दिल्ली हवाईअड्डे पर सुबह के समय आम लोगों के बीच वेष्टी आवेष्टित एक नामी हस्ती को देखकर आश्चर्यमिश्रित सुखद अनुभूति हुई कि बड़े लोग सामान्य लोगों के बीच बिल्कुल सामान्य ढंग से व्यवहार कर रहे हैं। विमान में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के अतिरिक्त भी बहुत सारी राजनीतिक हस्तियां दिखीं। मुझे ध्यान आया कि मैं उदयपुर की फ्लाइट में हूं, सभी नेतागण कांग्रेस पार्टी के हैं और उदयपुर में ही कांग्रेस का चिंतन शिविर भी शुरू हो रहा है। अपनी सीट पर पहुंचने पर सामने बराबर की सीट पर प्रियंका गांधी दिखीं। यह सादगी देख लगा कि मूल रूप से कुलीन चरित्र की पार्टी कांग्रेस में वाकई बदलाव आ गया है।
यह अनुभूति फ्लाइट से उतरने तक बनी रही। परंतु जब अगले दिन सोनिया गांधी का बयान आया कि अल्पसंख्यकों को डराया जा रहा है, धर्म के नाम पर माहौल खराब किया जा रहा है, भाजपा और केंद्र सरकार असुरक्षा का माहौल तैयार कर रही हैं तो मुझे लगा कि वास्तव में आधारभूत चीजों में गड़बड़ी है और ऊपर-ऊपर की चीजें ठीक करने से काम नहीं बनने वाला। कांग्रेस चिंतन शिविर हुआ भी और निपट भी गया। उसमें कहा गया –
- संगठन में हर स्तर पर युवाओं को 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया जाएगा
- पार्टी में एक परिवार-एक टिकट का फॉर्मूला लागू होगा
- पार्टी समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के साथ संपर्क स्थापित करने को प्रतिबद्ध रहेगी
मुद्दे ऊपरी तौर पर अच्छे हैं किंतु प्रश्न यह है कि किस आयु के नेताओं को आप युवा मानते हैं (और वह आयु बीत जाने के बाद भी आप कब तक उन्हें युवा मानते रहेंगे)
पार्टी में एक परिवार और एक टिकट का फॉर्मूला लागू होगा। परंतु क्या वह गांधी परिवार पर भी लागू होगा? और क्या लोकसभा या राज्यसभा दोनों की टिकटें जोड़ी जाएंगी या दोनों को अलग-अलग रखा जाएगा?
पार्टी समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों के साथ तालमेल रखे, समझ आता है। किंतु जो कांग्रेस पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों के साथ सहानुभूति रखने वाले दल के साथ गठबंधन कर चुकी हो, उसके लिए समान विचारधारा का अर्थ क्या रह जाता है? केवल सत्ता का विचार … जी हां दुर्भाग्य से कांग्रेस का सच यही है।
चिंतन का दम भरने के बावजूद कांग्रेस कड़वाहट भरी बयानबाजी और मुद्दों के चयन में दोषपूर्ण दृष्टि से मुक्त होती नहीं दिखाई दी। जो देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का दावा करती है, उस पार्टी को समझना पड़ेगा कि चिंतन के मूल मुद्दे कौन से हैं।
- जो पार्टी अपने-आप को राष्ट्रीय कहती है, वह ‘राष्ट्र’ से कैसे जुड़े।
- पार्टी का व्याप बढ़ाने के लिए जमीनी नेता पार्टी में कैसे आगे बढ़ें।
- कांग्रेस की धुरी यानी उसकी राजनीति का दर्शन क्या हो? यानी केवल पार्टी में राजनीति के दर्शन न हों बल्कि राजनीति के पीछे जो वैचारिक दर्शन होना चाहिए, वह दिखे?
