देश में ध्वनि प्रदूषण की स्थिति अत्यन्त गंभीर है। एक रिपोर्ट बताती है कि ध्वनि प्रदूषण पर रोक नहीं लगी तो 2030 तक 13 करोड़ लोग न सुन पाने की समस्या से ग्रस्त हो जाएंगे। कोलाहल हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह और विभिन्न मानसिक रोगों का भी कारक है। जरूरत है सरकार, नागरिक संगठनों को एकजुट होकर इस शोर पर नियंत्रण पाने की
गत माह संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी ने एक रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा किया। यूनाइटेड नेशंस एनवायरनमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की ओर से जारी वार्षिक ‘फ्रंटियर रिपोर्ट 2022’ में बताया गया कि भारत में 6.3 करोड़ जनसंख्या ऐसी है, जो सुनाई नहीं देने की समस्या से पीड़ित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डव्ल्यूएचओ)ने कहा है कि ध्वनि प्रदूषण की वजह से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। ध्वनि प्रदूषण की वजह से भारत के युवा अपनी श्रवण क्षमता तेजी से खोते जा रहे हैं। यही हाल रहा, तो 2030 तक भारत में कम सुनने वालों की संख्या दोगुनी से ज्यादा यानी 13 करोड़ से ज्यादा हो जाएगी। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में 10 में से दो लोग ही इस समस्या का इलाज करवाते हैं और श्रवण यंत्र पहनते हैं।
दरअसल ध्वनि प्रदूषण एक धीमी गति वाला मृत्यु दूत है। इसमें तत्काल लाभ-हानि का पता नहीं चलता, इसलिए इसे आम जन में इसे गंभीर समस्या के रूप में नहीं लिया गया है। परंतु विभिन्न शोध-अनुसंधान बताते हैं कि ध्वनि प्रदूषण किस तरह मानव के साथ-साथ पूरे सृष्टि जगत पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। सवाल है कि ध्वनि प्रदूषण आखिर है क्या बला? स्पष्ट शब्दों में कहें सामान्य तीव्रता की ध्वनि को आवाज और उस तीव्रता से अधिक ध्वनि को शोर कहते हैं। यह शोर ही ध्वनि प्रदूषण है। मनुष्य सामान्य रूप से 60 डेसीबल की तीव्रता तक की ध्वनि को सुनने की क्षमता रखते हैं। इससे अधिक तीव्रता की ध्वनि लगातार सुनने पर उन्हें ऊंचा सुनने की समस्या हो सकती है।
ध्वनि प्रदूषण में उद्योगों और निर्माण कार्यों में चलने वाली मशीनों का बड़ा योगदान है। इसके अलावा परिवहन के विभिन्न साधनों की आवाजों, हॉर्न, मनोरंजन के साधनों टीवी, टेप रिकॉर्डर, रेडियो, म्यूजिक सिस्टम, आतिशबाजी और विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक रैलियों में लोगों के एकत्रण से भी ध्वनि प्रदूषण होता है।
ध्वनि प्रदूषण के खतरे
ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव से बोलने में परेशानी, चिड़चिड़ापन, नींद में व्यवधान तथा इन परेशानियों से उत्पन्न प्रभाव मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। 90 डेसीबल से अधिक की ध्वनि से श्रवण क्षीणता होती है। ध्वनि प्रदूषण के कारण लोगों में न्यूरोटिक मेंटल डिसार्डर, मांसपेशियों में तनाव तथा खिंचाव एवं स्नायुओं में उत्तेजना हो जाती है। उच्च शोर के कारण लोगों में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। इनमें उच्च रक्तचाप, उत्तेजना, हृदय रोग, आंखों की पुतलियों में खिंचाव तथा तनाव, मांसपेशियों में खिंचाव तथा तनाव, अल्सर एवं पेट के रोग, महिलाओं में गर्भपात, मनुष्य की कार्य क्षमता में कमी, व्यवहार असमान्य हो जाना आदि रोग होते हैं। एक शोध रिपोर्ट बताती है कि लंबे समय तक कोलाहल के संपर्क में रहने से स्मरण शक्ति भी क्षीण हो जाती है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश के सात प्रमुख शहरों के 10-10 स्थानों पर निरंतर ध्वनि प्रदूषण निगरानी के केंद्र स्थापित किए हैं। इन शहरों में स्थित 80 प्रतिशत केंद्रों में नियत सीमा से अधिक शोर रिकॉर्ड किया गया। एक बात और सामने आई कि वर्ष 2017 से इन शहरों में रात का शोर बढ़ रहा है।
