आयुर्वेदिक पद्धति में उपचार में तन के साथ-साथ मन के स्वास्थ्य की भी चिंता की जाती है। हर व्यक्ति के लिए उपचार की विधि अलग होती है क्योंकि हर शरीर की अपनी क्षमता, अपनी मजबूती या कमजोरी होती है। हर शरीर की अपनी प्रकृति होती है
दशकों से विश्व में रोग और उपचार के क्षेत्र में ऐलोपैथी का वर्चस्व बना हुआ है। यह ठीक है कि रोग परीक्षण और दवा अनुसंधान के क्षेत्र में ऐलोपैथी काफी उन्नत है किन्तु एक बहुत ही सशक्त और गहन ज्ञान से भरी उपचार पद्धति हजारों साल पहले से हमारी परंपरा और संस्कृति का अहम हिस्सा रही है। उपचार में आधुनिकता से ज्यादा वैज्ञानिकता मायने रखती है और आयुर्वेद जितना प्राचीन है, उतना ही वैज्ञानिक। इसे आज के लोगों को फिर से समझाने की जरूरत है। हमारे जिन प्रबुद्ध ऋषि-मुनियों ने इस चिकित्सा प्रणाली का आविष्कार किया, उनके ज्ञान को उन तत्वों को बारीकी से देखते हैं जिनके आधार पर आयुर्वेद में उपचार किया जाता है तो हम उसकी वैज्ञानिकता पर हैरान हो जाते हैं कि हजारों साल पहले यह अद्भुत ज्ञान कैसे विकसित हुआ होगा।
प्राचीन चिकित्सा प्रणाली
आयुर्वेद भारतीय उपमहाद्वीप की एक प्राचीन चिकित्सा प्रणाली है। माना जाता है कि इसका जन्म भारत में 5000 साल पहले हुआ। शब्द का अर्थ देखें तो वह शास्त्र या विज्ञान जो आयु का ज्ञान कराए, उसे आयुर्वेद कहते हैं। सुश्रुत ने कहा है कि ‘जिसमें या जिसके द्वारा आयु प्राप्त हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं।’ भावमिश्र ने भी ऐसा ही लिखा है। चरणव्यूह के अनुसार यह ऋग्वेद का उपवेद है परन्तु सुश्रुत के लिखे आयुर्वेद ग्रन्थों के अनुसार यह अथर्ववेद का उपवेद है। चरक संहिता के अनुसार ऋग, साम, यजु, अथर्व इन चारों वेदों में से जिस वेद को आधार मानकर आयुर्वेद के विद्वानों ने यह ज्ञान परंपरा समाज को सौंपी है, वह अथर्ववेद है। सुश्रुत संहिता में लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले-पहल एक लाख श्लोकों का ‘आयुर्वेद शास्र’ बनाया, जिसमें एक हजार अध्याय थे। प्रजापति ने इन्हीं अध्यायों से अध्ययन किया। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने, इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुश्रुत मुनि ने यह ज्ञान हासिल करके आयुर्वेद की रचना की।
मन का भी उपचार
आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली में शरीर का इलाज करते समय मन की स्थिति के उपचार की बात कही गई है और उसके लिए मंगल, होम, नियम, प्रायश्चित, उपवास और मन्त्र आदि के विधान अथर्ववेद से लिए गए हैं। आयुर्वेद मानता है कि पूरा ब्रह्मांड पांच तत्वों से मिलकर बना है: वायु, जल, आकाश, पृथ्वी व अग्नि, जिन्हें पंच महाभूत नाम दिया गया है। मनुष्य के शरीर को भी पांच तत्वों से बना हुआ माना गया है। शरीर के अंदर सात धातुएंं पाई जाती हैं: रस (प्लाज्मा), रक्त, मांसपेशियां, वसा, मेद, अस्थि, मज्जा (बोन मैरो) और शुक्र (रिप्रोडक्टिव टिश्यू) धातुएं शरीर को केवल बुनियादी पोषण प्रदान करती हैं।
मनुष्य के शरीर में तीन दोष होते हैं-पित्त दोष, वात दोष व कफ दोष। शरीर के दोषों का मुख्य कार्य भोजन को सही तरीके से पचाना है जिससे पोषक तत्व खून के प्रवाह में मिलकर शरीर को पुष्ट रखें और ऊतकों का निर्माण सही तरीके से हो। इन दोषों में कोई भी असंतुलन बीमारी का कारण बनता है।
