राजकुमारी
सरगोधा, पाकिस्तान
वह बहुत ही भयावह दौर था। लोग अपने घरों में बंद हो गए थे। 1947 में मैं पांचवीं में पढ़ रही थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन हमारे घर मेरे मामाजी आए और कहने लगे कि हालात ठीक नहीं हैं। यहां से चलो और वे हम लोगों को अपने घर ले गए। कुछ दिन वहीं रहे। माहौल ठीक होने के बाद वापस आए, लेकिन 10 दिन के अंदर ही स्थिति ऐसी बनी कि हम लोगों को सरगोधा में ही बने एक शिविर में ले जाया गया। इसके बाद हम लोग कभी अपने घर नहीं लौट सके।
शिविर में बहुत ही बुरा हाल था। लोग डर के मारे सोते तक नहीं थे। इसी बीच एक दिन वहां के लोगों ने कहा कि कोई सब्जी मत खाना, क्योंकि उसमें जहर का टीका लगाया गया है। बताया गया कि कुछ मुसलमान शिविर पर हमला करने आए थे। इसमें वे सफल नहीं हुए तो उन्होंने सब्जियों में जहर का टीका लगवा दिया और उसे शिविर में भेज दिया। यह तो अच्छा हुआ कि इसकी जानकारी हिंदुओं को हो गई और हम लोग बच गए। डर के माहौल में शिविर में कुछ दिनों तक रहे। फिर एक दिन कहा गया कि आज हिंदुस्थान के लिए गाड़ी चलने वाली है, सभी लोग फटाफट यहां से निकलें।
लोग निकलकर स्टेशन पहुंचे। कुछ देर बाद गाड़ी भी चल पड़ी, लेकिन लाहौर में हमारी गाड़ी कई घंटे तक खड़ी रही। इसी बीच जोर-जोर से हल्ला हुआ कि सभी लोगों को मार दो। डर के मारे हम लोगों ने खिड़कियां भी बंद कर लीं। खैर हमारी गाड़ी चली और अटारी पहुंची। वहां कुछ दिनों तक तंबू में रहे। फिर अंबाला आ गए।
यहां पिताजी ने मजदूरी करके हम लोगों को पाला। कुछ समय बाद दिल्ली आ गए। पिताजी की स्थिति देखी नहीं जाती थी। पाकिस्तान में पिताजी ईंटों का भट्ठा चलाते थे। मेरी माताजी सोने के गहने पहना करती थीं। लेकिन बंटवारे से पूरा परिवार हर चीज का मोहताज हो गया। ऐसा और किसी के साथ न हो।
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