उच्च ध्वनि प्रदूषण के कारण सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं जिससे अपघटन की क्रिया प्रभावित होती है तथा पर्यावरण संतुलन प्रभावित होता है। तीव्र ध्वनि से मनुष्यों एवं जीव-जंतुओं के लीवर एवं स्नायुतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव समुद्री जीवों, वनस्पतियों, भवन आदि पर भी पड़ता है।
ध्वनि के नियत स्तर
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूूएचओ) ने ध्वनि की उच्चता का स्तर दिन में 45 डेसीबल तक तथा रात्रि में 35 डेसीबल निश्चित किया है। भारत में विभिन्न क्षेत्रों/परिक्षेत्रों में ध्वनि का स्तर निर्धारित किया गया है। औद्योगिक क्षेत्रों में दिन में 75 डेसीबल, रात्रि में 70 डेसीबल, वाणिज्यिक क्षेत्रों में दिन में 65 डेसीबल, रात्रि में 55 डेसीबल, आवासीय क्षेत्रों में दिन में 55 डेसीबल, रात्रि में 45 डेसीबल, शांत परिक्षेत्र जैसे स्कूल, अस्पताल, न्यायालय आदि में दिन में 50 डेसीबल, रात्रि में 40 डेसीबल। यहां दिन का समय सुबह 6 से रात्रि 10 बजे तथा रात्रि का समय रात्रि 10 बजे से सुबह 6 बजे तक है। डब्लूूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार निद्रावस्था में आस-पास के वातावरण में 35 डेसीबेल से ज्यादा शोर नहीं होना चाहिए।
ध्वनि प्रदूषण की निगरानी
हालात की गंभीरता को देखते हुए भारत में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश के सात प्रमुख शहरों के 10-10 स्थानों पर निरंतर ध्वनि प्रदूषण निगरानी के केंद्र स्थापित किए हैं। इनमें दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नै, हैदराबाद, लखनऊ, कोलकाता और मुंबई शामिल हैं। इन शहरों में स्थित 80 प्रतिशत केंद्रों में नियत सीमा से अधिक शोर रिकॉर्ड किया गया। एक बात और सामने आई कि वर्ष 2017 से इन शहरों में रात का शोर बढ़ रहा है। दूसरी तरफ, संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम की एक हालिया रिपोर्ट में मुरादाबाद को भारत का सर्वाधिक ध्वनि प्रदूषण वाला शहर बताया गया है। हालांकि इस पर विवाद है क्योंकि देश में मुरादाबाद को लेकर अब तक ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं मिली है जिससे यह प्रमाणित होता हो कि मुरादाबाद में सर्वाधिक ध्वनि प्रदूषण है।
लाउडस्पीकर का मुद्दा
बीते समय में रात 10 बजे से लेकर सुबह 6 बजे तक लाउडस्पीकर पर रोक पर काफी विवाद हुआ। लाउडस्पीकर की ध्वनि 90 डेसीबल से अधिक होती है जो ध्वनि की नियत तीव्रता से अधिक है। स्पष्ट है कि नियमित लाउडस्पीकर का उपयोग आसपास रहने वालों को अन्यान्य बीमारियां देने के साथ ही बहरा भी बना रहा है। ऐसे में हर आस्तिक-नास्तिक व्यक्ति का सबसे बड़ा धर्म प्रदूषण को रोकना है, न कि आस्थास्थलों से लाउडस्पीकर हटाने पर इसे राजनीतिक मुद्दा बनाना। आस्था के नाम पर इस मृत्यु दूत का बचाव नहीं किया जा सकता। ध्वनि प्रदूषण से लोगों के स्वास्थ्य पर होने वाले गंभीर प्रभावों का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय ने जुलाई 2005 