फकीर चंद भाटिया
गांव सदा, सरगोधा, पाकिस्तान
पाकिस्तान बनने की भनक लगते ही हमारा सारा परिवार बिखर गया। परिवार में हम दो भाई, दो बहनें और पिताजी थे। माताजी का निधन हो गया था। मैं भाई-बहनों में सबसे बड़ा और केवल 10 साल का था। हम सबका पालन-पोषण बुआ करती थीं। दो मंजिला घर था और उसके नीचे पिताजी परचून की दुकान चलाते थे।
जब हमें पता चला कि अब हमें यहां से सब कुछ छोड़कर जाना है तो बहुत दुख हुआ। वह दुख तब और बढ़ गया जब साथ रहने वाले मुसलमान ही हमारे साथ मार-पीट करने लगे। उन्होंने हमारी नौजवान बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार किया। इज्जत बचाने के लिए हमारे गांव की कई लड़कियों ने कुएं में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी।
जब कोई लड़की कुंए में कूदती, तो हम सिर्फ रोते-चिल्लाते रह जाते। जून,1947 में हम लोगों को जबरन घर से निकाला गया और उन पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया। हम लोग रोते हुए गांव से निकल गए। उस समय हमारी जवान लड़कियों को उन्होंने अपने पास रख लिया। हम लोग पैदल ही सरगोधा पहुंचे।
वहां डॉ. लहना सिंह थे, उनकी मदद से हम लोग एक मालगाड़ी में बैठ गए। उसी समय स्टेशन पर बड़ी संख्या में मुसलमान गाड़ी के आगे खड़े हो गए। पर सैनिकों ने आकर गाड़ी चलवाई। रास्ते में जगह-जगह लाशें पड़ी हुई थीं। इसी दर्द के साथ हम लाहौर पहुंचे। वहां से हम लोग अटारी पहुंचे। प्लेटफार्म पर संघ के स्वयंसेवकों ने हमें भुने हुए चने दिए। ये स्वयंसेवक हमें अमृतसर ले गए जहां दो महीने रहे। फिर अंबाला आ गए। कुछ समय बाद दिल्ली आए और एक झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। मेरी पढ़ाई चलती रही और जीतोड़ मेहनत के बाद फिर से जीवन पटरी पर आया।
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