जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम समुदाय 68.31 प्रतिशत और हिन्दू समुदाय मात्र 28.44 प्रतिशत है। लेकिन न सिर्फ केंद्र सरकार बल्कि अब तक की सभी राज्य सरकारों की नजर में मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक है। अबतक वही अल्पसंख्यकों को मिलने वाले तमाम विशेषाधिकारों और योजनाओं का लाभ लेता रहा है। हिन्दू समुदाय वास्तविक अल्पसंख्यक होते हुए भी संवैधानिक विशेषाधिकारों, संरक्षण और उपचारों से वंचित रहा है। जम्मू-कश्मीर बहुसंख्यकों को ‘अल्पसंख्यक’ बताने की राजनीति का सिरमौर है।
अल्पसंख्यक की इस आधी-अधूरी परिभाषा और इसके प्रावधानों की आड़ में जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में वास्तविक अल्पसंख्यक (तथाकथित बहुसंख्यक) हिन्दू समुदाय का बहुसंख्यक (तथाकथित अल्पसंख्यक) मुस्लिम समुदाय द्वारा लगातार शोषण-उत्पीड़न किया गया है। जिस वास्तविक अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय का एकाधिक बार नरसंहार हुआ, उसे बार-बार कश्मीर से उजाड़ा और खदेड़ा गया; अब उसके आंसू पोंछने और न्याय करने का समय आ गया है।
जम्मू-कश्मीर से हिन्दुओं के पलायन और विस्थापन का लम्बा इतिहास है। इसकी शुरुआत 14वीं सदी में सुल्तान सिकन्दर बुतपरस्त के समय हुई। उसने तलवार के जोर पर अनेक हिन्दुओं का कन्वर्जन कराया और ऐसा न करने वालों को या तो मृत्यु का वरण करना पड़ा या फिर अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा। 14वीं सदी से शुरू हुई विस्थापन की यह दर्दनाक दास्तान 20वीं सदी के आखिरी दशक तक जारी रही। सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि आजादी के बाद और बावजूद भी यह सिलसिला थमा नहीं। सन् 1947 में भारत विभाजन के अलावा 1947, 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1990 के नरसंहार के समय बड़ी संख्या में या तो हिन्दुओं की संगठित रूप से निर्मम हत्याएं हुर्इं या फिर उन्हें कश्मीर से भगा दिया गया। इस क्रमिक नस्लीय सफाये का परिणाम यह हुआ कि सनातन संस्कृति की सुरम्यस्थली और भारत की ज्ञानभूमि कश्मीर में हिन्दू समुदाय के लोग मुट्ठी भर ही रह गए। कन्वर्जन और विस्थापन का सिलसिला शुरू होने से पहले जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम समुदाय की संख्या उतनी ही नगण्य थी, जितनी कि आज घाटी में गैर-मुस्लिम समुदाय की रह गई है।
अगर जम्मू-कश्मीर में जम्मू न होता तो हिन्दुओं का क्या हश्र हुआ होता; इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। जनवरी 1990 की सर्द अंधेरी रातों में घाटी की गलियों और मस्जिदों में अजान नहीं रालिव, गालिव, चालिव की शैतानी आवाजें गूंजती थीं। इस एक महीने में ही लाखों हिन्दुओं को या तो अपने प्राण गंवाने पड़े या फिर जान बचाने के लिए भागना पड़ा। यह विडम्बनापूर्ण ही है कि जो अल्प-संख्यक बना दिए गए, उन्हें सरकार की ओर से कोई संरक्षण, सुरक्षा या विशेषाधिकार नहीं दिया गया। क्या यह संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ नहीं था? आज भी अगर क्रमिक नस्लीय संहार के शिकार रहे गैर-मुस्लिम समुदाय जब घरवापसी करना चाहते हैं तो इस्लामिक आतंकी और उनके आका घाटी में खून की होली शुरू कर देते हैं; ताकि जम्मू-कश्मीर का जनांकिक संतुलन उनके पक्ष में रहे। वे (जम्मू-कश्मीर में) बहु-संख्यक भी बने रहना चाहते हैं और अल्पसंख्यकों को दिए जाने वाले विशेषाधिकारों के फायदे भी लेते रहना चाहते हैं। यह जम्मू-कश्मीर के अल्पसंख्यकों की असली कहानी है। यहां शिकारी को ही संवैधानिक संरक्षण और सरकारी प्रश्रय मिला हुआ है।
कश्मीर की तर्ज पर जम्मू क्षेत्र में भी सत्तारूढ़ पार्टियों- मुस्लिम/नैशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बनाने की साजिश की गई। म्यांमार के रोहिंग्याओं और बांग्लादेशी घुसपैठियों को जम्मू में साजिशन बसाया गया; ताकि यहां की जनांकिकी को बदला जा सके। रोशनी एक्ट के अंधेरों से भी हम सब परिचित हैं। रोशनी एक्ट का वास्तविक नाम जमीन जिहाद है। न सिर्फ जम्मू-कश्मीर के सभी मुख्यमंत्री मुस्लिम समुदाय से हुए हैं; बल्कि यहां की उच्चपदस्थ नौकरशाही, सरकारी अमले और सांसद-विधायकों का बहुसंख्यक हिस्सा मुस्लिम समुदाय से रहा है। यहां के उद्योग-धंधे, कारोबार-व्यापार और बाजार पर भी मुस्लिम समुदाय का ही एकछत्र राज रहा है। फिर वे अल्पसंख्यक कैसे हैं?
(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।)
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