में रात 10 बजे से सुबह 6 बजे (आपात स्थिति को छोड़ कर) के बीच सार्वजनिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के उपयोग पर रोक लगा दी थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में सभी धर्म-मजहबों के आस्था केंद्रों को निर्देश दिया कि वे लाउडस्पीकर के माध्यम से उच्च डेसीबल का शोर उत्पन्न करने से बचें। पूरा देश ध्वनि प्रदूषण की गंभीरता से जूझ रहा है। इसलिए सभी राज्यों को उत्तर प्रदेश से सीख लेकर लाउडस्पीकर के उपयोग पर नियंत्रण करना चाहिए।
ध्वनि प्रदूषण रोकने के कानून
ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण के लिए भारत में जो कानून बने वह वायु प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण अधिनियम 1981 में सन 1987 में संशोधन करके ध्वनि प्रदूषण को भी वायु प्रदूषकों की श्रेणी में रख कर बनाया गया है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 6 में ध्वनि, वायु तथा जल प्रदूषकों को रोकने के लिए कानून बनाने का प्रावधान है। जिसका प्रयोग करके ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियम 2000 बनाया गया है।
विद्यमान राष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत भी ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए प्रावधान है। ध्वनि प्रदूषण को अपराध की श्रेणी में मानते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 268 तथा 290 का प्रयोग करके, पुलिस अधिनियम 1861 के अंतर्गत पुलिस अधीक्षक को अधिकृत किया गया है कि वह त्यौहारों, उत्सवों आदि में गलियों में बजने वाले संगीत एवं ध्वनि की तीव्रता को नियंत्रित कर सकें। ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए मनुष्य समाज एवं सरकार को जो उपाय करने चाहिए, उनमें से कुछ प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं –
1. अच्छी सड़कें एवं गाड़ियों का उचित रखरखाव।
2. ध्वनि अवरोधक दीवारों एवं टीकों का निर्माण
3. रेल इंजनों एवं रेल पटरियों का रखरखाव तथा बिजली से चलने वाले रेल इंजनों का प्रयोग।
4. हवाई यातायात में उचित ध्वनि अवरोधक एवं ध्वनि अवरोधक नियमों का प्रयोग।
5. तीव्र ध्वनि उत्पन्न करने वाले औजार, ध्वनि विस्तारक यंत्र जैसे लाउडस्पीकर एवं दूसरे ध्वनि विस्तारक यंत्र जैसे ध्वनि आदि का सीमित प्रयोग।
6. घने पेड़ लगाकर ध्वनि प्रदूषण को कम करना।
ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए देश के विभिन्न राज्यों सहित केन्द्र सरकार ने कानून बनाए हैं तथा न्यायालयों ने समय-समय पर आदेश दिए हैं। केन्द्र एवं राज्य सरकार इसे क्रियान्वित करें, शासन-प्रशासन, समाज एवं हर व्यक्ति का यह सामाजिक नैतिक एवं धार्मिक दायित्व है कि वह सभी प्रकार के प्रदूषण को कम करने में अपना योगदान दे। प्रदूषण को रोकना आज के समय में सबसे बड़ा धर्म है क्योंकि 2019 के एक शोध के अनुसार इस वर्ष प्रदूषण से 90 लाख लोगों की मौत हुई। हर 6 मौतों में से एक मौत प्रदूषण के कारण होती है। ध्वनि प्रदूषण सजीव-निर्जीव सब पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। अत: यह राजनीतिक और धार्मिक विवाद का विषय ना होकर नैतिक और धार्मिक जिम्मेदारी है। अथर्ववेद 1.34.3 भी आदेश करता है कि हमें मधुर ध्वनि में उच्चारण करना चाहिए।
मधुमन्मे निष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मधुमद् भूयाशं मधु सदृश:।।
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