दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले सेंट स्टीफंस कॉलेज से कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी, पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल, शशि थरूर, मणिशंकर अय्यर, सीताराम येचुरी जैसे राजनेताओं सहित बरखा दत्त, स्व. खुशवंत सिंह जैसे पत्रकारों ने शिक्षा ग्रहण की है। ऐसा लगता है कि अपने पूर्व विद्यार्थियों की सेक्युलर विचारधारा से कॉलेज के कर्ताधर्ता कुछ अधिक ही प्रभावित हो चुके हैं तभी पाठ्यक्रम में दाखिले को लेकर ये मनमानी पर उतर आये हैं।
दरअसल, सेंट स्टीफंस कॉलेज अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त महाविद्यालय है और यहाँ अल्पसंख्यकों के लिये 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। यहाँ दाखिले कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (सीयूईटी) के माध्यम से करने का आदेश दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर से दिया जा चुका है किन्तु अल्पसंख्यकों को अधिक संख्या में भर्ती करने की लालसा से कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रबंधन के बीच तलवार खिंच गई है और मामला न्यायालय में चला गया है। सेंट स्टीफंस कॉलेज ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दिल्ली विश्वविद्यालय के उस आदेश के खिलाफ एक याचिका दायर की है जिसमें उसने अपना प्रवेश विवरण वापस लेने और सीयूईटी के माध्यम से प्रवेश की अनुमति दी थी। यह कदम दिल्ली विश्वविद्यालय में एक कानून के छात्र द्वारा एक जनहित याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के बाद आया है जिसमें आरोप लगाया गया है कि कॉलेज चयन समिति के तहत साक्षात्कार के लिए अपनी 15 प्रतिशत वेटेज योजना के माध्यम से डीयू के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करता है।
दरअसल, सेंट स्टीफंस दिल्ली विश्वविद्यालय का एकमात्र कॉलेज है जो ऐतिहासिक रूप से कट-ऑफ के फिल्टर को एक साक्षात्कार के साथ पूरा करता रहा है और आवेदकों में से अपने छात्रों का चयन करता है। कॉलेज द्वारा 2022-2023 में दाखिले के लिए जारी किए गए प्रॉस्पेक्टस में कहा गया है कि सीयूईटी पात्रता मानदंड के रूप में काम करेगा जिसमें 85 प्रतिशत वेटेज होगा और सीयूईटी के आधार पर शॉर्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों के लिए आयोजित इंटरव्यू में 15 प्रतिशत वेटेज होगा। इसका सीधा सा आशय है कि कॉलेज प्रबंधन 50 प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटे से भी संतुष्ट नहीं है और अधिक से अधिक अल्पसंख्यकों को दाखिला देकर सामान्य वर्ग को शिक्षा के अधिकार से वंचित करना चाहता है।
गौरतलब है कि सेंट स्टीफंस कॉलेज पर पूर्व में भी ईसाईयों के तुष्टिकरण के आरोप लग चुके हैं। ईसाई आवेदकों के साक्षात्कार के मामले में 2019 में कॉलेज के तीन शिक्षक ईसाई छात्रों के साक्षात्कार पैनल का हिस्सा बनने के लिए कॉलेज की सर्वोच्च परिषद द्वारा नामित सदस्य की नियुक्ति को चुनौती देने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय चले गए थे। हालांकि, उच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप करने और स्टे देने से इनकार कर दिया था। 1980 में कॉलेज की अल्पसंख्यक स्थिति, उसकी साक्षात्कार प्रक्रिया और क्या कॉलेज को ईसाइयों के लिए सीटें अलग रखने की अनुमति है; पर सुप्रीम कोर्ट में विचार-विमर्श हुआ था।
सेंट स्टीफंस कॉलेज का 95 प्रतिशत अनुदान भारत के करदाताओं द्वारा दिए गए कर से आता है। इन 95 प्रतिशत करदाताओं में बड़ी संख्या सामान्य वर्ग के करदाताओं की है। फिर इस कॉलेज को अल्पसंख्यक दर्जा क्यों? बड़ी बात यह भी है कि कॉलेज की साक्षात्कार प्रक्रिया में भी ईसाईओं का वर्चस्व है। क्या सेंट स्टीफेंस इटली में हैं जहाँ ईसाई बहुलता में हैं? नहीं। यह महाविद्यालय भारत में है तो यहाँ का ईसाईकरण क्यों? क्यों यहाँ दिल्ली विश्वविद्यालय के नियम नहीं माने जा रहे? स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी शिक्षा में अल्पसंख्यक दर्जा क्यों? प्रश्न कई हैं किन्तु उत्तर एक भी नहीं। संभव है कि कॉलेज के ईसाईकरण के चलते कईयों की राजनीतिक दुकानदारी चल रही हो। सेंट स्टीफेंस कॉलेज शिक्षा के अधिकार की संवैधानिकता की वैधता को भी चुनौती देता है। क्या शिक्षा का अधिकार मात्र अल्पसंख्यकों के पास है? जब समानता का अधिकार है तो शिक्षा में सभी को समान अवसर का अधिकार क्यों नहीं? क्या आजादी के अमृत महोत्सव अर्थात 75 वर्षों के बाद भी सरकार शिक्षा से अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त नहीं कर सकती? इस अल्पसंख्यक दर्जे के कारण एक तो स्थानीय बहुसंख्यक आबादी शिक्षा के अधिकार से वंचित हो रही है वहीं वास्तविक अल्पसंख्यकों को लाभ न के बराबर मिल रहा है। दूसरे अल्पसंख्यक वर्ग के विरुद्ध गुस्सा भी पनप रहा है जो भारत के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।
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