पीएफआई ने देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अपनी जड़ें जमा ली हैं। इसके कई आतंकी संगठनों से संबंध हैं। देश में आतंकवाद और दंगे फैलाने के लिए यह गुट विदेशों से पैसे इकट्ठा कर हवाला के जरिये भारत भेजता है
करौली, खरगौन, जहांगीरपुरी, कानपुर— ये अलग-अलग राज्यों के शहर या इलाके हैं। पर इनमें कई समानताएं हैं। पहली, इन स्थानों पर इस्लामिक कट्टरपंथियों ने हिंसा का नंगा नाच किया। दूसरी, हिंसा एकतरफा, सुनियोजित थी और बिना किसी उकसावे के मस्जिदों से शुरू हुई। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण समानता यह है कि चारों दंगों का सूत्रधार या मास्टरमाइंड पॉपुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआई) था। यह तो महज चार ताजा उदाहरण हैं। पीएफआई आजादी के पहले और बाद में भारत में हिंसा फैलाने वाले कट्टरपंथी इस्लामिक रक्तबीजों का नया रूप है। एक तरफ पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश पर विचार चल रहा है, वहीं दूसरी ओर यह बेखौफ हो हिंसक, अलगाववादी हरकतों को अंजाम देने में जुटा है।
चीन तक से वित्तपोषण
भारत को अशांत करने की मुहिम में कई शक्तियां लगी हुई हैं। हिज्बुल मुजाहिद्दीन से लेकर इंडियन मुजाहिद्दीन तक, तमाम कट्टरपंथी संगठन विदेशी पैसे और स्थानीय सहयोग पर पनपे और फले-फूले। पीएफआई की कहानी भी अलग नहीं है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने हाल ही में पीएमएलए अदालत में एक आरोपपत्र दाखिल किया है। इसमें ईडी ने खुलासा किया है कि पीएफआई टेरर फंडिग, नागरिकता संशोधन कानून विरोधी गतिविधियों, दिल्ली दंगा और अयोध्या में विवादित ढांचे की आड़ में देश के युवाओं को भड़काने में लगा हुआ है। साथ ही, वह एनआरसी और समान नागरिक संहिता का डर दिखाकर कट्टरपंथी तत्वों को भी एकजुट कर रहा है।
यही नहीं, ईडी ने चीन के साथ पीएफआई के संबंधों का खुलासा भी किया है। केरल की एर्नाकुलम जेल में बंद पीएफआई के एक महत्वपूर्ण गुर्गे रऊफ शरीफ का बीजिंग से करीबी रिश्ता है। यह वही रऊफ शरीफ है, जो उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित युवती से सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद हिंसा फैलाने की साजिश में शामिल था। मास्क के कारोबार की आड़ में उसे चीन से एक करोड़ रुपये मिले। रऊफ ओमान की एक मुखौटा कंपनी रेस इंटरनेशनल का कर्मचारी रह चुका है। इस कंपनी के चार निदेशक हैं, जिनमें दो चीनी और दो केरल के एनआरआई हैं। 2019 और 2020 में रऊफ चीन भी गया था। चीन से उसके खाते में मोटी रकम डाली गई। माना जाता है कि यह राशि पीएफआई को दी गई।
सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी आफ इंडिया (एसडीपीआई) पीएफआई का मुखौटा राजनीतिक संगठन है, जिससे कलीम पाशा जुड़ा है। पाशा बेंगलुरु दंगे में शामिल था। कांग्रेस के दलित विधायक के रिश्तेदार ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट साझा की थी। इसी पोस्ट के बहाने एसडीपीआई और पीएफआई ने बेंगलुरु को दंगे की आग में झोंक दिया था। पाशा को चीन की कंपनी जम्पमंकी प्रमोशन इंडिया प्रा. लि. से पांच लाख रुपये मिले थे। यह रकम अंशाद बसुदीन जैसे गुर्गों के खाते में पहुंची। अंशाद को उत्तर प्रदेश में आतंक रोधी दस्ते ने आईईडी और पिस्तौल के साथ गिरफ्तार किया था। पीएफआई के खाते से अंशाद को तीन लाख रुपये ट्रांसफर किए गए थे। पीएफआई ने संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, कतर, कुवैत, बहरीन और सऊदी अरब में कमेटियां बना रखी हैं, जो नकद पैसा इकट्ठा करती हैं और हवाला के जरिये पीएफआई को भारत में भेजती हैं। क्या यह केवल संयोग है कि भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नुपूर शर्मा के खिलाफ सोशल मीडिया पर अभियान इन्हीं देशों से चला।
आतंकी संगठनों से गठजोड़
पीएफआई देश में केवल दंगे ही नहीं करवा रहा, इसके तार आतंकी संगठनों से भी जुड़े हैं। अपने कैडर को तलवार चलाने और विस्फोटक तैयार करने का प्रशिक्षण देने वाले इस कट्टरपंथी संगठन के गुर्गे अब आतंकवादी संगठनों से जुड़ रहे हैं। सिमी ने भी इसी तरीके से इंडियन मुजाहिदीन नाम से संगठन खड़ा किया था। पीएफआई अब इस्लामिक स्टेट (आईएस) के लिए तो कैडर उपलब्ध करा ही रहा है, देश के अलग-अलग हिस्सों में आतंकी और अलगाववादी संगठनों से भी गठजोड़ मजबूत कर रहा है।
एक न्यूज चैनल ने हाल ही में खुफिया सूत्रों के हवाले से कई सनसनीखेज खुलासे किए थे। इसके मुताबिक, बीते साल अक्तूबर-नवंबर में जब त्रिपुरा में हिंसा हुई, तो पीएफआई ने मुसलमानों को एकजुट होकर हथियारबंद हिंसा के लिए उकसाया। यही नहीं, पीएफआई प्रतिबंधित आतंकी संगठन अंसार-अल-इस्लाम के साथ भी गठजोड़ कर चुका है। इस संगठन को 2017 में जबात फतेह अल-शाम (पूर्व में अल-नुसरा फ्रंट), अंसार अल-दीन फ्रंट, जैश अल-सुन्ना, लीवा अल-हक और नूर अल-दीन अल-जेंकी का विलय करके खड़ा किया गया। पीएफआई इस संगठन की भारत में पैर पसारने में सहायता कर रहा है। सीरिया, इराक और अफगानिस्तान तक इस्लामिक स्टेट के लिए पीएफआई ने कैडर मुहैया कराए। आईएस से जुड़ाव के चलते पीएफआई के कई लोग भारत में गिरफ्तार हो चुके हैं।
ईडी के अनुसार, पीएफआई ने एक ‘हिट स्क्वाड’ भी बनाया है। यह दस्ता देश में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए बनाया गया है। 3 दिसंबर, 2020 को इस दस्ते के जरिये पीएफआई ने आतंकी हमले का षड्यंत्र भी रचा था। लेकिन इसी बीच ईडी का छापा पड़ गया। ईडी को कुछ ऐसे दस्तावेज भी मिले हैं, जो यह खुलासा करते हैं कि कर्नाटक में चल रहा हिजाब विवाद भी पीएफआई की देन है। उधर, असम पुलिस ने दावा किया है कि पीएफआई का बांग्लादेश के इस्लामिक आतंकी समूह अंसारुल्लाह बांग्ला टीम (एबीटी) से भी गठजोड़ हो चुका है। एबीटी अलकायदा को अपना आदर्श मानता है। हाल ही में असम पुलिस ने बरपेटा जिले से 15 आतंकियों को गिरफ्तार कर एबीटी के एक मॉड्यूल का खुलासा किया था। ये सभी एबीटी से जुड़े थे। इनमें से एक हुसैन पीएफआई बरपेटा जिला इकाई का अध्यक्ष था। असम पुलिस अब तक पीएफआई के खिलाफ 16 मामले दर्ज कर चुकी है। कुल मिलाकर पीएफआई अब पूर्वोत्तर में अपनी राजनीतिक इकाई एसडीपीआई को सक्रिय करने की कोशिश कर रहा है।
