त्रिलोक चंद्र अरोड़ा
अलुदे अली, मुजफ्फरगढ़, पाकिस्तान
भारत विभाजन की खबर फैलते ही पाकिस्तान के हिस्से में खून की नदियां बहने लगीं। हिंदुओं को खोज-खोज कर मारा जाने लगा। हमारा परिवार सौभाग्यशाली था कि भारी मार-काट के बीच भी बच गया। उस समय मेरी उम्र केवल पांच साल थी। तब गांव में हमले होने लगे। जो भी हिंदू मिलता था, उसे मार दिया जाता था। जान बचाने के लिए दो ही रास्ते थे-मुसलमान बन जाना या पलायन करना। हमारे बड़ों ने पलायन स्वीकार किया।
विभाजन ने हमें दाने-दाने के लिए तरसा दिया। हम महीनों सड़क के किनारे या तंबू में रहे। हमारे परिवार के लोग गांव के अन्य लोगों के साथ निकल पड़े और पैदल ही रूना अली पहुंचे। यहां रेलगाड़ी में बैठे और मुजफ्फरगढ़ आए। रास्ते में भयंकर मारकाट हो रही थी। शव ही शव दिख रहे थे। महिलाओं के साथ बहुत ही बुरा हो रहा था। मुजफ्फरगढ़ से हम लोग तीन दिन में करनाल पहुंचे। ये तीन दिन कैसे कटे, उसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता। खाने-पीने के लिए कुछ नहीं था।
करनाल में स्वयंसेवकों ने खाना खिलाया। बाद में मेरे पिताजी तांगा चलाने लगे। कुछ दिनों तक मजदूरी की। इसी बीच करनाल के पास एक गांव में बदले में कुछ जमीन भी मिली, लेकिन उससे गुजारा नहीं हो पा रहा था।
अंत में जमीन बेचकर हम लोग महरौली (दिल्ली) आ गए और कपड़े का काम करने लगे। अब मेरा पूरा परिवार यहीं रहता है। गांव में हवेली थी, जमींदारी थी और आज 100 गज जमीन में रहने को विवश हैं और छोटे-मोटे काम कर गुजारा कर रहे हैं।
अभी भी गांव की याद आती है, पर वहां जाने का मन नहीं करता।
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