आज विश्व इमोजी दिवस मनाया जा रहा है, इमोजी के नाम पर फेसबुक का एक ऐसा फीचर या विशेषता याद आती है, जिसके माध्यम से लोग अपनी ही कई छवियाँ प्रस्तुत करते हैं। अर्थात फेसबुक प्रोफाइल के “अवतार!” अर्थात हम लोग अपने हिसाब से अपने वस्त्र आदि चुनकर अपना एक कार्टून या विशेष फीचर वाला अवतार बना सकते हैं।
परन्तु जब फेसबुक ने यूके और यूएस में यह फीचर आरम्भ किया था और लोगों से कहा था कि वह इस का प्रयोग करके अपनी एक विशेष छवि बना सकते हैं तो हिन्दू धर्म का पालन करने वाले विदेशी हिन्दू दंग रह गए थे क्योंकि इसमें हिन्दू प्रतीक तो थे ही नहीं!
इसमें समावेशी पहचान के साथ हिजाब तो सम्मिलित किया गया था, परन्तु इसमें साड़ी और बिंदी नहीं थी। ऐसे में विदेशों में रह रहे हिन्दू फेसबुक यूजर्स के सामने या तो ईसाई या फिर मुस्लिम पहचान चुनने का ही विकल्प था, यदि उनका मन इस फीचर का प्रयोग करने का होता तो? क्या करते वह?
ऐसे में आवाज उठाई ब्रिटेन में रह रही धर्मनिष्ठ लक्ष्मी कौल ने। उन्होंने पहले twitter पर इसका विरोध करते हुए लिखा था कि “हालांकि मैंने इसे अनदेखा करने का बहुत प्रयास किया, मगर जब भी समावेशी होने की बात आती है तो हमेशा ही हिजाब की बात क्यों होती है? हम क्यों कभी साड़ी/बिंदी आदि को क्यों समावेशी के रूप में नहीं देखते? फेसबुक जहाँ आपको इन नए अवतारों को लाने में गर्व हो रहा है तो वहीं इनमें से कहीं से खुद को रिलेट नहीं कर पा रही हूँ!”
I’ve tried to ignore it but can’t! Why is the face of inclusivity always a Hijab? Why do we never see a saree/bindi face aa that of inclusivity? @Facebook while you pride in launching these new avatars, I don’t relate with any of them! So for me it’s an epic fail!! pic.twitter.com/Uar9jxTQj0
— Lakshmi Kaul लक्ष्मी कौल 🇮🇳🇬🇧 (@KaulLakshmi) May 14, 2020
लक्ष्मी कौल ने एकदम सही प्रश्न किया था, जो पश्चिमी विमर्श में मुख्य बिंदु है कि आखिर क्यों जब समावेशी की बात आती है तो उसमे हिजाब को ही ही समावेशी क्यों मान लिया जाता है? सांस्कृतिक समावेशीकरण की प्रक्रिया में हिन्दू धार्मिक प्रतीकों को अब्राह्मिक रिलिजन द्वारा पीछे क्यों छोड़ दिया जाता है?
यह बहुत ही सामान्य बात है, जिसका विस्तार भारत के यूएन में इस भाषण में निहित है, जब इस्लामोफोबिया के स्थान पर भारत ने रिलिजनोफोबिया की बात की थी। भारत ने यूएन में कहा था कि हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख आदि धर्मों पर होने वाले अत्याचारों को विमर्श में नहीं लाया जाता है, और जब रिलीजियस आधार पर अत्याचार की बात होती है, तो इस्लाम, ईसाई या यहूदी समुदाय पर हुए अत्याचारों को ही विमर्श में लाया जाता है?