परंतु कांग्रेस में ये सब चीजें लुप्त दिखाई देती हैं। यहां स्वयं को सुधारने के बजाय स्वयं गलत होने पर सही लोगों को दोषी ठहराने का चलन है। असल में कांग्रेस में आधारभूत तौर पर चीजें गड़बड़ हो चुकी हैं और इस बात को समझने में उनका शीर्ष नेतृत्व नाकाम दिखाई देता है।#
अनुशासनहीनता पर दृष्टि
चिंतन शिविर में एक बात और आई कि अनुशासनहीनता सहन नहीं की जाए। बिल्कुल! सहन नहीं की जानी चाहिए। अगर यह बात कांग्रेस ने गांठ बांध ली होती तो शायद उसकी यह दुर्गति नहीं होती।
मगर देखना यह है कि वह अनुशासनहीनता हुई कहां से और क्यों उसकी ओर से नजरें फेर ली गर्इं।
आइए, अनुशासनहीनता के कुछ उदाहरण देखें। अभी हाल ही में हार्दिक पटेल ने चिट्ठी लिखी है जिसमें उन्होंने कहा कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में किसी भी विषय के प्रति गंभीरता की कमी है। यह एक बड़ा मुद्दा है। मैं जब भी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से मिला तो लगा कि नेतृत्व का ध्यान गुजरात के लोगों और पार्टी की समस्याओं को सुनने से ज्यादा, अपने मोबाइल और बाकी चीजों पर रहा। जब भी देश संकट में था अथवा कांग्रेस के नेतृत्व की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी, तब हमारे नेता विदेश में थे।
आप इसे अनुशासनहीतना मानेंगे क्या?
दूसरा उदाहरण – हेमंत बिस्व सरमा ने जब दुनिया को बताया कि मुझसे बेहतर राहुल गांधी को कौन जानता है? मुझे याद है कि जब हम असम के मुद्दों पर बातचीत कर रहे थे तो वे अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाने में व्यस्त थे। ये आपकी सोच, गंभीरता और अनुशासन है।
यानी बात हो रही है कि पार्टी राष्ट्र से कैसे जुड़े, जमीनी मुद्दा कैसे आगे बढ़े। परंतु जब जमीनी या नए नेता आगे बढ़ते हैं तो आप नेतृत्व की हत्या करने वाले काम करते हैं।
उदाहरण और भी हैं। याद कीजिए, अरुणाचल से सारे विधायक दिल्ली में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से मिलने के लिए बैठे थे। मगर शीर्ष नेतृत्व के पास इनसे मिलने की फुर्सत नहीं थी। अगले दिन राज्य में सत्ता पलट जाती है और पूर्वोत्तर का एक राज्य कांग्रेस के हाथ से निकल जाता है।
कांग्रेस की विडंबना यह है कि इसमें सबसे महत्वपूर्ण निर्णय निर्वाचित लोग नहीं बल्कि मनोनीत लोग लेते हैं। यानी पार्टी का कोर, ‘कोटरी’ ही है। उदयपुर में जब सभी कांग्रेसी एकत्र होकर हुंकार रहे थे, उस समय इन्हीं का एक नेता आईना दिखा रहा था। पंजाब में सुनील जाखड़ ने बता दिया था कि विधायकों का समर्थन होने के बावजूद हिंदू होने के कारण उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया
कांग्रेस नेतृत्व की दृष्टि इतनी दोषपूर्ण है कि सही-गलत का मोटा-मोटा फर्क भी शीर्ष नेतृत्व के बस की बात नहीं है। पार्टी की स्थिति सुधारने के लिए विश्वविद्यालय का एक ऐसा उदण्ड लड़का छांटकर लाया जाता है जिसका पार्टी के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है, जो कल तक कांग्रेस को ही गालियां देता रहा। इसके विपरीत (पंजाब में) जो पार्टी का चेहरा रहा, परिवार का वफादार रहा, उसके गुणों को पार्टी नेतृत्व भूल गया। कैप्टन अमरिन्दर सिंह सिख थे, जाट भी थे, राज परिवार की विरासत भी थी, फौजी भी थे और पार्टी नेतृत्व के प्रति वफादार भी रहे। वे राष्ट्रीय मुद्दों पर मुखर भी थे जो कांग्रेस के लिए दुर्लभ बात थी। मगर कांग्रेस को इतनी सीधी-साफ बात समझ नहीं आई। दिल्ली के प्यादे को उनके ऊपर बैठाने की कोशिश की और अपनी लुटिया डुबो ली।यानी नेतृत्व अनुशासन की बात करता है तो वास्तव में वह बात अन्य लोगों पर लागू करने के लिए होती है, वह नेतृत्व पर लागू नहीं होती।
परिवार की ताकत का भ्रम
कांग्रेस परिवार केन्द्रित पार्टी है, मगर आज यह तौलने की जरूरत है कि परिवार की ताकत आखिर है कितनी! और यह भी कि इसकी वजह से पार्टी कितने घाव और खाने के लिए तैयार है? साथ ही यह भी देखना होगा कि परिवार की ताकत के साथ परिवार की चाटुकारिता करने वालों की ताकत कितनी है?
