उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले की फरमानी नाज इन दिनों कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। एक तरफ उलेमा उनके विरुद्ध फतवे जारी कर रहे हैं तो दूसरी तरफ फरमानी और उनके भाई को जान से मारने की धमकी दी जा रही है। देवबंद के मुफ्ती असद कासमी का कहना है कि इस्लाम में नाच-गाना जायज नहीं है।
‘हर हर शंभू’ गाकर चर्चा में आई उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले की फरमानी नाज इन दिनों कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। एक तरफ उलेमा उनके विरुद्ध फतवे जारी कर रहे हैं तो दूसरी तरफ फरमानी और उनके भाई को जान से मारने की धमकी दी जा रही है। देवबंद के मुफ्ती असद कासमी का कहना है कि इस्लाम में नाच-गाना जायज नहीं है। मुसलमान होते हुए अगर कोई गाना गाता है तो यह माफी लायक नहीं है। महिला ने गाना गाया है, जो शरीयत के खिलाफ है। महिला को इससे तौबा करनी चाहिए।
वहीं, फतवा आनलाइन के अध्यक्ष मौलाना मुफ्ती अरशद फारुकी ने फरमानी नाज का नाम लिए बिना कहा कि किसी दूसरे धर्म की पहचान वाले कामों से मुसलमानों को परहेज करना चाहिए, क्योंकि इस्लाम में इस तरह के क्रियाकलापों की सख्त मनाही है। इस पर फरमानी नाज ने दो टूक शब्दों में कहा कि आज जो विरोध कर रहे हैं, ये लोग उस समय कहां थे, जब मेरे पति ने तलाक दिए बिना दूसरा निकाह कर लिया था? मैं जिन तकलीफों से गुजरी हूं, उसका अंदाजा इन उलेमाओं को नहीं है। मेरा पति मेरे साथ बैठकर दूसरी लड़की से बात करता था। रोकने पर मुझे मारता था, तब इन उलेमाओं को इस्लाम की याद क्यों नहीं आई। मैं अपने बच्चे का पेट पालने के लिए गाती हूं। उन्होंने बाकायदा वीडियो जारी कर कहा कि आने वाले समय में वे भजन गाती रहेंगी। कहा जा रहा है कि उनका नया भजन श्रीकृष्ण पर होगा, जिसे वह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर जारी करेंगी।
यह पहला अवसर नहीं है, जब उलेमाओं या देवबंद ने फतवा जारी किया है। दारुल उलूम देवबंद तो जैसे फतवे की फैक्ट्री बन चुका है। देवबंद अब तक एक लाख से अधिक फतवे जारी कर चुका है। यही नहीं, देवबंद ने फतवे के लिए वर्ष 2005 आॅनलाइन विभाग भी बना दिया। दारूल उलूम की वेबसाइट पर उर्दू में करीब 35 हजार और अंग्रेजी में करीब 9 हजार फतवे अपलोड हैं। दरअसल, मजहब या शरीयत कानून का हवाला देकर जारी किए जाने वाले फतवे देश के नागरिकों को आपस में बांटते हैं। कुछ फतवे तो ऐसे हैं जो सभ्य समाज को शर्मिंदा करते हैं।
शरिया अदालतों को कानूनी मान्यता नहीं
6 जून, 2005 को मुजफ्फरनगर की 28 वर्षीया इमराना के साथ उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया था। स्थानीय शरिया अदालत ने फरमान सुनाया कि इमराना का पति अब उसके लिए बेटे जैसा है। लिहाजा, दोनों का निकाह स्वत: ही निरस्त माना जाएगा। उस समय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड फतवा जारी करने वालों के साथ खड़ा रहा। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी इसे मजहबी मामला करार देते हुए फतवे का समर्थन किया, जबकि सेकुलर नेताओं ने भी मौन समर्थन दिया। मामले को आधार बनाकर दिल्ली के एक वकील ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल कर शरिया अदालतों पर रोक लगाने की मांग की थी। उस समय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और दारुल उलूम देवबंद ने कहा था कि शरिया अदालतें आपसी झगड़ों का निपटारा कर मुकदमे का बोझ कम करती हैं। साथ ही, फतवों को सलाह मात्र बताया था। शरिया अदालतों की कानूनी स्थिति का मूल्यांकन करने के बाद शीर्ष अदालत ने इस पर प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया। यह भी कहा था कि ‘इन अदालतों को कोई कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है।’