यही बात सोशल साइट्स के सम्बन्ध में उस समय लक्ष्मी कौल ने की थी कि आखिर विदेशों में रह रहे हिन्दू क्या ईसाई या मुस्लिम पहचान का अवतार बनाएं? उन्होंने twitter पर इसका विरोध किया, फिर उन्होंने गार्जियन पर लेख लिखकर इसका विरोध किया और उसमें लिखा कि ऐसा नहीं है कि पहली ही बार ऐसा किया गया हो और ऐसा भी नहीं है कि केवल सोशल मीडिया ही ऐसा करता है। उन्होंने कई आन्दोलनों जैसे : “BAME representation” या “Pluralism and Diversity” आदि का उल्लेख करते हुए कहा था कि जब हम इसमें विविधता का उदाहरण देखते हैं, तो एक श्वेत, एक अश्वेत (अंतत: अब दिखने लगा है) और फिर हिजाब पहले एक महिला दिखाई देती है, मगर इस समावेशी और विविधता में साड़ी, बिंदी नहीं दिखाई देती है।
लक्ष्मी कौल ने इस लेख के माध्यम से भारत की जनसँख्या और यहाँ पर कितने अधिक इन्टरनेट यूजर हैं, इसके अधर पर महत्ता बताते हुए कहा था कि भारत में इन्टरनेट की उपलब्धता के कारण सोशल मीडिया के भी यूजर्स बढ़ेंगे और काफी विविध प्रोफाइल होगी।
और उन्होंने लिखा था कि जब यह अवतार बनाए गए हैं तो इन्होनें सबसे बड़े ऑनलाइन समुदायों में से एक समुदाय की ऑनलाइन उपस्थिति को बाहर ही निकाल दिया है, और सांस्कृतिक एवं सामाजिक विविधता को गलत तरीके से प्रतिनिधित्व किया है, और सभी एशियाई महिलाओं को “हिजाब” वाली महिला के रूप में बता दिया है। (https://www.sundayguardianlive.com/culture/game-avatars-not-represented-facebook) उन्होंने लिखा था कि एक साड़ी पहनने वाली और बिंदी लगाने वाली महिला को अपना अवतार दिख ही नहीं रहा है।
लक्ष्मी कौल ने ब्रिटिश संसद में हिन्दू जीनोसाइड को मान्यता दिलाने के लिए भी अथक प्रयास किए थे। अभी भी वह ब्रिटेन में रहकर हिन्दुओं के जीनोसाइड के मामले को उठाती रहती हैं और हाल ही में विवेक अग्निहोत्री के ह्युमेनिटी टूर पर उनका स्वागत करते हुए लिखा था कि अब पनुन कश्मीर जीनोसाइड बिल को लागू करवाने का समय है।
https://twitter.com/KaulLakshmi/status/1534843398955343872
जब यूके और यूएस में फेसबुक के हिन्दू रहित अवतार प्रस्तुत किए गए थे और उनमें हिन्दुओं के सांस्कृतिक प्रतीकों को सम्मिलित न किए जाने पर आलोचना हुई और लक्ष्मी कौल जी ने अभियान छेड़ा, संभवतया यही कारण था कि जब भारत में फेसबुक ने अपने “अवतार” प्रस्तुत किए तो उसमें साड़ी और बिंदी, पगड़ी आदि सभी सम्मिलित की गयी थी
विदेशों में रह रहे हिन्दू अपने सांस्कृतिक प्रतीकों के लिए, सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए हर प्रकार के कदम उठाते दिखते हैं। लक्ष्मी कौल भी उनमें से एक हैं। जब हम फेसबुक अवतार की बात करते हैं, तो ऐसे में लक्ष्मी कौल का वह ट्वीट भी याद आता है जिसमें उन्होंने संतोष व्यक्त किया था कि उन्होंने फेसबुक के विरोध में अपनी आवाज उठाई थी,
Glad I spoke up & campaigned for an inclusive representation for the millions of #saree wearers around the world on @Facebook The result: Saree & Salwar Kameez #Avatar 🇮🇳 👏🏼👏🏼I wrote this opinion piece a week after Avatars were launched by #Facebook: https://t.co/Sxgf8xPhN0 pic.twitter.com/FgzLQHQG8r
— Lakshmi Kaul लक्ष्मी कौल 🇮🇳🇬🇧 (@KaulLakshmi) July 1, 2020
प्रश्न यही उठता है कि आखिर समावेशीकरण की प्रक्रिया में हिन्दू, हिन्दू हित, हिन्दू पहचान, हिन्दू प्रतीक यह सब पीछे क्यों छूट जाते हैं? बांग्लादेश और पाकिस्तान में होने वाले हिन्दू उत्पीड़न क्यों यूएन में स्थान नहीं पा पाते हैं? वैश्विक विमर्श में हिन्दुओं की सांस्कृतिक पहचान और सांस्कृतिक प्रतीकों को वह स्थान क्यों नहीं मिलता जो अन्य को सहज प्राप्त हो जाता है?
पश्चिम हिन्दुओं के प्रति इतना भेदभाव परक दृष्टिकोण अभी तक क्यों रखे हुए है, यह भारत की तमाम उपलब्धियों के बीच भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है!
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