वर्ष 2020 में शिंजो आबे ने जब प्रधानमंत्री पद से स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा दिया तो यह जापान के इतिहास में एक निर्णायक घटना थी। पहली तो यह कि शिंजो आबे ने जापान के इतिहास का सबसे लंबा प्रधानमंत्री कार्यकाल पूरा किया था। और दूसरी बात यह कि प्रधानमंत्री रहते हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के जापान की आत्मचेतना को भी बदलने का कार्य किया था। एक महान राजनीतिक विरासत वाले परिवार से आने वाले शिंजो आबे जिनके नाना और दादा दोनों ने ही जापान के प्रधानमंत्री पद का निर्वहन किया था, उनकी स्वयं की राजनीतिक विरासत भी बेहद शानदार रही। इस बात का प्रमाण यह है कि शिंजो ने 6 चुनाव लड़े और जीते। जापान में चुनावों की प्रक्रिया को समझने वाले यह जानते हैं कि वह चुनाव जीतना अपने दल और जनता दोनों में अपनी स्वीकार्यता को साबित करने का प्रमाण होता है।
आज सुबह जब शिंजो आबे पर गोली चलने की बात सामने आयी तो दुनिया भर में लोकतन्त्र के तलबगार और हिमायती लोगों को सदमा लगा। शाम होते होते यह भी खबर आ गयी कि शिंजो अब इस दुनिया में नहीं रहे। जिस व्यक्ति ने अपने देश को आर्थिक संकट से निकालने लिए एक स्पष्ट योजना रखी और उसका क्रियान्वयन किया, जिसने अपने देश में चल रहे मानव संसाधन के संकट से उबरने के लिए देश की महिलाओं पर भरोसा किया और उन्हें नीति बनाकर कार्यक्षेत्र में ले आए। शिंजो आबे वह नेता रहे जिन्होंने अपने देश के लिए यह तय किया कि अब जापान बिना सेना के नहीं रहेगा। संवैधानिक रूप से बाध्य होने के बावजूद आबे ने पुरजोर प्रयास करके सैन्य क्षमता और सैन्य क्षेत्र में कार्य करने का भी बीड़ा उठाया। उनका यह कार्य अभी भी प्रगति पथ पर ही है, किन्तु यह उनका जीवट ही है कि आज जापान में इस बात का विमर्श खड़ा हो पाया है कि जापान को अपनी सैन्य क्षमता पर काम करना ही होगा।
आबे कि दृष्टि एशिया को लेकर स्पष्ट रही। वे एक वृहदतर एशिया का स्वरूप देखते थे। उन्होंने बराक ओबामा से अपनी मुलाक़ात में एक बार कहा था कि जापान टायर- टू देश नहीं है और न ही कभी होगा। जापान एशिया के उत्थान में अपनी ज़िम्मेदारी समझता है, और अब समय आ गया है कि एशिया में साझा नियम कानून और मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए अपनी अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन किया जाए। आबे ने यह समझा कि जापान का एशियावाद भारत की साझेदारी के बिना अधूरा होगा। आबे को इस बात का एहसास था कि वही भारत है जहां से सुभाष चन्द्र बोस जापान आते हैं और उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में एक वृहद एशिया के निर्माण के लिए जापान के साथ साझीदारी करते हैं। आबे ने यह भी समझा कि भारत अपनी साझेदारी को हमेशा निभाता भी है, जैसा कि जस्टिस राधा बिनोद पाल ने किया जब दुनिया भर के बड़े बड़े जज जापान के खिलाफ बोल रहे थे तो भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए जस्टिस राधा बिनोद पाल अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो दूसरे विश्व युद्ध के अपराधों के लिए केवल जापान को ही जिम्मेदार ठहराने के खिलाफ मुखरता से खड़े रहे। आबे ने भारत- जापान साझेदारी की इस ऐतिहासिक विरासत को समझा। तभी तो 2007 में भारत की संसद में बोलते हुए प्रधानमंत्री आबे ने दुनिया के सामने इंडो- पैसिफिक यानि हिन्द-प्रशांत की अवधारणा को रखा। उन्होंने इस अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए ‘मुक्त और खुले हिन्द-प्रशांत क्षेत्र’ (एफ़ओआईपी) की संकल्पना भी रखी। जिसमें भारत को प्रमुख स्थान दिया गया। आबे प्रधानमंत्री बनने के पश्चात पहले ही वर्ष में भारत के दौरे पर आए जो उनके भारत को लेकर रुख को स्पष्ट करता है। 2015 में जब वह भारत आए तो देश के नामी विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने प्रधानमंत्री आबे को मानद डॉक्टरेट की उपाधि भी प्रदान की।
भारत की ओर से भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपना दायित्व संभालने के बाद भारत जापान सम्बन्धों में एक उत्थान दिखने लगा। भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ में जापान की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी। इस साझेदारी की अहम बात यह थी कि मोदी और आबे अनौपचारिक रूप से भी एक-दूसरे से मित्रवत हुए। दोनों नेताओं ने क्योटो- काशी परियोजना के माध्यम से इस बात तसदीक भी की। बात चाहे औद्योगिक कॉरिडॉर बनाने की हो, आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने की हो, पूर्वांचल के क्षेत्र में अवसंरचना विकास साझेदारी की बात हो या बुलेट ट्रेन की हो, मोदी- आबे की साझेदारी ने दुनिया के सामने द्विपक्षीय साझेदारी की एक मिसाल कायम की। कितने ही मुद्दे थे जो दशकों से लंबित पड़े थे, जिसे इन नेता द्वय ने सुलझाया। ऐसा ही एक मुद्दा था भारत और जापान के मध्य असैन्य परमाणु समझौता- इस समझौते में यह पेंच बार- बार फंस जा रहा था कि भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों पर ही निर्भर रहना था। इस मुद्दे को सुलझाकर दोनों नेताओं ने अपने देशों को एक-दूसरे के और करीब ला दिया।
शिंजो की हत्या केवल जापान के लिए ही शोक का विषय नहीं है, बल्कि भारत और पूरी दुनिया ने एक ऐसा नेता खो दिया है जिसने लोकतन्त्र को वैश्विक पटल पर ले जाने के लिए, जापान को फिर से एक ज़िंदा देश बनाने के लिए और इस सदी को एशिया की सदी बनाने के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वद्यालय में शोधार्थी हैं)
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