अभी कुछ दिन पहले भारत में फेमिनिस्ट (नारीवादियों) का एक नया रूप दिखा था। वह था कर्नाटक में चल रहे हिजाब और बुर्के को लेकर समर्थन का और वह लोग मुस्कान के समर्थन में आ गयी थीं। मामला मात्र उसी समानता का था, जिस समानता के लिए ये लोग परिवार तोड़ती हैं, जिसके लिए ये लोग नए-नए प्रकार के आंदोलन करती हैं।
परन्तु यह उस समानता के विरुद्ध खड़ी दिखाई देती हैं, जब कट्टर इस्लाम के अधीन महिलाओं पर अत्याचार होते हैं, उनकी जान तक ले ली जाती है। कथित फेमिनिज्म में उनकी सुई अमेरिकी कवयित्री माया एंजेलो पर ही आकर रुक गयी है। उनकी कविताओं का अनुवाद करना और उसके आधार पर फेमिनिज्म का स्वर तय करना ही इनका अंतिम कार्य है।
क्रांति के लिए यह लोग माया एंजेलो की ओर देखती हैं, और उनकी कविताओं का पाठ अनुवाद आदि करती है जैसे पिंजरे का पंछी गाता है कँपकँपाते स्वर में
उन अज्ञात चीज़ों के बारे में
जिनकी चाहत अभी बाक़ी है,
दूर पहाड़ी पर सुनाई देती है उसकी धुन
जब वह गाता है मुक्ति का गीत ।
मगर अब जब पिंजरे के इसी पंक्षी की तरह ईरान में और अन्य इस्लामिक देशों में मुस्लिम महिलाएं अपनी आजादी के लिए स्वर उठा रही हैं, वह इन फेमिनिस्टों को बताना चाहती हैं कि उनमे भी अपना सिर खोलकर चलने की चाहत बाकी है, वह दूर पहाड़ी पर बाल लहराने की आजादी देखना महसूस करना चाहती हैं, परन्तु भारत सहित अन्य देशों की कथित सेक्युलर महिलाएं उनका ऑनलाइन समर्थन ही बहुत कम कर रही हैं।
भारत का फेमिनिज्म का दूसरा नाम केवल और केवल हिन्दू विरोध है, माया एंजेलो की कविताओं का प्रयोग उन्होंने हिन्दू श्रृंगार एवं सुहाग के प्रतीकों को नष्ट करने के लिए प्रयोग किया है। उन्होंने वास्तविक आजादी की ओर बात की ही नहीं है, उन्होंने माया एंजेलो की वह कविता कि मैं खड़ी हो जाऊंगी फिर से, हिन्दुओं के विरुद्ध ही विमर्श बनाने के लिए प्रयोग की, और जब भी इस्लामिक कट्टरता के खिलाफ वास्तविक आजादी की बात करने की आई तो उन्होंने अपना मुंह शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गड़ा लिया।
ईरान में क्यों है महिलाएं सड़क पर
ईरान में इन दिनों सविनय अवज्ञा आन्दोलन चल रहा है। वहां पर महिलाएं सड़क पर हैं। और आज से नहीं हैं, बल्कि कई वर्षों से हैं, वह निर्वासित जीवन जी रही हैं। निर्वासित से याद आया कि बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन भी भारत में निर्वासित जीवन जी रही हैं, और कई एक्स-मुस्लिम लडकियां भी कहीं न कहीं निर्वासित जीवन जी रही हैं, परन्तु “हिन्दू विवाह के कारण स्त्री को प्रथम विस्थापित” कहने वाली फेमिनिस्ट यह बताने में सक्षम नहीं होती हैं, कि क्या वह कभी इन निर्वासित महिलाओं के पक्ष में खड़ी हुईं?
भारत में तसलीमा नसरीन का विरोध प्राय: फेमिनिस्ट ही करती रहती हैं, क्योंकि तसलीमा नसरीन प्राय: उन विषयों पर बात करती हैं, जो टॉक्सिक फेमिनिज्म अर्थात जहरीले फेमिनिज्म का समर्थन नहीं करते हैं, तो ऐसे में उन्हें वह फेमिनिज्म समर्थन नहीं देता है, जो हिजाब पहनने और बुर्का पहनने वाली मुस्लिम लड़कियों को देता है। तसलीमा नसरीन, रूबिका लियाकत जैसी महिलाएं फेमिनिज्म की स्वतंत्र पहचान के दायरे में फिट नहीं होती हैं, इसलिए वह इनके साथ न आकर तालिबान द्वारा औरतों और पुरुषों को अलग-अलग पढ़ाए जाने पर ताली पीटती हैं और दबे स्वर में यह प्रमाणित करने का प्रयास करती हैं कि “इंडिया में भी तो एक संस्था के विद्यालयों में लड़कियों और लड़कों को अलग-अलग पढ़ाया जाता है!”
