मोहन लाल कालरा
डेरा इस्माइल खान, पाकिस्तान
भारत विभाजन के समय मैं 13 साल का था। डेरा इस्माइल खान में जन्मा और वहीं पढ़ाई कर रहा था। पिताजी कारोबार करते थे। लोगों को उम्मीद थी कि शायद विभाजन टल जाए, लेकिन कुछ महीने बाद माहौल हिंदू और मुसलमानों में दूरियां बढ़ने लगीं। हालात ऐसे बने कि 1947 में 13 और 14 अगस्त के आसपास शहर में आगजनी शुरू हो गई।
14 अगस्त को पूरे शहर में हिंदुओं को निशाना बनाया गया। मुसलमानों की भीड़ लूटपाट करती और हिंदुओं के घरों व दुकानों में आग लगा देती। हिंदू जान बचाने के लिए इधर-उधर भागते। वहां से निकलने के लिए रेल के अलावा और कोई साधन नहीं था। रेलगाड़ी भी नियमित नहीं थी। रेलवे स्टेशन पहुंचना बड़ी चुनौती थी। इसलिए करीब महीने भर हम वहीं फंसे रहे। सितंबर 1947 के मध्य में परिवार के लोग तांगे से निकले। घर से रेलवे स्टेशन करीब 14 किलोमीटर दूर था।
वहां पहुंचने के लिए एक दरिया पार करना पड़ता। फिर भी आग की लपटों के बीच हम लोग आगे बढ़ते रहे। स्टीमर से नदी को पार किया और रेलवे स्टेशन पहुंचे। करीब 25 लोगों का जत्था था। हम सब रेलगाड़ी में बैठे और लायलपुर मौसी के पास पहुंचे। एक-दो दिन ही हुए थे कि एक रात मुसलमानों ने मौसी के घर पर हमला कर दिया।
हम लोग जान बचाने में सफल रहे, पर घर पूरी तरह नष्ट हो गया। हम शिविर में चले गए। वहां कई दिनों तक रहे। यहां खाना तक नहीं मिल रहा था। लोगों को क्रम से भारत भेजा जा रहा था। मेरे एक रिश्तेदार को हवाई जहाज का टिकट मिल रहा था। मैं उनके साथ दिल्ली आ गया, लेकिन परिवार के अन्य लोग लायलपुर शिविर में ही रह गए। बाद में वे लोग माल गाड़ी से भारत आए।
टिप्पणियाँ