असल में यह नीतिगत भ्रम कांग्रेस में एकाएक नहीं आया है। जो लोग कांग्रेस को राष्ट्रीय आंदोलन की पार्टी समझते हैं, वे भूल कर रहे हैं। दरअसल कांग्रेस की स्थापना ही ब्रिटिश तंत्र को पोसने के लिए हुई थी। यह तो भला हो कि बाद में इसकी कमान लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महामना मदनमोहन मालवीय आदि कुछ राष्ट्रीय नेताओं के हाथ में गई और उन्होंने पूरे देश में इस पार्टी को राष्ट्रीय विचार का एक मंच बना दिया। परंतु याद रहे आज की कांग्रेस पहले वाली कांग्रेस नहीं है।
कांग्रेस के लोकतंत्रीकरण की उलटबांसी
उदयपुर चिंतन शिविर में पोस्टर लगा था जिसमें नेहरू जी के चित्र के साथ लिखा था कि हमें कांग्रेस का लोकतंत्रीकरण करना है। नेहरु जी ने कहा, यानी वे जानते थे कि कांग्रेस का लोकतंत्रीकरण नहीं हुआ है। किंतु उन्होंने इस अलोकतंत्रीकरण को और मजबूत किया, बेटी को आगे बढ़ाया। बाद में, बेटी ने लोकतंत्रीकरण छोड़िए, उलटे तानाशाही चलाई। फिर बेटी ने अपने बेटे को बढ़ाया। बेटे को न लोकतंत्र का पता था, न तानाशाही का, परंतु यह पता था कि हमलोग राज करने वाले हैं और उन्होंने अपने तरीके से कमान संभाली। उनके जाने के बाद सोनिया जी भी खुद और बेटे-बेटी को आगे बढ़ाती रहीं। पार्टी परिवादवाद को बढ़ाने के लिए कब तक लोकतंत्रीकरण की डुगडुगी बजाएगी?
जनता से कांग्रेस का जो संपर्क भंग हुआ है, जो पार्टी की गलतफहमियां हैं, उन्हें दूर करना बहुत जरूरी है। जो परिवार को पार्टी का आधार बताते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि इस परिवार में कोई चमत्कार और कोई करिश्मा नहीं है। और, देश यह बात बार-बार बताता रहा है।
इंदिरा रही होंगी बहुत बड़ी नेता, परंतु एक सामान्य बाहरी नेता ने उन्हें लोकतंत्र में चुनौती देते हुए चित्त कर दिया था। राजीव की मृत्यु से भावनात्मक ज्वार आया परंतु उसके बाद भी बहुमत नहीं मिल पाया। झामुमो सांसदों को खरीदने के आरोपों की कालिख में जैसे-तैसे कांग्रेस की लचर आधार वाली सरकार बनी थी।
आज कहा जाता है कि परिवार ने बहुत ताकत दी परंतु सही आकलन करें तो 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन का श्रेय सोनिया गांधी को देना गलत है। मनमोहन सिंह की एक अलग छवि थी, नरसिम्हा राव के साथ उदारवाद को लेकर और खासकर परमाणु सौदे पर वामपंथी विरोध के बावजूद सरकार बचाने और चलाने को लेकर उन्होंने अपनी छवि गढ़ी। यह उनकी समझ थी जिसके बूते वह सरकार बना पाए।
फिर 2009 के बाद के चुनावी परिणामों में पार्टी की कमान हाथ में होने के बावजूद सोनिया का प्रभाव नहीं दिखा। वास्तव में पार्टी में मजबूत लोकतंत्र न हो, इसके लिए यह परिवार लंबे समय से लगा हुआ है। नरसिम्हा राव के समय ही कांग्रेस वर्किंग कमेटी के चुनाव हुए थे, उसके बाद से सब स्थगित सा है। चुनाव प्रक्रिया वाली कमेटी भंग कर दी गई। पूरा ध्यान पदाधिकारी मनोनीत करने पर रहा। कांग्रेस की विडंबना यह है कि इसमें सबसे महत्वपूर्ण निर्णय निर्वाचित लोग नहीं बल्कि मनोनीत लोग लेते हैं। यानी पार्टी का कोर, ‘कोटरी’ ही है।
उदयपुर में जब सभी कांग्रेसी एकत्र होकर हुंकार रहे थे, उस समय इन्हीं का एक नेता आईना दिखा रहा था। पंजाब में सुनील जाखड़ ने बता दिया था कि विधायकों का समर्थन होने के बावजूद हिंदू होने के कारण उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया।
जी-23 के नेता कपिल सिब्बल वगैरह भी वहां नहीं दिखे। जी-23 के मुद्दे चिंतन शिविर में दरकिनार थे। शिविर में वे मुद्दे थे जिसका पार्टी को मजबूत करने से कोई लेना-देना नहीं है। आप देश में एक नाहक ध्रुवीकरण पैदा करना चाहते हैं और आपको लगता है कि इससे आपकी नैया पार हो जाएगी। जिस पार्टी को अपने संगठन की चिंता नहीं है क्या वह समाज की चिंता कर सकती है?