क्या है आयु
आयुर्वेद में जीवन का अर्थ शरीर, इंद्रियों, मन और आत्मा का एक समन्वित स्वरूप है। आयुर्वेद के आचार्यों ने ‘शरीर, इंद्रिय, मन और आत्मा के संयोग’ को आयु कहा है। आयु को चार वर्गों में बांटा गया है :
(1) सुखायु – जब किसी व्यक्ति की काया किसी भी प्रकार के शारीरिक या मानसिक रोग से मुक्त हो और वह व्यक्ति हर तरह से सुखी और समृद्ध हो तो उसकी आयु को ‘सुखायु’ कहते हैं।
(2) दुखायु – वह व्यक्ति जिसके पास समस्त तरह के साधन हों लेकिन वह शरीरिक या मानसिक रोग से पीड़ित हो, या वह निरोग तो हो लेकिन साधनहीन हो, तो ऐसे व्यक्ति की आयु को दुखायु कहते हैं।
(3) हितायु – जिस व्यक्ति के पास स्वास्थ्य हो और साधन भी, या वह व्यक्ति जो कुछ अभावों के बीच भी विवेक, सदाचार, उदारता, सत्य, अहिंसा, का पालन करे, तो उसकी आयु को हितायु कहते हैं।
(4) अहितायु – जो व्यक्ति अविवेक, दुराचार, क्रूरता, स्वार्थ, घमंड, अत्याचार आदि बुराइयों से भरा हो, उसकी आयु को अहितायु कहते हैं।
हर व्यक्ति का अलग उपचार
आयुर्वेद की निदान प्रणाली में रोगी व्यक्ति के पूरे व्यक्तित्व का अध्ययन किया जाता है। चिकित्सक रोगी की आंतरिक शारीरिक विशेषताओं और मानसिक स्वभाव का विश्लेषण करके उपचार शुरू करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति की जीवन शक्ति, उसकी दिनचर्या, आहार की आदतें, पाचन की स्थिति और उसकी व्यक्तिगत, सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिति के बारे में भी अध्ययन किया जाता है। इस उपचार को कई भागों में वर्गीकृत किया गया है।
शोधन: इस प्रक्रिया में शारीरिक और मानसिक रोगों को पैदा करने वाले कारकों को खत्म किया जाता है। इसके सामान्य उपचारों में शामिल हैं पंचकर्म, पूर्व-पंचकर्म क्रियाएं।
शमन: इस चिकित्सा में बिगड़े देहद्रव या दोषों को खत्म किया जाता है। वह प्रक्रिया जिससे बिगड़ा देहद्रव सामान्य स्थिति में लौट आता है, शमन कहलाती है। यह उपचार भूख तेज करने वाले भोजन, पाचकों, व्यायाम, और धूप तथा ताजी हवा के जरिये किया जाता है। इसमें पैलिएटिव तथा नींद की औषधि का उपयोग भी किया जाता है।
शारीरिक बीमारी को दूर करने के क्रम में मन को भी स्वस्थ किया जाता है
पथ्य व्यवस्था: इसके तहत मुख्यत: आहार से उपचार किया जाता है। आहार में वैसी चीजों का इस्तेमाल किया जाता है जो शरीर में डेरा जमाए बैठे विकार को बढ़ने से रोकता है, उसका शमन करता हो। इसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि पाचन क्रिया सही तरीके से हो।
आहार का बड़ा महत्व
आयुर्वेद में चिकित्सा के रूप में आहार के विनियमन का बड़ा महत्व है। ऐसा इसलिए है कि इसमें मानव शरीर को भोजन के उत्पाद के रूप में समझा जाता है। एक व्यक्ति के मानसिक और आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ उसका स्वभाव उसके द्वारा लिए गए भोजन की गुणवत्ता से प्रभावित होता है। मानव शरीर में भोजन पहले कैल या रस में तब्दील हो जाता है और फिर आगे की प्रक्रियाओं से उसका रक्त, मांसपेशी, वसा, अस्थि, अस्थि-मज्जा, प्रजनन तत्वों और ओजस में रूपांतरण शामिल है।
