बीते दिनों वामपंथ का एक और किला ढह गया। जिस ट्विटर ने सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में जन्म लिया था, वह पूरी तरह वामपंथ के चंगुल में फंस चुका था। अमेरिकी उद्योगपति एलन मस्क ने ट्विटर को बड़े नाटकीय ढंग से अधिग्रहीत कर लिया। उन्होंने संकेत दिया है कि वे ट्विटर कंपनी के वैचारिक पूर्वाग्रह को समाप्त कर उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का स्थान बनाएंगे। अमेरिका में ट्विटर प्रगतिशीलता और उदारवाद की आड़ में लंबे समय से वामपंथ का वाहक बना हुआ है। यही काम वह भारत में भी कर रहा है। समस्या इतनी ही होती तो फिर भी ठीक था। भारत में ट्विटर लगातार ऐसे लोगों के स्वर दबाने का काम कर रहा था जो हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रायोजित दुष्प्रचार के उत्तर दे रहे थे। उन्हें ‘कट्टरपंथी’ अथवा ‘हेट स्पीच’ करने वाला बताकर ब्लॉक किया जा रहा था, दूसरी ओर ट्विटर विश्व के लगभग सभी आतंकवादी संगठनों का मंच बना हुआ है। वामपंथ की गोद में बैठने के बाद ट्विटर स्वाभाविक रूप से हर आसुरी शक्ति का साझीदार और संरक्षक बन चुका था।
वास्तव में ट्विटर अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया हथियार बन चुका था। वह लगातार भारतीय लोकतंत्र में हस्तक्षेप करने और भारत में अराजकता फैलाने में भी सहायक बन रहा था। मगर कंपनी का स्वामित्व एलन मस्क के हाथ में जाने से भारत के प्रति इसके व्यवहार में क्या परिवर्तन आएगा, यह आने वाले समय में ही पता चलेगा।
पिछले सप्ताह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत के दौरे पर आए। उन्होंने कहा कि ‘‘मैंने भी कोविड का भारतीय टीका ही लगवाया है।’’ जॉनसन ने इसके लिए भारत का धन्यवाद किया। यहां विरोधाभास यह है कि ब्रिटेन का सरकारी समाचार संस्थान बीबीसी भारतीय वैक्सीन के विरुद्ध दुष्प्रचार में सबसे आगे है। बीबीसी ने टीकाकरण अभियान को लेकर लगातार टीका-टिप्पणी जारी रखी थी। इसके अतिरिक्त भारत में कोरोना से बरबादी का छद्म माहौल बनाने वालों में बीबीसी अग्रणी था। कोरोना काल में ब्रिटेन में बड़ी संख्या में मृत्यु और अब वहां के प्रधानमंत्री की स्वीकारोक्ति के बाद भी बीबीसी की अकड़ ‘रस्सी जलने, लेकिन ऐंठन नहीं जाने’ मुहावरे को चरितार्थ करती है।
दिल्ली सरकार ने आधिकारिक सूचना दी कि केरल सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल राजधानी के स्कूलों में हुए ‘सुधार’ का अध्ययन करने आया है। उस प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों की खूब आवभगत हुई। मीडिया में कवरेज मिली कि केरल सरकार ‘दिल्ली मॉडल’ का अध्ययन कर रही है। फिर पता चला कि यह ठग के साथ ठगी का मामला है। कुछ लोगों ने प्रचार की भूखी दिल्ली सरकार को चूना लगाया था। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब इतनी बड़ी ठगी के बारे में अखबारों और चैनलों पर कोई जानकारी नहीं मिलती। सोशल मीडिया न होता तो लोगों को संभवत: इसके बारे में कभी पता नहीं चल पाता। आम आदमी पार्टी के विज्ञापनों का ही प्रभाव रहा कि गुवाहाटी नगर निगम में 60 में से 58 सीटों पर भाजपा की विजय के बाद भी दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया ने आआपा की एकमात्र विजयी उम्मीदवार का चित्र प्रमुखता से प्रकाशित किया।
उत्तर प्रदेश के बागपत में एक चर्च के पादरी ने 11 वर्ष की अनुसूचित जाति की बच्ची के साथ बलात्कार किया। मां की शिकायत पर 67 वर्षीय पादरी अलबर्ट को जेल भेज दिया गया। लेकिन अधिकांश समाचार पत्रों ने इसे बलात्कार की सामान्य घटना की तरह छापा। हर आपराधिक समाचार को जातीय रंग देने वाले टाइम्स आफ इंडिया ने इसे 12वें पेज पर स्थान दिया और हेडलाइन से छिपा लिया कि पीड़िता ‘दलित’ है। इसी अखबार ने राजस्थान के जालौर में एक मंदिर में दलित नवविवाहित दंपती को प्रवेश से रोकने की फेक न्यूज छापी। मात्र शिकायत के आधार पर राजस्थान सरकार ने मंदिर के पुजारी को गिरफ्तार भी कर लिया। जांच में पता चला कि उक्त दंपती ने मंदिर में पूजा-पाठ भी की थी लेकिन जब वे गर्भगृह में नारियल जलाने लगे तो पुजारी ने उन्हें बाहर जाकर नारियल जलाने को कहा। सत्य के सामने आने के बाद भी टाइम्स आफ इंडिया या किसी अन्य समाचार समूह ने अपने पाठकों को यह बताने की आवश्यकता नहीं समझी।
राजस्थान पत्रिका ने रमजान पर खजूर के बाजार पर लेख छापा। इसमें सऊदी अरब से आने वाली खजूर की एक प्रजाति का महिमामंडन छपा कि इसे खाने से जादू और जहर का प्रभाव भी नहीं होता। मजहबी अंधविश्वासों का मीडिया के माध्यम से यह सामान्यीकरण अक्सर देखने को मिलता है। ल्ल
टिप्पणियाँ