बलदेव कपूर
रावलपिंडी, पाकिस्तान
हम रावलपिंडी में रहते थे। हमारे यहां के लोग गर्मियों में आमतौर पर कुमौली चले जाते थे। 1947 में रावलपिंडी का एक व्यक्ति नैनीताल गया। वहां से चिट्ठी लिखता कि यह बड़ा ही रमणीय स्थान है। चिट्ठी पढ़कर मेरे परिवार के कई लोग नैनीताल आ गए। मैं ही अकेला बचा। ननिहाल में नानी और मामा थे।
गड़बड़ी गर्मियों के दौरान शुरू हुई। मुसलमान गुंडे हिंदुओं को मार रहे थे, उनके घरों में आग लगा रहे थे, बलात्कार कर रहे थे। हमारी कई माताओं और बहनों ने इज्जत बचाने के लिए कुंओं में छलांग लगाकर जान दे दी। हमारे इलाके के पास नाला लाई था। उसके पार आबादी मुसलमान थी।
हम लोग अपने मुहल्ले में रात-रात भर पहरेदारी करते। इस तरह हमने बलवाइयों को मुहल्ले में घुसने नहीं दिया। लेकिन हालात बदतर होते चले गए। मुझे मकान छोड़कर ननिहाल जाना पड़ा। अगले दिन लौटा तो घर पर उनका कब्जा हो चुका था। मैं मां के चाचाजी के यहां नया भल्ला चला गया। कुछ दिन वहां रहा।
मैं बिस्तरबंद कंधे पर लिए जा रहा था। एक गार्ड ने बिस्तरबंद में सींक गड़ाया और पूछा, ‘‘काफिर! कहां जाता है।’’ किसी तरह बचते-बचाते हम शिविर पहुंचे। मेरी नानी, उनके चाचा, छोटे मामा साथ
खबर मिली कि सीमा पर गाड़ी लगी है। वहां पहुंचे तो ‘अल्लाह हू अकबर’ सुनकर मन घबराने लगा। एक महीने की अफरा-तफरी के बाद एक्सप्रेस ट्रेन लगाई गई तो रास्ते में मुसलमान इंजन काट ले गए। अगस्त के बाद हम विपत्तियां सहते हिंदुस्थान पहुंचे।
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