स्क्रीन पर लंबे समय तक उंगलियों और अंगूठों को स्वाइप करने, टैप करने, ड्रैग करने और स्क्रोल करने से उंगलियों तथा अंगूठे में पैदा होने वाली तकलीफ का नाम है। हमारी उंगलियां और अंगूठा इस काम के लिए तो नहीं बने थे न! कुछ साल पहले कंप्यूटर के कीबोर्ड का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने से ‘कारपल टनल सिंड्रोम’ नाम की बीमारी काफी आम थी। अब मोबाइल से होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं ज्यादा आम हो चली हैं।
मोबाइल फोन के अति प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभावों को अंग्रेजी में बड़े दिलचस्प नाम दे दिए गए हैं, जैसे- टेक नेक, टेक्स्ट थंब, स्मार्टफोन पिंकी, फैंटम रिंगिंग सिन्ड्रोम, नो-मोबाइल फोबिया, ड्राई आइ सिन्ड्रोम और साइबरकोंड्रिया। हिंदी में ऐसे नाम फिलहाल नहीं आए हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी वालों के लिए स्थिति कम गंभीर है। 135 करोड़ की आबादी वाले भारत में आज करीब 115 करोड़ से अधिक मोबाइल फोन उपभोक्ता हैं। मोबाइल फोन के अति-प्रयोग के दुष्प्रभाव घर-घर पहुंच रहे हैं।
‘टेक नेक’ : इसका मतलब है लगातार अपने मोबाइल फोन, टैबलेट या दूसरे डिजिटल उपकरणों की स्क्रीन पर घंटों लगातार नीचे की ओर देखते रहने के कारण गर्दन में आने वाली ऐंठन, जकड़न और दर्द। बहुत से लोगों को गर्दन हिलाने या ऊपर-नीचे करने में दर्द महसूस होता है। यह एक किस्म की महामारी बन रही है जिसका असर कंधों से लेकर रीढ़ की हड्डी पर भी पड़ रहा है। टेक नेक में आपकी गर्दन के आगे वाले हिस्से की मांसपेशियां, अस्थि बंधक तंतु आदि दब जाते हैं जबकि गर्दन के पिछले हिस्से में मौजूद मांसपेशियां और तंतु ढीले पड़ जाते हैं। गर्दन को एक तरफ झुकाकर मोबाइल फोन से बात करने या फोन को चेहरे के एक तरफ दबाकर बात करने की आदत भी ऐसी समस्याओं को जन्म देती है।
‘टेक्स्टिंग थंब’ : इसे टिंडर फिंगर भी कहा जाता है, यह स्क्रीन पर लंबे समय तक उंगलियों और अंगूठों को स्वाइप करने, टैप करने, ड्रैग करने और स्क्रोल करने से उंगलियों तथा अंगूठे में पैदा होने वाली तकलीफ का नाम है। हमारी उंगलियां और अंगूठा इस काम के लिए तो नहीं बने थे न! कुछ साल पहले कंप्यूटर के कीबोर्ड का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने से ‘कारपल टनल सिंड्रोम’ नाम की बीमारी काफी आम थी। अब मोबाइल से होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं ज्यादा आम हो चली हैं।
‘फैंटम रिंगिंग सिंड्रोम’ : इसका मतलब अपने फोन की घंटी बजने की गलतफहमी होती है। अचानक आपको लगता है कि आपके फोन की घंटी बजी या कोई संदेश आया। लेकिन जब फोन देखा तो कुछ नहीं! ऐसा भी होता है कि फोन आपके पास रखा ही नहीं है फिर भी लग रहा है कि घंटी बजी। हमारे दिमागों को इन संकेतों की इतनी आदत पड़ चुकी है कि वे हमेशा सतर्कता के मोड में रहने लगे हैं और उनकी प्रतिक्रियात्मक प्रणाली (रेस्पॉन्स मैकेनिज्म) में बदलाव आ रहा है।
‘नो मोबाइल फोबिया’ : इसे नोबोफोबिया भी कहा जाता है यानी अपने फोन से दूर होने की तकलीफ। बैटरी खत्म हो गई है तो आप बेचैन हो जाते हैं कि इसे कैसे चार्ज किया जाए, जल्दी से जल्दी। पति-पत्नी के बिना और पत्नी पति के बिना समय काट लेती है लेकिन फोन के बिना नहीं। ज्यादा बड़ी समस्या वह मानसिक तनाव और हताशा है जो फोन के कनेक्शन के कुछ समय के लिए कट जाने, सिग्नल चले जाने या बैटरी ठप पड़ जाने पर होती है।
इंटरनेट एडिक्शन डिसऑर्डर : स्मार्टफोन का बातचीत के लिए कम और इंटरनेट से जुड़ी गतिविधियों के लिए ज्यादा प्रयोग होता है। इंटरनेट एडिक्शन डिसऑर्डर यानी इंटरनेट की लत इसका एक दुष्परिणाम है। मतलब यह कि इंटरनेट पर कुछ देखना शुरू किया तो छोड़ ही नहीं सकते। यूट्यूब पर शॉर्टस देखने में तीन घंटे निकल जाते हैं। वीडियो गेम खेलने लगे तो कब पूरा दिन बीत गया, मालूम ही नहीं। इंस्टाग्राम की रील्स देखते घंटों बीत गए।
ड्राई आइ सिन्ड्रोम : स्मार्टफोन उपभोक्ताओं में ड्राई आइ सिन्ड्रोम यानी लंबे समय तक स्क्रीन देखते रहने से आंखों का सूखना तेजी से बढ़ता जा रहा है। लंबे समय तक ऐसा होने से नजरें कमजोर भी पड़ सकती हैं। स्क्रीन देखते हुए हम उसी पर नजर गढ़ाए रखते हैं, पलकों को बहुत कम झपकाते हैं। इसीलिए डॉक्टर कहते हैं कि डिजिटल उपकरणों पर काम करते हुए हर बीस मिनट में बीस फुट दूर किसी चीज को देखकर बीस बार अपनी पलकें झपकाने की आदत डालिए।
साइबरकोंड्रिया : सेहत से जुड़े छोटे से छोटे लक्षण के बारे में इंटरनेट पर सर्च करने की बीमारी को ‘साइबरकोंड्रिया’ कहते हैं। सिरदर्द मामूली सी चीज है लेकिन संभव है कि ज्यादा सर्च करने से भ्रम हो जाए कि कहीं मुझे ब्रेन ट्यूमर तो नहीं है! सेहत से जुड़ी सूचनाओं का यह ‘ओवरडोज’ और उससे उपजी बेवजह की चिंताएं ही साइबरकोन्ड्रिया हैं। आपको कोई बीमारी नहीं है, अगर है तो शायद इंटरनेट के अति-प्रयोग की।
(लेखक माइक्रोसॉफ़्ट में ‘निदेशक-स्थानीयकरण और सुगम्यता’ के पद पर कार्यरत हैं।
टिप्पणियाँ