वर्ष 2020 में जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने स्वास्थ्य कारणों से पद से इस्तीफा दे दिया था, जो जापान के इतिहास में एक असाधारण घटना थी। आबे ने जापान के इतिहास में बतौर प्रधानमंत्री सबसे लंबा कार्यकाल पूरा किया था। इतना ही नहीं, उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के जापान की आत्मचेतना को भी झकझोरने का कार्य किया था। एक महान राजनीतिक विरासत वाले परिवार से आए शिंजो आबे के नाना और दादा, दोनों जापान के प्रधानमंत्री रहे थे। आबे जापान में कितने लोकप्रिय थे, इस बात का अंदाजा इसी से लग जाता है कि उन्होंने छह संसदीय चुनाव लड़े और जीते।
गत 8 जुलाई की सुबह जापान के नारा शहर में एक चुनाव रैली में आबे को गोली लगने की खबर आते ही दुनियाभर के सभ्य समाज को एक आघात-सा महसूस हुआ। लेकिन शाम होते-होते उनके दुनिया से विदा होने के समाचार ने सबको भीतर तक आहत कर दिया था।
आबे कोई साधारण राजनेता नहीं थे। उन्होंने जापान को आर्थिक संकट से उबारने की एक स्पष्ट योजना सामने रखी और उसे क्रियान्वित किया। उन्होंने अपने देश में चल रहे मानव संसाधन के संकट को देखते हुए अधिक से अधिक महिलाओं को कार्यक्षेत्र में शामिल किया। शिंजो आबे हमेशा से जापान के सैन्य सशक्तिकरण के लिए चिंतित रहे। उन्होंने ही पुरजोर प्रयास करके देश की सैन्य क्षमता को बढ़ाने का बीड़ा उठाया था। उनका वह प्रयास अब रंग ला रहा है और इस क्षेत्र में अपनी दमदारी दिखा रहा है। शायद यही कारण रहा कि उन्हें गोली लगने की खबर को सुनकर कम्युनिस्ट चीन के अनेक सोशल मीडिया हैंडल्स ने स्तरहीन व्यवहार दर्शाते हुए कटाक्ष भरे ट्वीट किए। किन्तु इसमें संदेह नहीं कि आज जापान में अगर सैन्य दमदारी हासिल करने का विमर्श खड़ा हो पाया है तो इसके पीछे आबे का ही प्रयास है।
आबे ने भारत-जापान साझेदारी की ऐतिहासिक विरासत को समझा। 2007 में भारत की संसद में बोलते हुए उन्होंने दुनिया के सामने हिन्द-प्रशांत की अवधारणा रखी थी। इसे आगे बढ़ाते हुए उन्होेंने ‘मुक्त और खुले हिन्द-प्रशांत क्षेत्र’ की संकल्पना भी रखी, जिसमें भारत को प्रमुख स्थान दिया गया। मोदी-आबे की निकटता ने दुनिया के सामने द्विपक्षीय साझेदारी की एक मिसाल कायम की
आबे की अवधारणा
जहां तक एशिया की बात है तो इस ओर आबे की दृष्टि एकदम स्पष्ट रही। वे एक वृहतर एशिया का ख्वाब देखते थे। उन्होंने तत्कालीन अमेरिकी राष्टÑपति बराक ओबामा से एक बार कहा था कि ‘जापान टियर-टू देश नहीं है और न ही कभी होगा। जापान एशिया के उत्थान में अपनी जिम्मेदारी समझता है। अब समय आ गया है कि एशिया में साझा नियम-कानून और मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया जाए’। आबे यह समझ चुके थे कि जापान का वृहत एशिया का यह ताना-बाना भारत की साझेदारी के बिना अधूरा रहेगा। वे बखूबी जानते थे कि यह वही भारत है जहां से सुभाष चन्द्र बोस ने जापान आकर उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में एक वृहत एशिया के निर्माण के लिए जापान के साथ साझेदारी की थी। आबे जानते थे कि भारत अपनी जिम्मेदारी निभाता भी है। उन्हें याद था कि जब दुनिया के बड़े-बड़े न्यायाधीश जापान के खिलाफ बोल रहे थे तब भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए जस्टिस राधा बिनोद पाल अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो दूसरे विश्व युद्ध के अपराधों के लिए केवल जापान को ही जिम्मेदार ठहराने के विरुद्ध थे।
आबे ने भारत-जापान साझेदारी की इस ऐतिहासिक विरासत को समझा। तभी तो 2007 में भारत की संसद में बोलते हुए उन्होंने दुनिया के सामने हिन्द-प्रशांत की अवधारणा रखी थी। इसे आगे बढ़ाते हुए उन्होेंने ‘मुक्त और खुले हिन्द-प्रशांत क्षेत्र’ (एफओआईपी) की संकल्पना भी रखी, जिसमें भारत को प्रमुख स्थान दिया गया। इसके बाद 2015 में जब वे भारत आए तो देश के नामी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने आबे को डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की थी।
संबंधों में नई ऊंचाई
2014 में जब भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी, उसके बाद से तो भारत-जापान संबंधों में एक नई स्फूर्ति देखने में आई। भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ में जापान की भूमिका महत्वपूर्ण होनी ही थी। इस साझेदारी में अहम बात थी मोदी और आबे की मित्रता। दोनों नेताओं ने क्योटो-काशी परियोजना के माध्यम से इस बात की तस्दीक भी की। बात चाहे औद्योगिक गलियारा बनाने की हो, आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने की, पूर्वांचल के क्षेत्र में अवसंरचना विकास साझेदारी की या बुलेट ट्रेन की, मोदी-आबे के नेकट्य ने दुनिया के सामने द्विपक्षीय साझेदारी की एक मिसाल कायम की। दशकों से लंबित कितने ही मुद्दों को इन दोनों नेताओं ने सहज ही सुलझा दिया। ऐसा ही एक मुद्दा था भारत और जापान के मध्य असैन्य परमाणु समझौता। इस समझौते में बात बार-बार भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों पर ही निर्भर रहने पर अटक जाया करती थी। लेकिन इसका भी रास्ता निकला।
पूर्व प्रधानमंत्री और दुनिया के शीर्ष राजनेताओं में से एक शिंजो आबे की हत्या जापान के लिए ही एक गहरा आघात नहीं है, बल्कि भारत और पूरी दुनिया ने भी एक ऐसे नेता को खो दिया है जिसने वैश्विक पटल पर लोकतंत्र को मजबूत करने, जापान को फिर से एक स्वाभिमानी देश बनाने और इस सदी को एशिया की सदी बनाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वद्यालय, नई दिल्ली में शोधार्थी हैं)
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