राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक संस्कार भारती के संस्थापक पद्मश्री बाबा योगेन्द्र का देहावसान 10 जून 2022, शुक्रवार (भीमसेन निर्जल एकादशी) को लखनऊ स्थित डॉ राममनोहर लोहिया अस्पताल में प्रातः 8:00 बजे हो गया। गङ्गा दशहरा व एकादशी के सन्धिकाल में महाप्रयाण करना प्रत्यक्ष मोक्ष है।
संघर्षमय प्रारंभिक जीवन, योगेन्द्र जी का जन्म 7 जनवरी, 1924 को बस्ती, उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध वकील बाबू विजय बहादुर श्रीवास्तव के घर में हुआ था। योगेन्द्र जी के सिर से दो वर्ष की अवस्था में ही मां का साया उठ गया। फिर उन्हें पड़ोस के एक परिवार में बेच दिया गया। इसके पीछे यह मान्यता थी कि इससे बच्चा दीर्घायु होगा। उस पड़ोसी मां ने ही अगले दस साल तक उन्हें पाला। पिता जी वकील साहब कांग्रेस और आर्यसमाज से जुड़े थे।
नानाजी देशमुख ने बनाया था संघ का स्वयंसेवक
जब मोहल्ले में संघ की शाखा लगने लगी तो उन्होंने योगेन्द्र को भी वहां जाने के लिए कहा। छात्र जीवन में उनका सम्पर्क गोरखपुर में संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख से हुआ। योगेन्द्र जी यद्यपि सायं शाखा में जाते थे, पर नानाजी प्रतिदिन प्रातः उन्हें जगाने आते थे, जिससे वे पढ़ सकें। एक बार तो तेज बुखार की स्थिति में नानाजी उन्हें कन्धे पर लादकर डेढ़ किमी पैदल चलकर पडरौना गए और उनका इलाज कराया। इसका प्रभाव योगेन्द्र जी पर इतना पड़ा कि उन्होंने शिक्षा पूर्ण कर स्वयं को संघ कार्य के लिए ही समर्पित करने का निश्चय कर लिया।
1942 में लखनऊ में प्रथम वर्ष ‘संघ शिक्षा वर्ग’ का प्रशिक्षण करने के बाद 1945 में योगेंद्र प्रचारक बने। संघ शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष करने के बाद सबसे पहले बस्ती का तहसील प्रचारक बनाया गया। इसके बाद महराजगंज व पड़रौना में तहसील प्रचारक रहे। वे प्रयागराज, बहराईच, बरेली, बदायूं, हरदोई और सीतापुर में जिला प्रचारक रहे। 1975 में जब आपातकाल लगा उस समय सीतापुर के विभाग प्रचारक थे। देश-विभाजन को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा था। संघ शिक्षा वर्ग में उन्होंने एक प्रदर्शनी बनाई। जिसने भी यह प्रदर्शनी देखी, वह अपनी आंखें पोंछने को मजबूर हो गया। फिर तो ऐसी प्रदर्शिनियों का सिलसिला चल पड़ा। शिवाजी, धर्म गंगा, जनता की पुकार, जलता कश्मीर, संकट में गोमाता, 1857 के स्वाधीनता संग्राम की अमर गाथा, विदेशी षड्यन्त्र, मां की पुकार…आदि ने संवेदनशील मनों को झकझोर दिया। ‘भारत की विश्व को देन’ नामक प्रदर्शिनी को विदेशों में भी प्रशंसा मिली।
अन्तःकरण के शब्द को जब संघ नेतृत्व ने स्वर दिया
शीर्ष नेतृत्व ने योगेन्द्र जी की इस प्रतिभा को देखकर 1981 ई. में ‘संस्कार भारती’ संगठन का निर्माण कर उसका कार्यभार उन्हें सौंप दिया। योगेन्द्र जी के अथक परिश्रम से आज यह संगठन सामाजिक दायित्वबोध एवं राष्ट्रप्रेम से युक्त कला-साधकों की वैश्विक अग्रणी संस्था बन गई है। बात 1992 की है उन दिनों मैं ( योगेन्द्र मिश्र) प्रोफेसर विद्यानिवास मिश्र जी के निर्देशन में शोध छात्र था। काशी में संस्कार भारती का राष्ट्रीय अधिवेशन था। मुख्य अतिथि अटलबिहारी वाजपेयी जी थे। सायं को कवि सम्मेलन था। अटल जी विजया प्रेमी थे। ठंडई पीकर उन्होंने जो काव्यपाठ किया, बीच में बारात का कोलाहल हुआ। अटल जी मस्ती में बोले, ‘बाबा मैंने विवाह नहीं किया है, मगर बारातें बहुत की हैं।’
काशी के उस अधिवेशन ने बाबा और संस्कार भारती को एक कर दिया। बाबा की पहचान बाबा की नगरी से हुई। बाबा योगेंद्र माने संस्कार भारती, संस्कार भारती माने बाबा योगेंद्र। बाबा का फक्कड़पन, उनकी निरहंकारिता, प्रसिद्धि परांगमुखता, एक आदर्श स्वयंसेवक के रूप में सराबोर बाबा में गोलवलकर गुरूजी का छाया बिंब दृष्टिगोचर होता था। दन्तोपन्त ठेंगड़ी जी, नानाजी देशमुख जैसे सैंकड़ों वरिष्ठ पुण्यश्लोक प्रचारकों व पांच सरसंघचालकों के साथ बाबा प्राचीन व नवीन के समन्वयी पुरोधा थे। वे कला पारखी, कला साधक, कला मर्मज्ञ तो थे ही। कार्यकर्ता के प्रोत्साहक भी थे। ऐसे तपःभूत कर्मयोगी का लक्ष्मणपुरी में देह त्याग करना शेषावतार लक्ष्मण जी की कृपा के भाजक का सूचक है। मां भारती के ऐसे दिव्य पुण्यात्मा को अशेष प्रणमांजलि।
-प्रोफेसर योगेन्द्र मिश्र – (सदस्य – राजभाषा हिंदी सलाहकार समिति, नागर विमानन मंत्रालय, सदस्य – आयोजक संकल्पना समिति,
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, भारत सरकार, चयनित वक्ता, गृह मंत्रालय राजभाषा सम्मेलन (वाराणसी)
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