कानपुर हिंसा का षड्यंत्र भी पीएफआई ने रचा था। इसका खुलासा उत्तर प्रदेश पुलिस ने 7 जून को किया। इस मामले में पुलिस ने पीएफआई के जिन तीन गुर्गों को गिरफ्तार किया, वे दिसंबर 2020 में सीएए विरोधी हिंसा में जेल जा चुके हैं
पीएफआई ने सुलगाई कानपुर की आग
कानपुर हिंसा का षड्यंत्र भी पीएफआई ने रचा था। इसका खुलासा उत्तर प्रदेश पुलिस ने 7 जून को किया। इस मामले में पुलिस ने पीएफआई के जिन तीन गुर्गों को गिरफ्तार किया, वे दिसंबर 2020 में सीएए विरोधी हिंसा में जेल जा चुके हैं। कानपुर हिंसा की जांच के दौरान मोबाइल नंबरों की सीडीआर और व्हाट्सएप चैट से इन तीनों की संलिप्ता की पुष्टि हुई है। इनके नाम हैं- बजरिया निवासी मोहम्मद उमर, फीलखाना निवासी सैफुल्ला और कर्नलगंज का मोहम्मद नसीम अहमद।
पुलिस कमिश्नर विजय सिंह मीणा के मुताबिक, तीनों हयात जफर हाशमी के संपर्क में थे और बाजार बंद व हिंसा को लेकर आपस में लगातार बातचीत कर रहे थे। हाशमी के तार पीएफआई और अन्य राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं। अब उसके मोबाइल से नया खुलासा हुआ है। उसने 141 व्हाट्सएप समूह बनाए थे, जिनमें बाजार बंद और हिंसा को लेकर बातचीत होती थी। इन समूहों द्वारा हिंसा के दिन का हर पल का अपडेट दिया जा रहा था। दंगाइयों में से कोई मौके के वीडियो डाल रहा था तो कोई फोटो और संदेश भेज रहा था। हयात जफर इन समूहों के माध्यम से बाजार बंद कराने के लिए निर्देश दे रहा था।
एसडीपीआई से पीएफआई का संबंध
पीएफआई खुद को सामाजिक संगठन कहता है, लेकिन भारत में शरिया राज कायम करने के लिए इसने 21 जून, 2009 को एसडीपीआई को खड़ा किया, जिसे यह राजनीतिक संगठन बताता है। सिमी ने जो गलतियां की थीं, पीएफआई उन्हें दोहराना नहीं चाहता। उसके कैडर को याद है कि कैसे जमात ने उससे दामन छुड़ाया और फिर कैसे पुलिस ने रिकॉर्ड के जरिये उसके एक-एक गुर्गे को गिरफ्तार किया। इसलिए पीएफआई अपने कैडर का कोई रिकॉर्ड नहीं रखता। इसलिए उसके किसी भी कैडर की गिरफ्तारी के बाद जांच एजेंसियों को उस घटना से पीएफआई से जोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। एसडीपीआई दोहरी सदस्यता वाला संगठन है। पीएफआई के गुर्गे एसडीपीआई के भी सदस्य होते हैं, लेकिन यदि कोई राजनीतिक गतिविधियों में नहीं जाना चाहता, तो वह बस पीएफआई का सदस्य रह सकता है। 13 अप्रैल, 2010 को चुनाव आयोग ने इसे पंजीकृत पार्टी का दर्जा दिया था।
कर्नाटक में एसडीपीआई की सक्रियता
