दिल्लीवासियों को भी शायद ही पता हो। इस चार मास के समर में असंख्य वीरों ने अपनी आहुति दी थी। सिर्फ आहुति ही नहीं, इन वीरों ने शत्रु को भी बहुत अधिक हानि पहुंचाई थी। उन्होंने बिलाशक, वीरता और शौर्य का एक प्रतिमान खड़ा किया था।
जून से सितम्बर, 1857 में हुए दिल्ली के संघर्ष के बारे में बहुत-से लोग नहीं जानते होंगे, इसका अध्याय शायद ही किसी पाठ्यपुस्तक में पढ़ाया गया हो। यानी इसके बारे में दिल्लीवासियों को भी शायद ही पता हो। इस चार मास के समर में असंख्य वीरों ने अपनी आहुति दी थी। सिर्फ आहुति ही नहीं, इन वीरों ने शत्रु को भी बहुत अधिक हानि पहुंचाई थी। उन्होंने बिलाशक, वीरता और शौर्य का एक प्रतिमान खड़ा किया था।
‘दिल्ली का घेरा’ नाम की एक प्रसिद्ध पुस्तक में लेखक लिखता है-‘हमारे शिविर में एक यूरोपीय के पीछे दस स्थानीयजन थे। जितने यूरोपीय तोपखाने पर होते उससे चौगुने स्थानीय लोग वहां होते। एक घोड़े के पीछे दो स्थानीय घुड़सवार रहते। स्थानीयजन की भर्ती के सिवाय एक कदम भी आगे रखना संभव नहीं था’। देश के एक भाग की चेतना को देश के दूसरे भाग की अचेतना ने मार गिराया। ऐसी स्थिति में भारतीय क्रांतिकारियों ने अगस्त समाप्त होने तक भी अंग्रेजों को स्वयं पर मार करने का अवसर नहीं दिया था। अभी तक अघातक पद्धति का अवलंबन करके वे ब्रिटिश शिविरों पर पूरे उत्साह से हमले कर रहे थे। यह उनकी ध्येय-निष्ठा की विशेष पहचान थी।
अटल निश्चय और जोश
दिल्ली का घेरा बढ़ता जा रहा था और शहर निराशा में डूबता दिखने लगा था। नीमच और बरेली की भारतीय सेना निराशा का ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोड़ने लगी। उस समय दिल्ली में भारतीय क्रांतिकारियों के सेनापति बख्तर खान ने बादशाह की इच्छा से सारे नेताओं, सेना प्रमुखों एवं चुने हुए नागरिकों को बुलाकर प्रश्न किया-‘लड़ाई चालू रखनी है या बंद करनी है?’ सबने जोर की गर्जना के साथ उत्तर दिया-‘लड़ाई, लड़ाई, लड़ाई!’ दिल्ली का यह अटल निश्चय देखकर सभी में जोश दिखा। नीमच और बरेली की भारतीय सेना नजफगढ़ की ओर बढ़ी।
क्रांतिकारियों के उस दल ने इतने शौर्य और दृढ़ता से युद्ध किया कि राजमहल में जब अंग्रेजी सेना दाखिल हो रही थी तब सामने बंदूक हाथ में लिए एक ही रखवाला खड़ा मिला। अंग्रेज इतिहासकार लिखते हैं-‘जिस शत्रु से आज तीन माह तक बड़ी दृढ़ता से उन्होंने संघर्ष किया, उन फिरंगियों से उनकी शत्रुता जीवन के अंतिम क्षण तक भी कम नहीं पड़ी थी, यह सिद्ध करने के लिए वे सिपाही विजय की रत्तीभर परवाह किए बिना अद्भुत कर्मठता के साथ हमें चिढ़ाते अचल खड़े थे’
बढ़ता गया घेरा
अनुशासनहीनता हानि पहुंचाती है और कभी-कभी घातक होती है। बरेली ब्रिगेड ने जहां डेरा डाला, नीमच की सेना ने वहां डेरा न डालकर और बख्तर खान का आदेश न मानकर एक गांव में डेरा डाला। अंग्रेज सेना ने उन पर अचानक आक्रमण किया। उसने नीमच की सेना को संभलने का अवसर नहीं दिया। इस युद्ध में क्रांतिकारियों की दुर्दशा शेष नहीं रही। बेशक वे बड़ी बहादुरी से लड़े, पर वह शूरता निष्फल रही! नीमच की पूरी सेना उस दिन नष्ट हो गई। अधिकारियों का उचित सम्मान और आदेश के प्रति आदर, यह अनुशासन में मुख्य होता है। पर दिल्ली में इसे पैरों तले रौंदा जा रहा था। उधर पंजाब व जींद रियासत से आई ग्यारह हजार से अधिक सेना के आने से दिल्ली का घेरा बढ़ता जा रहा था।
