आज भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम का उल्लेख होता है, तो इसकी तहों में उतरते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस बात से अंतर नहीं पड़ता कि कितनी पीढ़ियां गुजरीं, अंतर इससे पड़ता है कि जिसे हम स्वतंत्रता कहते हैं और 1947 से जिसकी गिनती करते हैं, वह वास्तव में ‘स्व’ की लड़ाई थी और जितनी दिखती है उससे कहीं ज्यादा पुरानी थी।
इतिहासकार और राजनीतिक व्याख्या के लिए प्रतिबद्ध रहे लोगों, भारतीय अस्मिता से षड्यंत्र करने वालों ने 1855 से 1857 की जिस घटना को सिर्फ विद्रोह कहा, वह स्वतंत्रता का पहला व्यापक युद्ध है। उसमें समाज के बड़े भाग का सहभाग है। टाइम्स के बुलावे पर आए विलियम हार्वर्ड रसेल की पुस्तक ‘माई डायरी इन इंडिया’ के विषय में ध्यान देने वाली बात है कि पुस्तक का शीर्षक 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन को विद्रोह नहीं बताता।
बाद में मिशेल एडवर्ड ने पुस्तक का शीर्षक बदल कर ‘माई इंडियन म्यूटिनी डायरी’ कर दिया। रसेल को समझ आ गया था कि 1857 का संघर्ष विद्रोह नहीं है, राष्ट्रव्यापी आंदोलन है। 2 फरवरी, 1858 को उसकी स्वीकारोक्ति है कि अगर हमें इससे निबटना है तो उस राष्ट्रीय एकता से निबटना पड़ेगा जो 1857 में स्थापित हो गई है।
एक 1526 से पहले की स्थिति है। बाद में 1757 में यूरोपीय शक्तियां आती हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी की शोषणकारी प्रवृत्ति कैसी थी, इस पर बहुत सारे शोध हुए हैं। किन्तु 1857 में सारे समाज को झकझोरने, बहुमत की एकता स्थापित होने के कारणों पर पर्याप्त शोध नहीं हुआ। यह बात अकादमिक अध्ययनों का विषय ही नहीं बनी कि व्यापक विनाश के अध्यायों के पीछे पहले इस्लाम और फिर चर्च रहा जिनके कारण समाज की अस्मिता को गहरा धक्का लगा था और इस साझा अपमान ने भारतीय समाज को विविधताएं होते हुए भी संघर्ष के समय एक साथ ला खड़ा किया।
गहरे और पुराने घाव-चोटें ज्यादा टीसती हैं। स्वतंत्रता के लिए भारतीय समाज के लोमहर्षक बलिदान बताते हैं कि आक्रमणों-आघातों से उपजी छटपटाहट बहुत गहरी थी।
पहले आक्रांताओं के विरुद्ध और फिर औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध। ये एक ऐसा लंबा दुर्धर्ष संघर्ष था जिसमें दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता अपनी अस्मिता पर, अपनी पहचान पर हुए हमले के विरुद्ध उठ खड़ी हुई थी। गुरुनानक जी द्वारा आक्रांताओं की आहट भांपना। सिख गुरुओं का शौर्य और बलिदान।
भक्ति आंदोलन का युग -अष्टछाप की अलख और किसानों का रौद्र रूप। संत-संन्यासी, किसान-जवान, जनजातीय समाज, महिला, बच्चे, बूढ़े .. समाज के सभी वर्ग, जातियाँ कई सामजिक चेतना और सुधार आंदोलन (ब्रह्म समाज, आर्य समाज, सत्यशोधक समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी, प्रार्थना समाज, हिन्दू मेला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इत्यादि) इसमें आहुतियां देते हैं। माँ भारती के लिए लाखों सपूतों का जीवन होम हो जाता है।
स्वराज – यह शब्द नहीं है, स्वतंत्रता – यह शब्द नहीं है।
स्वराज और स्वतंत्रता में गूंजता ‘स्व’ भारतीय संस्कृति के अंतस में पड़ा बीज है। सदियों के सांस्कृतिक संघर्ष को समेटने के लिए यह आयोजन एक गवाक्ष है आपको यह झरोखा कैसा लगा… बताइयेगा!
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