गंगा केवल नदी नहीं, बल्कि आस्था का केंद्र है। आस्था, मां होती है। जन्म से लेकर अंत तक गंगा मैया अपने आंचल में सब कुछ छुपा लेती है। शरणागति देती है। इसीलिए गंगा को मोक्षदायिनी कहा गया है। गंगा का प्रवाह रुकता नहीं। वह निरंतर है। जीवन को सार्थक बनाने वाली मां न रुकती है, न थकती है। गंगा भी तो मां है।?
वर्षा ऋतु में जब मां गंगा अपना आवेग प्रदर्शित करती हैं, गंगा के दोनों तट एकाकार हो जाते हैं, जब मोक्षदायिनी गंगा अपने आंचल में दोनों किनारों को समेट लेती हैं, तब करोड़ों मन गंगा मैया की जय-जयकार करते हुए जल का आचमन करते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं, मनौतियां मानते हैं और मनौतियां पूरी होने के बाद गंगाजल से भरे कांवड़ लेकर जयकारे लगाते हुए भगवान शिव की शरण में पहुंचकर विश्व शांति का स्रोत दोहराते हैं।
गंगा केवल नदी नहीं, बल्कि आस्था का केंद्र है। आस्था, मां होती है। जन्म से लेकर अंत तक गंगा मैया अपने आंचल में सब कुछ छुपा लेती है। शरणागति देती है। इसीलिए गंगा को मोक्षदायिनी कहा गया है। गंगा का प्रवाह रुकता नहीं। वह निरंतर है। जीवन को सार्थक बनाने वाली मां न रुकती है, न थकती है। गंगा भी तो मां है। इसीलिए जब भगवान विष्णु ने गंगा को अपने चरणों से रोकने का प्रयास किया तो वे ठहरीं नहीं। अंतत: शिव की जटाओं में प्रवेश कर उमड़ती- घुमड़ती वे हरिद्वार में पृथ्वी लोक में आई। वहीं श्रावण के महीने में भगवान् शिव जब गंगा को निहारते हैं तो नदी के दोनों के किनारे एकाकार हो जाते हैं। शिव भी तो सबको एकाकार करते हैं।
गंगा-जल एक नदी का नहीं, आस्था का जल है। समरसता का ऐसा जल है जो कभी दूषित नहीं हो सकता, होता भी नहीं है। इसीलिए श्रावण मास में करोड़ों आस्थावान अपने कंधों पर गंगाजल को लेकर शिव के धाम जाते हैं। मां को कंधों पर उठाना पुण्य का काम है।
बीते 2 वर्ष गंगा के किनारे स्नानार्थी तो आए लेकिन कांवड़ यात्रा कहीं पूरी नहीं हुई। कोविड महामारी के वजह से कांवड़ यात्रा स्थगित रही। लेकिन इस वर्ष, मां के दर्शन और मां के आंचल में आकर तृप्त होने के लिए करोड़ों लोग हरिद्वार तथा मां गंगा के पदों पर पहुंचे। कांवड़ यात्रा वास्तव में तपस्या, एक संकल्प की पूर्ति का अनुष्ठान है। इस अनुष्ठान में लोक और शिव दोनों सम्मिलित। आस्था में पगे कांवड़िए जब ‘बोल बम’ के जयघोष के साथ गंगा तट से प्रस्थान करते हैं, तब आस्था उनके स्वागत में हर कदम पर मंगलकामना, स्वागत करती है।
रोजगार भी देती है कांवड़
कांवड़ यात्रा हरिद्वार ही नहीं, अलग-अलग गांवों और कस्बों के साथ महानगरों को भी रोजगार देती है। कांवड़ बनाने, इन्हें सजाने और गंगाजल के लिए पात्र, बाजार में मिलते हैं। स्थानीय लोग आपसी भाईचारे के आधार पर हरिद्वार से अलग-अलग स्थानों तक जा रहे कांवड़ियों के लिए जगह-जगह फल-फूल, खानपान का प्रबंध करते हैं। इससे सब्जी विक्रेताओं से लेकर परचून दुकानदारों तक की जमकर बिक्री होती है। इतना ही नहीं, हरिद्वार में कांवड़ियों की रुद्राक्ष माला, तुलसी माला, और शंख के साथ खेल- खिलौनों की भी जमकर बिक्री होती है। हरिद्वार के दुकानदारों का सालाना उत्सव है – कावड़ यात्रा।
हरिद्वार से प्रस्थान कर कांवड़िए जब गंगाजल को अपने कंधों पर सम्मान देकर, पुरुषार्थ की नई परिभाषा लिखते हैं, तब गंगा मैया उनकी आस्था को निहारती हैं। एक मां अपने भगीरथ पुत्रों को निहार कर प्रसन्न होती है। गंगा मैया की प्रसन्नता ही देश की समरसता को बढ़ाती है। कांवड़िए अपनी जाति, रंग- रूप, भाषा और खानपान से नहीं जाने जाते बल्कि उनकी आस्था और संकल्प इस बात का प्रतीक है कि गंगा मैया सबकी हैं और सब गंगा मैया के हैं। वैश्विक महामारी के 2 साल बीतने के बाद इस साल हरिद्वार में करीब 4 करोड़ लोगों ने गंगा में डुबकी लगाकर ना केवल अपनी आस्था को शुद्ध किया बल्कि देश की उस समरसता को भी बल प्रदान किया जो आज भी गैरभारतीयों को विस्मित करती है।
बोल बम के उद्घोष के साथ जब कांवड़िए हरिद्वार से प्रस्थान करते हैं तो नगर और गांव के आंगन में जिस आत्मीयता से उनका स्वागत होता है, वह भारतीय परंपरा और अतिथि देवो भव की भावना को साकार करता है। राग- रागिनी, लोकगीतों और धर्म घोष के गुंजायमान वातावरण के बीच जो पथ संचालन होता है, उससे कंधों पर सजी कांवड़ धन्य हो जाती है। आस्था की ऐसी परंपरा विश्व में कहीं और देखने को नहीं मिलती। यह भारत की अनुपम और अनुकरणीय परंपरा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी गंगा जल को अपने प्रस्थान बिंदु तक ले जाती है। कांवड़- यात्रा वास्तव में एक तपस्या है, संकल्प है, एक अनुष्ठान है, और एक ऐसी परंपरा है जो समरसता का नया अध्याय है। यह सभी आस्थावान भारतीयों का महापर्व है। कांवड़-यात्रा, मां गंगा को धरती से उठाकर अपने कंधों पर सम्मानित करना आस्था का महापर्व ही तो है। इस आस्था के साथ समरसता भी कदमताल करती है।
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