वे लोग कट्टर तालिबानियों द्वारा मुस्लिम महिलाओं पर किए जा रहे तमाम अत्याचारों पर मौन हैं। वह माया एंजेलो की आजादी का स्वर उन किसी भी खिलाड़ियों, गायिकाओं या फिर एंकर आदि के लिए नहीं गा सकती हैं, जिन्हें तालिबान ने बुर्के में कैद कर दिया है, मगर वह “बोल कि लब आजाद हैं तेरे” उन काले लिबास में कैद लड़कियों के पक्ष में गाने आ जाती हैं, जो शिक्षा को भी अपने मजहबी आकाओं के इशारों पर जहरीला बना रही हैं!
ईरान में अनिवार्य हिजाब के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ने वाली मसिह अलिनेजद ने भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय से चुप्पी तोड़ने की अपील की है क्योंकि अब उन लड़कियों की माओं को भी जेल में डाल जा रहा है, जिनकी लड़कियां इस अनिवार्य हिजाब के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए हैं:
A call on international communities to break their silence.
Islamic Republic of Iran killed these mothers beloved sons in #IranProtests. Now the regime put these mothers in prison for the crime of crying for justice. We call on International media to be their voices.👇 pic.twitter.com/yzmvIhdCq2— Masih Alinejad 🏳️ (@AlinejadMasih) July 13, 2022
ईरान में 12 जुलाई 2022 को एक बार फिर से महिलाएं सड़कों पर निकली थीं। वह उतरी थीं अपनी मूल आजादी के लिए कि उन्हें अपना सिर खुला रखने दिया जाए! उन्हें कम से कम बाल लहराने दिया जाए, परन्तु सरकार उन सभी लड़कियों को हिरासत में ले रही है, जिन्होंने इस अनिवार्य सरकारी इस्लामी प्रथा का विरोध किया है।
https://twitter.com/1500tasvir_en/status/1547506609982967808
लोगों ने गिरफ्तार की जा रही लड़कियों के वीडियो साझा किये कि कैसे वह परवाह न करते हुए जेल तक जाने के लिए तैयार हैं:
Solidarity with the #women & #girls of #Iran today as they risk arrest & imprisonment by engaging in #NoHijab peaceful protests.#No2Hijab #NoHijabDay #Hijab https://t.co/CwLaYnczMh
— Beth Wallace (@DrBethWallace) July 12, 2022
ईरान की महिलाओं ने खुमैनी के आरंभिक शासन से ही इस अनिवार्य हिजाब का विरोध किया है, मरयम रिजवी ने अनिवार्य हिजाब को वहां की महिलाओं पर हो रही सबसे बड़ी हिंसा बताया। उन्होंने कहा कि अनिवार्य हिजाब का विरोध है, अनिवार्य मजहब का विरोध है और अनिवार्य सरकार का विरोध है। वह कहती हैं कि ईरान अभी महिलाओं के लिए कैदगाह बन गया है!
#WomenForce4Change
Another area of violence and compulsion in #Iran is the mandatory Hijab. Since 1979, Iranian women protest against compulsory veiling, says @Maryam_Rajavi.
—NO to compulsory veil
—NO to compulsory religion
—NO to a compulsory governmentpic.twitter.com/x6L1eP80wR— Iran News Update (@IranNewsUpdate1) July 12, 2022
भारत में अनिवार्य हिजाब को मजहबी पहचान बताकर ग्लोरिफाई किया जाता है परन्तु अमेरिका की माया एंजेलो की कविता में आजादी की तड़प पढने वाली फेमिनिस्ट जब वहां से उठती हैं तो आकर कमला दास की झोली में गिरती हैं, जिन्होनें स्वयं ही जीवन की अंतिम बेला से पहले बुर्के को अपनी पहचान बना लिया था।
तो भारत का फेमिनिज्म कहीं न कहीं ईरान या किसी भी अन्य मुस्लिम देश में कट्टर इस्लामी शासकों द्वारा किए गए अत्याचारों के विरोध में न ही यह कहता है कि “बोल कि लब आजाद हैं तेरे!” बल्कि वह तो यह गाता है कि “बस नाम रहेगा अल्लाह का!” वह सीरिया में आतंक के शिकार मुस्लिम बच्चों पर लिख सकती हैं, परन्तु वह आईएसआईएस के हाथों मारी जाने वाली या सेक्स स्लेव बनाई जा रही यजीदी या पाकिस्तान में रोज गायब हो रही हिन्दू लड़कियों पर नहीं लिखती हैं। वह इस्लामी कट्टरता को कहीं न कहीं स्वीकार कर चुकी हैं, अपनी रीढ़ कहीं न कहीं उसी ओर झुका चुकी हैं, क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो ईरान में चल रही इतनी बड़ी क्रान्ति के पक्ष में कोई फेमिनिस्ट तो आवाज उठाती?
उनकी संवेदना वास्तविक क्रान्ति करती हुई महिलाओं के साथ न होकर काल्पनिक ऐसे शत्रु से लड़ने के लिए है, जो अपनी वाम और कट्टर इस्लामी विचारधारा के चलते हिन्दू धर्म में दिखाई देता है। काश माया एंजेलो की कविता का एक भी शब्द उन महिलाओं के लिए यह फेमिनिस्ट समर्पित कर पातीं जो लड़ रही हैं, अपने लिए, अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए और इस पूरी दुनिया को यह बताने के लिए “बाल हवा में लहराना, जो आम बात है, वह यहाँ पर लग्जरी है!”
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