सवाल है कि क्या अदालत में फतवों को ‘सलाह मात्र’ कहने वालों ने इस कथित सलाह के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन किया? क्या वे ऐसा कोई मूल्यांकन करना चाहते भी हैं? किसी शाहबानों को वृद्धावस्था में भूखों मरने के लिए मजबूर करने का पाप कैसे कर दिया जाता है? जब सभी लड़कियां भारत की बेटियां हैं तो किसी नाबालिग लड़की का निकाह बाल विवाह कानून के दायरे के बाहर कैसे रखा जा सकता है? क्या यह उन लड़कियों के मानवाधिकार का हनन नहीं है? क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि एक तरफ गैर मुस्लिम व्यक्ति को तलाक के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है और अदालत तलाक पाने वाली महिला को गुजारा भत्ता भी दिलवाती है। वहीं, मुस्लिम पुरुष तलाक, तलाक, तलाक कह कर जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता है। केंद्र सरकार ने इस पर रोक लगाने के लिए कानून भी बना दिया है, लेकिन इस पर अभी पूरी तरह रोक नहीं लग पाई है।
कैसे-कैसे फतवे
- 2019 में एक पाकिस्तानी ने दारूल उलूम की वेबसाइट पर पूछा कि कोई आगे बढ़कर ईद की बधाई दे तो क्या उससे गले मिलना ठीक रहेगा? इस पर फतवा जारी कर देवबंद ने कहा कि ईद के मौके पर एक-दूसरे से गले मिलना इस्लाम की नजर में अच्छा नहीं है।
- एमआईएम के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा था कि चाहे गर्दन पर कोई चाकू रख दे, ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलूंगा। इस पर जब लोगों ने देवबंद से पूछा कि जिस तरह मुसलमान ‘वंदे मातरम्’ परहेज करता है, क्या ‘भारत माता की जय’ बोलने से भी बचना चाहिए? इस पर दारुल उलूम की बैठक बुलाई गई। बैठक के बाद मौलानाओं फतवा जारी कर कहा कि मुसलमान अल्लाह के सिवा किसी की इबादत नहीं कर सकता। ‘भारत माता की जय’ बोलने का मतलब है पूजा करना। मुसलमानों को इससे बचना चाहिए।ल्ल 2018 में एक फतवे में दारुल उलूम ने कहा कि जब कोई महिला घर से बाहर निकलती है तो शैतान उसे घूरता है। इसलिए मुस्लिम महिलाएं बिना जरूरत घर से न निकलें। बहुत जरूरी हो तो ढीले वस्त्र पहन कर ही घर से निकलें।
- देवबंद ने 2018 में सऊदी अरब में जारी एक फतवे का समर्थन किया था। इसमें मुस्लिम महिलाओं के फुटबॉल मैच देखने पर पाबंदी लगाते हुए कहा गया था कि फुटबॉल खिलाड़ी हाफ पैंट पहनकर खेलते हैं। मुस्लिम महिलाओं की निगाह उनके घुटनों पर पड़ती है। गैर मर्द के घुटने देखना इस्लाम में गुनाह है।
- दारूल उलूम मुस्लिम महिलाओं को गैर मर्द से चूड़ी पहनने और मेहंदी लगवाने को इस्लाम के खिलाफ और शरीयत कानून में अस्वीकार्य बता चुका है।
- बैंक से ब्याज लेने या जीवन बीमा कराने को शरीयत के खिलाफ बताते हुए एक फत्तवे में कहा गया कि जीवन बीमा कराना अल्लाह को चुनौती देने जैसा है।
- एक फतवे के अुनसार, सीसीटीवी इस्लाम के विरुद्ध है, क्योंकि इसमें फोटो खींची जाती है। इस्लाम में फोटो खींचना हराम है।
- मुस्लिम विरोधी किताब लिखने पर सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन के खिलाफ फतवा जारी हुआ।
- 15 मार्च, 2015 को पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में फतवा जारी होने के बाद महिलाओं की राष्ट्रीय प्रतियोगिता का मैच रद्द कर दिया गया।
- फरवरी 2013 में कश्मीरी लड़कियों के म्यूजिक बैंड के खिलाफ फतवा जारी किया गया।
- दाढ़ी का मजाक उड़ाना हराम घोषित किया गया। मजाक उड़ाने वाला मजहब से खारिज और उसका और उसकी बीवियों का निकाह अमान्य।
- जनवरी 2015 में इंडोनेशिया में मोबाइल सेल्फी के खिलाफ फतवा जारी हुआ।
- सऊदी अरब के शाही दरबार के एक सलाहकार और न्याय मंत्रालय के परामर्शदाता शेख अल हुसैन आवैखान ने यह कहकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया कि मर्दों के साथ काम करने वाली महिलाएं पुरुष सहकर्मियों को अपना दूध पिलाएं ताकि पुरुष उनके बेटे के समान हो जाएं। इससे दूध पिलाने वाली महिला के साथ पुरुष सहकर्मी का निकाह नहीं होगा और दुराचार की आशंका भी नहीं रहेगी।
…पर नहीं बदले मुस्लिम कानून