कर्नाटक के मुस्लिम बहुल इलाकों में एसडीपीआई बहुत सक्रिय है। इसका ध्यान स्थानीय निकाय चुनाव पर अधिक रहता है। 2013 के निकाय चुनाव में एसडीपीआई ने 21 सीटों पर जीत दर्ज की, जो 2018 तक बढ़कर 121 हो गई। 2021 आते-आते इसने उडुपी जिले की तीन निकायों पर कब्जा कर लिया। 2013 विधानसभा विधानसभा चुनाव में इसने पहली बार 23 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन एक सीट को छोड़कर सभी जगह इसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। इसी तरह, लोकसभा चुनाव में एसडीपीआई ने केरल में 20, बंगाल में 4, तमिलनाडु में 2 और कर्नाटक व मध्य प्रदेश में एक-एक सीट पर उम्मीदवार उतारे। लेकिन एसडीपीआई को जल्द समझ आ गया कि चुनाव में उसके उतरने से मुसलमानों के वोट बंट जाते हैं।
2019 में उसने 14 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन भाजपा को हराने के लिए अधिकतर सीटों पर दूसरे दलों के लिए वोटों का धु्रवीकरण कराया। कर्नाटक में तो इसने खुलकर कांग्रेस का प्रचार किया था, जिसका उसे इनाम भी मिला था। दरअसल, 2013 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद जब सिद्धारमैया की अगुआई में कांग्रेस की सरकार बनी तो एसडीपीआई और पीएफआई के करीब 1600 गुर्गों पर चल रहे 176 मुकदमे वापस ले लिए गए। इन पर भाजपा सरकार के दौरान सांप्रदायिक उन्माद फैलाने को लेकर मामले दर्ज किए गए थे। एसडीपीआई का केरल में कांग्रेस के साथ सितंबर 2019 तक राजनीतिक गठजोड़ था। यानी जब राहुल गांधी वायनाड से सांसद चुने गए, तो एसडीपीआई या साफ कहें तो पीएफआई का उन्हें समर्थन हासिल था।
क्या है पीएफआई?
भारत में हिंसा के जरिये इस्लामिक सत्ता कायम करने का दावा करने वाले स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) पर 2002 में प्रतिबंध लगा तो इसका कैडर अलग-अलग संगठनों में बिखर गया। पीएफआई उसी सिमी का नया रूप है, जिसका गठन 17 फरवरी, 2007 को दक्षिण भारत के तीन मुस्लिम संगठनों के विलय से हुआ। इनमें केरल का नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट, कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी और तमिलनाडु का मनिथा नीति पसराई नामक संगठन शामिल थे। पीएफआई का दावा है कि वर्तमान में यह 23 राज्यों में सक्रिय है। इसकी कई शाखाएं भी हैं, जिनमें महिलाओं के लिए नेशनल वीमेंस फ्रंट और विद्यार्थियों के लिए कैम्पस फ्रंट आफ इंडिया जैसे संगठन शामिल हैं।
सिमी के जो सदस्य अलग-अलग संगठनों में बंट गए थे, वे भी धीरे-धीरे पीएफआई के बैनर तले आने लगे। इसी क्रम में अन्य राज्यों में जिन संगठनों का पीएफआई में विलय हुआ, उनमें गोवा सिटिजन्स फोरम, राजस्थान की कम्युनिटी सोशल एंड एजुकेशनल सोसाइटी, पश्चिम बंगाल की नागरिक अधिकार सुरक्षा समिति, मणिपुर का लिलोंग सोशल फोरम और आंध्र प्रदेश की एसोसिएशन आफ सोशल जस्टिस शामिल हैं। पीएफआई के कई अनुषंगिक संगठन भी हैं। इनमें रिहैब इंडिया फाउंडेशन, इंडियन फर्टिनिटी फोरम, कन्फेडरेशन आफ मुस्लिम इंस्टीट्यूशन्स इन इंडिया, मुस्लिम रिलीफ नेटवर्क (एमआरएन) और सत्य सारानी-मरकज-उल-हिदाया शामिल हैं।
टिप्पणियाँ