पूनम नेगी
भारत की संस्कृति राममय है। हर सच्चे भारतीय के दिल में बसते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम। यूं तो श्रीराम की जन्मभूमि के रूप में उत्तर प्रदेश में पावन सरयू के तट पर बसी अयोध्या नगरी विश्वविख्यात है। मगर क्या आप इस दिलचस्प तथ्य से अवगत हैं कि दक्षिण भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले की एक छोटी सी खूबसूरत तीर्थनगरी “भद्राचलम” को दक्षिण की अयोध्या की मान्यता हासिल है। दंडकारण्य के नाम से विख्यात भद्राचलम में वह पर्णशाला आज भी मौजूद है जहां श्रीराम ने वनवास का लंबा समय व्यतीत कर ऋषि मुनियों को आसुरी शक्तियों के आतंक से निजात दिलायी थी। इस वनवासी बहुल में श्रीराम ने भीलनी के जूठे बेर खाकर उन्हें अपनी जननी कौशल्या के समान सम्मान दिया था। इसी कारण श्री राम वनवासियों खासतौर पर आदिवासियों के आराध्य माने जाते हैं।
गोदावरी नदी के तट पर बसा भद्राचलम नगर अपने भव्य सीतारामचंद्र मंदिर के लिए देश-विदेश तक मशहूर है। हर साल रामनवमी के दिन यहां भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव व दशहरा का त्योहार खूब धूमधाम से मनाया जाता है। चैत्र व आश्विन नवरात्रि में भी यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। रामनवमी और यहां चलने वाले दस दिवसीय महोत्सव में हिस्सा लेने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में भक्त यहां आते हैं। इस सीतारामचंद्र मंदिर के निर्माण के पीछे एक रोचक जनश्रुति जुड़ी है। कहा जाता है कि आंध्र प्रांत के खम्मम जिले के भद्रिरेड्डीपालेम ग्राम में पोकला दमक्का नाम की एक वनवासी महिला रहती थी। कहते हैं कि किसी हादसे में उसका समूचा परिवार समाप्त हो गया तो वह रामभक्ति में लीन हो गयी। उसने एक अनाथ बच्चे को गोद ले लिया और उसके भरण पोषण में अपना जीवन बिताने लगी। एक दिन दमक्का का वह दत्तक पुत्र राम खेलते-खेलते वन में चला गया। देर शाम तक जब वह वापस नहीं लौटा तो दमक्का को कुछ चिंता हुई और वह राम-राम पुकारते हुए अपने पुत्र को खोजते-खोजते घने जंगल में जा पहुंची। तभी अचानक एक दिशा से आवाज आयी- मां, मैं यहां हूं। पुन: नाम पुकारते हुए दमक्का आवाज की दिशा में आगे बढ़ी तो कुछ कदम चलने पर उसने महसूस किया कि वह आवाज एक गुफा के अंदर से आ रही है। आवाज सुनकर दम्मक्का गुफा के भीतर गयी। वहां पर उसे श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की अत्यन्त सुंदर प्रतिमाएं दिखीं। एक निर्जन वन में गुफा के बीच अपने इष्ट आराध्य की ऐसी मनमोहक प्रतिमाएं देख दम्मक्का भावविभोर हो उठी। उसने भक्तिभाव से नतमस्तक होकर उन प्रतिमाओं को नमन किया। तभी उसने अपने पुत्र को भी वहीं निकट ही खड़ा पाया। दमक्का को यह घटना एक वरदान प्रतीत हुई। उससे महसूस किया कि वे प्रतिमाएं उसे एक दैवीय संदेश दे रही हैं। उस मूक संदेश को मन मस्तिष्क में ग्रहण कर दमक्का ने उस गुफा के निकट बांस की एक पर्णकुटी को बनाकर तथा उसे एक अस्थाई मंदिर का रूप देकर उसमें वे देव प्रतिमाएं स्थापित कर दी। देखते ही देखते वहां दर्शन को आने वाले श्रद्धालुओं का तांता लगना शुरू हो गया और कालान्तर में समूचे क्षेत्र में विख्यात हो गया।
भद्राचलम का भव्य सीतारामचंद्र मंदिर