दिल्ली के बाहर दबाव बढ़ता जा रहा था और अंदर उत्साह रूपी सूर्य अस्त होता जा रहा था-इन दोनों का अंत करने के लिए 14 सितम्बर का दिन उदित हुआ। अंग्रेज सेना के चार विभाग कर उसमें से तीन विभाग निकल्सन के अधीन कश्मीरी दरवाजे से दाखिल होने के लिए भेजे गए और चौथा भाग मेजर रीड के अधीन काबुली दरवाजे से घुसने के लिए बढ़ा। 16 मई के बाद निरन्तर असफल प्रयास करते हुए 14 सितम्बर को अंग्रेज सेना को सफलता मिली और वह दिल्ली में आ पहुंची। एक ही दिन में दिल्ली जीत लेंगे, ऐसा कहने वाली अंग्रेज सेना को बड़ी हानि के बावजूद दिल्ली में प्रवेश करने में 120 दिन लगे, यह बात भारतीय क्रांतिकारियों की वीरता और पराक्रम को प्रकट करती है।
अंग्रेज सेना में दुविधा
14 सितम्बर को हुआ भयंकर युद्ध, रक्तपात, मृत्यु का नाच! अंग्रेजी सेना के हाथ क्या लगा? हिंदुस्थान में ऐसा भयंकर दिवस अंग्रेजी शासन में कभी उदय नहीं हुआ था। अंग्रेज सेना के चार में से तीन भागों के प्रमुख कमांडर घायल हुए, स्वयं निकल्सन घायल हुआ, 66 अधिकारी समरांगन में गिरे, 1,104 लोग मरे। इस विलक्षण जनहानि से अंग्रेजों को मिला—दिल्ली के एक परकोटे का एक चौथाई भाग। भय, चिंता और निराशा से पागल हुआ अंग्रेज कमांडर जनरल विल्सन बोला-‘दिल्ली छोड़कर तत्काल पीछे हट जाना चाहिए। सारा शहर अभी अविजित ही बना हुआ है। मेरे अधीनस्थ शूर लोगों की एक गली ने रक्षा की और जो मुट्ठीभर लोग अभी जीवित हैं, उनका हजारों विद्रोही हर घर से निकल आने का आह्वान कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में सब मारे जाएं या पीछे लौटने का अपयश स्वीकार करें’!
‘जिस शत्रु से आज तीन माह तक बड़ी दृढ़ता से उन्होंने संघर्ष किया, उन फिरंगियों से उनकी शत्रुता जीवन के अंतिम क्षण तक भी कम नहीं पड़ी थी, यह सिद्ध करने के लिए वे सिपाही विजय की रत्तीभर परवाह किए बिना अद्भुत कर्मठता के साथ हमें चिढ़ाते अचल खड़े थे’।
एक पक्ष का विचार था कि दिल्ली में अधिक देर न लड़ते हुए हम बाहर के प्रदेशों में युद्ध करने निकलें। तो दूसरे पक्ष का विचार था कि मृत्युपर्यंत दिल्ली समर्पण न करे। बहुमत का सम्मान कर सहमति बना लेने के अमूल्य सद्गुण का अभाव क्रांतिकारियों की टोली में था। इस कारण दोनों पक्ष एक दिशा में न जाकर अलग-अलग रास्तों पर निकल पड़े। जो पक्ष दिल्ली रह गया, 15 से 24 सितम्बर तक उसी ने युद्ध किया। उस पक्ष ने युद्ध भी इतने निश्चय, शौर्य और दृढ़ता से किया कि राजमहल में जब अंग्रेजी सेना दाखिल हो रही थी तब उस पूरी सेना के सामने बंदूक हाथ में लिए एक ही रखवाला खड़ा मिला। अंग्रेज इतिहासकार इसके बारे में लिखते हैं-‘जिस शत्रु से आज तीन माह तक बड़ी दृढ़ता से उन्होंने संघर्ष किया, उन फिरंगियों से उनकी शत्रुता जीवन के अंतिम क्षण तक भी कम नहीं पड़ी थी, यह सिद्ध करने के लिए वे सिपाही विजय की रत्तीभर परवाह किए बिना अद्भुत कर्मठता के साथ हमें चिढ़ाते अचल खड़े थे’।
नमन है ऐसे वीरों की ध्येयनिष्ठा, पराक्रम, राष्ट्रभक्ति को…और धन्य है दिल्ली, जो अंतिम क्षण तक लड़ती है।
(लेखक विद्या भारती, दिल्ली प्रान्त के संगठन मंत्री और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य हैं)
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