संतराम
गांव – 419, झंग, पाकिस्तान
उन दिनों मैं कक्षा छह में पढ़ता था और 13 साल का था। हमारे गांव का नाम था-419। आसपास में 418, 420 और 421 के नाम से गांव थे। उन दिनों उस इलाके में गांवों को ऐसे ही जाना जाता था। हमारा गांव जिला मुख्यालय झंग से करीब 5 किलोमीटर दूर था। गांव में केवल आठ हिंदू परिवार थे, बाकी मुसलमान।
पिताजी किराने की दुकान चलाते थे। 400 गज में घर था और परिवार सुखी-संपन्न। मैं अकेला भाई और चार बहनें थीं। सब कुछ ठीक चल रहा था। दिक्कत तब होने लगी जब तय हो गया कि भारत को बांटकर मुसलमानों के लिए पाकिस्तान के नाम से एक अलग मुल्क बनेगा। इसके बाद गांव में ऐसा माहौल बना कि हिंदू परिवार घर में कैद हो गए। पड़ोस के मुसलमानों ने ही हमें लूट लिया। एक पैसा नहीं छोड़ा। जो पहन रखा था, उसी में सभी हिंदू परिवार गांव से निकल गए।
दादी बूढ़ी थीं। उनसे चला नहीं जा रहा था। पिताजी उन्हें कंधे पर लेकर चल रहे थे। जान बचाते हुए हम लाहौर स्टेशन पहुंचे। इस हालत से दादी बहुत दु:खी हुईं। इस दु:ख को वे झेल नहीं पाईं और लाहौर स्टेशन पर ही उनकी मौत हो गई। हम लोग उन्हें एक कफन तक नहीं दे पाए। स्टेशन पर गोरखा हिंदू सैनिक तैनात थे।
दादी की लाश को देखकर सैनिक कहने लगे कि इन्हें दफना दो, लेकिन पिताजी ने कहा कि हमारे समाज में दफनाया नहीं जाता। फिर सैनिकों ने ही रेलगाड़ी की कुछ सीढ़ियां दे दीं। उससे स्टेशन पर ही दादी का अंतिम संस्कार किया गया। इसका कुछ मुसलमानों ने विरोध भी किया, पर सैनिकों के सामने उनकी एक न चली। जब तक लाश पूरी तरह जली नहीं, हम वहीं बैठे रहे। अंत में अस्थियां चुन कर अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ी। ल्ल
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