इस प्रकार, भोजन सभी चयापचय परिवर्तनों और जीवन की गतिविधियों के लिए बुनियादी आधार है। भोजन में पोषक तत्वों की कमी या भोजन का अनुचित परिवर्तन विभिन्न किस्म की बीमारी की स्थितियों में परिणत होता है। आयुर्वेदीय चिकित्सा विधि शरीर को सभी प्रकार से स्वस्थ रखने की पद्धति है। इसमें व्यक्ति की शारीरिक तथा मानसिक दोनों ही स्थितियों के रोगों का उपचार किया जाता है। इस पद्धति में जड़ी-बूटियों, पौधों, फूलों और फलों आदि से प्राप्त औषधियों के जरिए व्यक्ति का उपचार किया जाता है। ऋग्वेद में 67 पौधों, जबकि अथर्ववेद और यजुर्वेद में क्रमश: 293 व 81 औषधीय पौधों का जिक्र है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में इन वेदों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर औषधियां तैयार की जाती हैं। आयुर्वेद मानता है कि ‘न अनौषधं जगति किंचित द्रव्यम् उपलभ्यते।’ (चरकसंहिता, सूत्रस्थान, अध्याय २६, श्लोक १२)
यानी दुनिया में ऐसा कोई द्रव्य नहीं है, जिसका औषधि के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता हो। आयुर्वेद ने वनस्पतियों के मनुष्य शरीर पर होने वाले परिणामों के आधार पर उनके गुणों के बारे में बताया है और इस तरह सेहतमंद जीवन जीने की कुंजी लोगों को थमाई है। व्यावहारिक रूप से आयुर्वेदिक औषधियों का कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। अनेक पुराने रोगों के लिए आयुर्वेद विशेष रूप से प्रभावी है।
उपचार में आधुनिकता से अनिवार्य होती है वैज्ञानिकता और इस मामले में आयुर्वेद सौ प्रतिशत
खरा है। जरूरत इसे मुख्यधारा
में लाने की है
यह न केवल रोगों की चिकित्सा करता है बल्कि रोगों को पनपने से भी रोकता है। इसमें स्वाभाविक तौर पर भोजन और जीवनशैली में आसान बदलाव करके रोगों को दूर रखने के उपाय बताए जाते हैं। आयुर्वेद शरीर के रोगों के मूल कारणों की खोज कर उसका इलाज करता है। इसमें शरीर की प्रकृति यानी कफ, पित्त और वात के आधार पर वनस्पतियों का चुनाव करके उससे बनी औषधि रोगी को दी जाती है। इसलिए कोई बुरा असर नहीं पड़ता। ये औषधियां शरीर और मन पर असर डालती हैं जिससे आमूल स्वास्थ्य लाभ होता है। जहां एलोपैथी दवाइयां रोग को जड़ से दूर नहीं करतीं, वहीं आयुर्वेद रोगों की मूल वजह को खंगालकर उसका इलाज करता है और उसकी रोकथाम भी सुनिश्चित करता है।
जब व्यक्ति रोग से ग्रस्त होता है, तब उसके शरीर की प्राणशक्ति यानी इम्यून सिस्टम रोग से लड़ने की कोशिश करता है। रोग के कारण प्रभावित रज-तम गुणों में होने वाली वृद्धि से उसकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षमता कम होने लगती है। आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली में जीव की प्राणशक्ति को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाता है। यही उसके शरीर को स्वाभाविक रूप से स्वस्थ करता है और उसके ऊपर कोई नुकसानदायी प्रभाव भी नहीं पड़ता। वर्तमान आधुनिक चिकित्सा और प्रौद्योगिकी पद्धति में मनुष्य का ध्यान सिर्फ अपनी काया पर ही केंद्रित रहता है। इसलिए सिर्फ उसकी काया ही स्वस्थ होती है। उसके अंदर की प्राणशक्ति को न तो कोई औषधि मिलती है, न कोई पोषण। जबकि आयुर्वेद चिकित्सकीय पद्धति में प्रार्थना, मंत्र, पथ्य जैसी उपचार शैलियों से व्यक्ति में ‘मैं और मेरा शरीर अलग है’, भाव पैदा होता है जो उसकी काया, मन और विचारों को भी स्वस्थ बनाता है।
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