मुस्लिम पर्सनल लॉ शब्द का प्रयोग सबसे पहले ब्रिटिश गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने किया था। अंग्रेज जब एक-एक कर देसी रियासतों को हड़प रहे थे, तब स्वाभाविक रूप से नए कानूनी और प्रशासनिक पहलू भी उभर रहे थे। लेकिन मुस्लिम रियासतों में शरिया न्याय व्यवस्था मौजूद थी, जिसके तहत पारिवारिक मामलों से लेकर आपराधिक मामलों तक का निपटारा किया जाता था। अंग्रेजों ने हत्या, चोरी, बलात्कार जैसे मामलों में दंड संहिता तो लागू कर दी, लेकिन विवाह, वसीयत जैसे मामलों को यथावत रहने दिया। हिंदू परिवार व्यवस्था भी पारंपरिक व्यवस्था के हिसाब से चलती रही। धीरे-धीरे यह व्यवस्था स्वीकार्य हो गई। 1939 में मुस्लिम विवाह विच्छेद कानून बना, जिसमें मुस्लिम महिलाओं को थोड़ी राहत देते हुए विशेष परिस्थितियों में तलाक लेने की व्यवस्था दी गई। हालांकि मूल समस्याएं जैसी की तैसी रहीं।
स्वतंत्र भारत में जहां हिंदू कानून में संशोधन किए गए, वहीं ब्रिटिशकालीन मुस्लिम पारिवारिक कानून में कोई बदलाव नहीं किया गया। हिंदू संगठनों और लोगों के विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल लागू किया गया। इसमें बहुपत्नी प्रथा को प्रतिबंधित करने के साथ कई पारिवारिक कानूनों में बदलाव किया गया। यहां तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद को लौटा दिया था। इसके बावजूद कानून लागू हो गया। लेकिन मुस्लिम कानूनों में जब बदलाव की बात आई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने कदम पीछे खींच लिए।
आज तक इसने मुस्लिम समुदाय का कितना भला किया? दरअसल, ये लोग मुस्लिम आबादी के बड़े हिस्से को शरिया के डंडे से हांकना चाहते हैं। यह समस्या मूलभूत नागरिक अधिकारों तक सीमित नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज के राष्ट्र के साथ समरस होने में भी दीवारें खड़ी करती है। मुसलमानों के लिए अलग कानून अलग पहचान को पुष्ट करता है। अलग पहचान के इर्द-गिर्द ही तुष्टीकरण और विभाजन की राजनीति पनपती है। मुस्लिम समाज पर इस मुल्ला सेना का असर और हर बात पर इनका मुंह ताकने की आदत इन जैसों की ताकत बनी हुई है।
पर्सनल लॉ बोर्ड समुदाय का दुश्मन
रही बात मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तो इसका काम ही भारत सरकार के कानूनों से मुस्लिम पर्सनल लॉ की रक्षा करना और मुसलमानों के पारिवारिक मामलों में 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट को हर हाल में लागू किया जाए, यह सुनिश्चित करना है। यह एक गैर सरकारी संस्था है, जो मुस्लिम कानूनों के मामलों में सरकर को प्रभावित करती है और आम मुस्लिम नागरिकों का मार्गदर्शन करती है। इसके कार्यकारी मंडल में विभिन्न मुस्लिम धाराओं के 41 उलेमा शामिल होते हैं, जो शरिया कानून के आधार पर कानूनों की व्याख्या करते हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का राष्ट्र की मुख्यधारा, प्रगतिशीलता और नवमूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। इमराना मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो शरिया अदालत का समर्थन किया ही, पहले मुस्लिम महिलाओं के तलाक संबंधी कानून में सुधार, तीन तलाक कानून और मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने का विरोध किया।
इसी बोर्ड ने 2009 में बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून का विरोध किया, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि सरकार मदरसों में हस्तक्षेप कर सकती है। इसी तरह, उसने बढ़ती जनसंख्या को भविष्य का हथियार मानने की मुस्लिम कट्टरपंथियों की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हुए नाबालिग लड़कियों के विवाह को इस्लाम की नाक का सवाल बना कर प्रस्तुत किया और बाल विवाह निरोधक कानून का विरोध किया। आज तक इसने मुस्लिम समुदाय का कितना भला किया? दरअसल, ये लोग मुस्लिम आबादी के बड़े हिस्से को शरिया के डंडे से हांकना चाहते हैं। यह समस्या मूलभूत नागरिक अधिकारों तक सीमित नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज के राष्ट्र के साथ समरस होने में भी दीवारें खड़ी करती है। मुसलमानों के लिए अलग कानून अलग पहचान को पुष्ट करता है। अलग पहचान के इर्द-गिर्द ही तुष्टीकरण और विभाजन की राजनीति पनपती है। मुस्लिम समाज पर इस मुल्ला सेना का असर और हर बात पर इनका मुंह ताकने की आदत इन जैसों की ताकत बनी हुई है।
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