यह उस समय का प्रसंग है जब हैदराबाद के निकट का यह क्षेत्र गोलकुंडा के नाम से जाना जाता था। यहां तानाशाह कुतुबशाही नवाब अबुल हसन का शासन था। वह नाजायज कर लगाकर गरीब जनता का शोषण किया करता था। उस समय कर वसूली के लिए कंचली गोपन्ना नामक एक वनवासी युवा बतौर तहसीलदार भद्राचलम में तैनात थे। गोपन्ना वनवासी समाज के थे और उनकी श्रीराम में अटूट आस्था थी। श्रीराम की कृपा से कर वसूली में उन्हें स्थानीय जनता से भरपूर सहयोग मिला। कहा जाता है कि रामभक्त गोपन्ना ने अपने निजी धन से कटिबंध, कंठमाला और मुकुट मणि आदि आभूषण बनवाकर श्रीराम, सीता व लक्ष्मण की मूर्तियों को अर्पित किये। उन्होंने शासन से नियत कर राशि राजकोष में जमा करने के बाद शेष बचे धन से सर्वप्रथम भद्रगिरि की उस पर्णकुटी के चारों ओर एक विशाल परकोटा बनवाया और बाद में उसके भीतर एक भव्य राम मंदिर बनवाया जो रामभक्तों व सनातनधर्मियों की आस्था के अपूर्व केन्द्र के रूप में न केवल दक्षिण भारत वरन समूचे देश व विदेश में विख्यात है। कांचली गोपन्ना आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने भद्राचलम क्षेत्र को धार्मिक जागरण का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने श्रीराम जी की भक्ति में कई भजन भी लिखे थे। इस कारण लोग उन्हें भक्त रामदास कहने लगे। हरिदास नामक घुमंतु प्रजाति आज भी इस क्षेत्र भक्त रामदास के कीर्तन गाते हुए राम भक्ति का प्रचार करती देखी जा सकती है। कहते हैं कि गोपन्ना ने अपने भक्ति गीतों के माध्यम से विदेशी अक्रमणकारियों और तानाशाही राज के खिलाफ जनांदोलन चलाया मगर यह धर्म जागरण कार्य तानाशाह को नहीं भाया और उन्होंने गोपन्ना को गोलकोंडा किले में कैद कर दिया। कहा जाता है कि गोपन्ना को कैद करने पर श्रीराम व लक्ष्मण धनलोलुप नवाब के सामने साधारण वेष में प्रकट हुए और उनकी मुक्ति के बदले सोने की मुद्राएं देने का प्रस्ताव उसके सामने रखा। स्वर्ण मुद्राएं पाकर नवाब ने गोपन्ना को ससम्मान कैद से मुक्त कर दिया। आज भी हैदराबाद किले में वह काल कोठरी देखने को मिलती है जहां भक्त गोपन्ना को कैदी की तरह रखा गया था।
रामनवमी पर दान किए जाते हैं नये वस्त्राभूषण
किंवदंती है कि श्रीराम के हाथों से स्वर्ण मुद्राएं पाकर उस लालची नवाब का मन पूरी तरह बदल गया और उस घटना के बाद से वह नवाब भी गोपन्ना द्वारा बनवाये गये उस मंदिर में प्रति वर्ष रामनवमी तथा सीताराम विवाहोत्सव (कल्याणम्) के अवसर पर सीता-राम की प्रतिमाओं को मोती व नये वस्त्र भेंट करने लगा। यह प्रथा पिछले 400 वर्षों से निर्बाध जारी है।
जटायु का एकमात्र मंदिर
कहते हैं कि लंकापति जब सीता माता का अपहरण कर रावण पुष्पक विमान से लंका जा रहा था तो यहीं पर जटायु ने रावण से लोहा लिया था। युद्ध में जटायु बुरी तरह जख्मी हो गये लेकिन उन्होंने तब तक शरीर नहीं छोड़ा जब तक राम को सीताजी के बारे में नहीं बता दिया। राम ने यहीं गोदावरी घाट पर अपने हाथों से जटायु का अंतिम संस्कार किया था। दुनिया भर में सिर्फ यहीं जटायु का एकमात्र मंदिर है। स्थानीय लोग भक्तिभाव से यहां पूजा करने आते हैं। इस जगह को स्थानीय भाषा में जटायु पाका यानी जटायु की टांग कहा जाता है।
प्राकृतिक आपदाओं से अप्रभावित रहने का वरदान
भद्राचलम के इस मंदिर के बारे में बहुत सी मान्यताएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि भगवान श्रीराम ने भद्रगिरि पर्वत पर पसरे प्राकृतिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर वरदान दिया था कि दुनिया में कितनी भी बड़ी प्राकृतिक आपदा क्यों ना आ जाए, यह पर्वत उससे अछूता ही रहेगा। यही वजह है कि कई बार बाढ़ आने के बावजूद भद्राचलम पर्वत पर कभी कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा। यह भी कहा जाता है कि भद्र ऋषि ने इसी जगह पर श्री राम की आराधना की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उनको अपने दर्शन दिए थे। तभी से ये पर्वत भद्राचलम कहलाने लगा।
टिप्पणियाँ