इतिहासकार खामोश हो जाते हैं। माना यही जाता है कि ये कहानियां हैं जो सुनी सुनाई जाती रही हैं।
इन्ही सब जानकारियों के बीच इस सवाल का जवाब कहीं नहीं मिलता कि एक पीर की इतनी दरगाहें कैसे बन गईं। भारत में पुरानी दरगाहों में ख्वाजा गरीब नवाज की अजमेर में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दिल्ली में एक ही दरगाह या मजार है। साई बाबा की शिरडी में एक ही दरगाह या मजार है, तो फिर कालू सैय्यद की उत्तराखंड में आठ मजारें कैसे हो सकती हैं? कालू सैय्यद बाबा की अल्मोड़ा, हल्द्वानी, जसपुर, लोहाघाट, जसपुर के पतरामपुर जंगल में, भीमताल, बसामी, कालाढूंगी, रानीखेत में मजारें हैं। एक मजार तो जिम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के भीतर मोरघट्टी, सोनापानी फॉरेस्ट रेंज में बना दी गई है।
अल्मोड़ा के स्थानीय मजार प्रबंधक दावा करते हैं कि यही कालू सैय्यद बाबा की असली मजार है और पीर साहब के घोड़े की भी यहीं कब्र है। दिलचस्प बात ये है कि लोग घोड़े के कब्र पर भी आस्था प्रकट करने जाते हैं। हल्द्वानी के कालाढूंगी चौराहे पर कालू सैय्यद बाबा की पीपल के पेड़ के नीचे मजार है, जो अब मंदिर का रूप ले चुकी है और यहां उन्हे कालू सिद्ध बाबा के नाम से जाना जाता है। पहले यहां गुड़ और बीड़ी चढ़ाने की परंपरा थी अब सिर्फ यहां गुड़ ही चढ़ाया जाता है। अब यहां कालू से नाम बदल कर साई सिद्ध बाबा भी बोला जाने लगा है।
गौरतलब है कि यहां जो मजार है वहां अब मुस्लिम तबके का प्रबंधन नहीं है। हिंदू अखाड़े के साधु यहां देखरेख करते हैं और ये पूरा परिसर हिंदू देवी देवताओं की आस्था का केंद्र बना हुआ है। यहां अब शनि का मंदिर भी है, जहां हर शनिवार सैकड़ों लोग आस्था के लिए आते हैं। रानीखेत के कैंट एरिया में भी मजार है और हर साल यहां उर्स होता है कव्वालियां होती हैं। कोई कहता है कि सातवीं सदी की मजारे हैं, कोई कहता है कि वो तेरहवीं सदी में भारत आए। माना कि कालू सैय्यद बाबा एक पीर फकीर थे, हो सकता है उनमें आध्यात्मिक ज्ञान शक्तियां हों, उनके चमत्कार भी हों, लेकिन एक पीर की सात- आठ जगह मजारें या दरगाहें होने की बात गले नहीं उतरती।
उत्तराखंड में मजार जिहाद का खेल पिछले कई दशकों से चल रहा है। तो क्या जिहादियों ने कालू सैय्यद बाबा के नाम का भी फायदा उठा कर अपने ठिकाने बना लिए? उत्तराखंड को सदियों से देव भूमि कहा गया है, जहां पहाड़ की हर चोटी पर देवालय और हर ग्राम का अपना देवता होता है। ये बात सोचने पर विवश करती है कि इन आस्थाओं के बीच एक तुर्किस्तान में पैदा होने वाले व्यक्ति के नाम से यहां एक दो नहीं कई मजारें कैसे बन जाती हैं? देवबंद से जारी फतवे में ये कहा जाता है कि मजारे नहीं बनाई जानी चाहिए, न ही इनमें इबादत की जानी चाहिए। बरेलवी मुस्लिम मजारें बनवा रहे हैं और इनमें अपने लोग बैठा देते हैं, फिर अपना एक नेक्सेस चलाते है जिसकी चपेट में उत्तराखंड की देव भूमि भी है। जहां वन क्षेत्र में सैकड़ों अवैध मजारें चिन्हित की गई हैं। इनमें से बहुत को पिछले दिनों हटाया भी गया था। बहरहाल हमारा सवाल यही है कि एक पीर के नाम की कई जगह मजार या दरगाह हो सकती है ? कहीं मजार जिहाद का ये कोई हिस्सा तो नहीं? इस पर गौर करने की जरूरत है।
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