सर्जिकल आपरेशन की जरूरत
मैं एक बात कहना चाहूंगा कि परिवार की ताकत एक भ्रम है। हाथ वाली पार्टी से परिवार का हाथ हट जाए तो पार्टी का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। कांग्रेस को आत्ममंथन की जरूरत है, यह बात बहुत बार कही जा चुकी है। सर्जिकल आॅपरेशन पर सवाल उठाने वाली कांग्रेस को अब एक बड़े सर्जिकल आपरेशन की जरूरत है। और, वह आॅपरेशन है नेशनल कांग्रेस यानी राष्ट्रीय पार्टी को राष्ट्र से जोड़ने की प्रक्रिया। यह प्रक्रिया यदि नहीं होगी तो पार्टी खत्म हो जाएगी।
आज कांग्रेस उलटबांसियों की पार्टी है
यह वही पार्टी है जिसके नेता कभी अपने नाम के साथ बड़े गर्व से पंडित लगाते थे, आज ब्राह्मणों को गरियाती है। युवराज तक अपना गोत्र बताने में अचकचा जाते हैं। जिस पार्टी का निशान गाय और बछड़ा हुआ करता था, आज उसके नेता सड़कों पर गोमांस की दावत करते हैं।
कांग्रेस खत्म हो रही है। वह बार-बार कहती है कि लोकतंत्र में विपक्ष का होना जरूरी है। मगर विपक्ष की सेहत ठीक रहे, यह जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नहीं है। कांग्रेस को अपना रोग आप दूर करना होगा।
कांग्रेस को मुस्लिम उन्माद बढ़ाने, हिन्दुत्व पर आक्षेप करने, हिन्दुत्व में दो धड़े तैयार करने के बजाय आंतरिक समझ बढ़ाने और सांगठनिक स्तर पर सर्जिकल आॅपरेशन करने की जरूरत है। उसके भीतर जो सड़ांध पल रही है, उसका उपचार जरूरी है।
यह सड़ांध क्या है? उन्होंने वामपंथ को सीधे-सीधे अपने कंधों पर बैठा लिया है। कांग्रेस के जो शीर्ष कार्यालय हैं, उन्हें आज वामपंथी छात्र नेता चला रहे हैं। वे परिवार को बताते हैं कि परिवार ही सर्वोपरि है। वही शुभंकर है। वही सर्वेसर्वा है। कांग्रेस को याद रखना होगा कि यदि उसने वामपंथी चश्मे से देखा तो उसका वही हाल होगा, जो वामपंथ का हुआ है।
एक अंग्रेज ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना जरूर की थी मगर जब उसमें भारतीय आग्रह मजबूत हुआ, तभी पार्टी को आधार मिला था। वरना उसके पहले तो कांग्रेसी रानी विक्टोरिया की जय बोलने-बुलवाने में लगे रहते थे। क्या आपको मालूम है तब कांग्रेस के अधिवेशनों में बोला जाता था- वह रानी विक्टोरिया, हम जिसके जूते के फीते बांधने के लायक नहीं हैं…
जिस समय कांग्रेसी ब्रिटेन की मलिका के जूते के फीते बांधने लायक नहीं थे, उस समय जनता इस कांग्रेस को जूते की नोक पर रखती थी। जब इसने राष्ट्रीय आग्रह की बात की, तब जनता ने इसकी बात सुननी शुरू की।
बहरहाल, कांग्रेस खत्म हो रही है। वह बार-बार कहती है कि लोकतंत्र में विपक्ष का होना जरूरी है। मगर विपक्ष की सेहत ठीक रहे, यह जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नहीं है। कांग्रेस को अपना रोग आप दूर करना होगा।
@hiteshshankar
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