दिल्ली के तीनों निगमों को एक करने वाला विधेयक लोकसभा के बाद राज्यसभा से भी पास हो गया है। यानी दिल्ली अब एक कमिश्नर और एकीकृत निगम के अंतर्गत काम करेगी। दिल्लीवासियों के लिए यह जहां राहत की बात है, वहीं इस मुद्दे पर राजनीति भी पर्याप्त हुई। और संभव है कि प्रस्ताव पारित होने के बाद भी राजनीति करवटें बदलती दिखें।
राजधानी को राहत
पहले बात एकीकरण से दिल्ली को मिलने वाली राहत की।
यह ध्यान देने वाली बात है कि राजधानी होने के नाते दिल्ली की अपनी एक विशिष्ट प्रकृति है। वर्ष 2011 में निगम का बंटवारा हुआ था, उसके बाद से दिल्ली की दिक्कतें बढ़ीं हैं। पहली दिक्कत यह है कि निगमों के नियमों में एकरूपता नहीं है। इसको एक उदाहरण के तौर पर समझें— आम लोगों को निगम से आधारभूत जरूरत भवन निर्माण से जुड़े नक्शे पास कराने में पड़ती है। तीनों निगमों में सबडिवीजन के नक्शे, फ्लोर वाइज नक्शे, एनओसी से जुड़े नियम अलग-अलग हैं। दक्षिणी दिल्ली में एनओसी नहीं चाहिए, शेष निगम एनओसी मांगते हैं और इसी कारण लोग धक्के खाते हैं। विसंगतियों को दूर कर व्यवस्थाओं को ठीक करने, निगमों में एकरूपता लाने के लिए ही निगमों का एकीकरण किया गया।
दूसरा-संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिए भी यह एकीकरण आवश्यक था। उदाहरण के लिए एक निगम में अच्छी आय है, बाकियों के पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं हैं। एक तरफ संभ्रांत दिल्ली है जहां गृहकर से लेकर पार्किंग वगैरह से निगम को पर्याप्त आय हो जाती है। मगर दूसरी तरफ, अन्य निगम क्षेत्रों में सघन बसावट वाली ऐसी बस्तियां हैं जहां स्वच्छता और अन्य रखरखाव जैसे दायित्वों का निर्वहन करने में पसीना छूट जाता है और, पहले से बने हुए तंत्र से इस व्यवस्था को संभालना मुश्किल हो जाता है।
तीसरी बात यह कि दिल्ली सरकार तीनों निगमों की परेशानी को बढ़ाने का काम लगातार कर रही थी। ऐसी दिक्कत का अनुभव दिल्ली को शायद पहली बार आम आदमी पार्टी के शासन में आने के बाद हुआ। निगम के सबसे जरूरतमंद वर्ग, चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों तक के वेतन रोके गए। दिल्ली में 3-4 बार इन लोगों को वेतन न मिलने से सड़कें गंदगी से पटी रहीं। ये लोग हड़ताल पर चले गए। ऐसा दिल्ली में कभी नहीं होता था। देश की राजधानी के लिए यह शर्मनाक बात थी और आम आदमी पार्टी इसे बढ़ा रही थी और इसका आरोप भाजपा पर मढ़ते हुए बच भी रही थी। यानी जनता की दिक्कतें बढ़ती हैं तो बढ़ें, राजनीति फले-फूले। यही खेल चल रहा था। अब इस एकीकरण से दोनों काम ठीक होंगे। मतलब, अब यह हमारा काम नहीं है, कहकर पल्ला झड़ना और पैसे देने में आनाकानी करना, इन दोनों चीजों से निगम मुक्त रहेगा तो इसमें राजनीति भी नहीं होगी और लोगों को भी राहत मिलेगी। तीन निगम होने से एक ही काम को जो बार-बार किया जाता था, वह खत्म होगा।
कानून बनाने का अधिकार
अब बात करें राजनीति की। निगमों का एकीकरण किए जाने में क्या कुछ नया हुआ है, कुछ अटपटा है, कुछ ऐसा हो गया जो नहीं होना चाहिए था और जिसके कारण राजनीति हो रही है? इसका उत्तर है- नहीं। जब 2011 में शीला दीक्षित सरकार ने निगमों के विभाजन का फैसला लिया था, तब कहा गया था कि निगमों को एक रखना चाहिए, यह विभाजन ठीक नहीं है। वर्ष 1952 में जब दिल्ली में पहली बार विधानसभा बनी थी, और चौधरी ब्रह्मप्रकाश के नेतृत्व में पहली सरकार बनी थी, तब से अब तक दिल्ली नगर निगम हमेशा केन्द्र के अधीन ही रहा है। इसमें नई बात क्या है? एक फांस पैदा करने की कोशिश की गई थी, जिसे दिल्ली के हित में दूर करने का काम हुआ है। जो इस एकीकरण पर कहते हैं कि यह ठीक नहीं है, उन्हें याद करना चाहिए जब निगमों को बांटा गया था। तब भी केन्द्र की अनुमति ली गई थी। एकीकरण के लिए किसी और की अनुमति की आवश्यकता नहीं है। किसी नए नेता के मुख्यमंत्री बनने से दिल्ली चलाने के नियम-कानून तो नहीं बदल जाएंगे!
दिल्ली के बारे में एक बात और कहूंगा कि यहां जो राजनीति चल रही है, उसे समझिए। दिल्ली में बाबा साहेब के नाम पर एक नाटक चल रहा है। उसका खूब सारा विज्ञापन भी हो रहा है। यह अच्छा है किंतु जो लोग बाबा साहेब को प्रतीक बना रहे हैं, जो नाटक दिखा रहे हैं, वे असल में बाबा साहेब की आड़ में एक और नया नाटक खुद भी खेल रहे हैं। बाबा साहेब ने जो संविधान बनाया, उसी संविधान में यह व्यवस्था है कि भारत की राजधानी दिल्ली में कोई भी कानून कोई और नहीं, भारत की संसद ही बनाएगी। देश के लिए राजधानी कितनी महत्वपूर्ण होती है, यह बात बाबा साहेब समझते थे। आम आदमी भी यह बात जानता है। यदि केजरीवाल यह बात समझना नहीं चाहते तो यह उनकी दिक्कत है।
बाबा साहेब ने जो संविधान बनाया, उसी संविधान में यह व्यवस्था है कि भारत की राजधानी दिल्ली में कोई भी कानून कोई और नहीं, भारत की संसद ही बनाएगी। देश के लिए राजधानी कितनी महत्वपूर्ण होती है, यह बात बाबा साहेब समझते थे। यदि केजरीवाल यह बात समझना नहीं चाहते तो यह उनकी दिक्कत है।
दुनिया में जो बड़े देश हैं, उन्हें देखेंगे तो पाएंगे कि राजधानी में कानून बनाने का अधिकार केवल और केवल वहां की संसद को ही है। इसमें दखलअंदाजी की छूट नहीं दी जा सकती। खासतौर से जो खुद को अराजकतावादी कहते हैं, उनका उदाहरण दिल्ली ने बहुत नजदीक से देखा है। उन्हें तो राजधानी के लिए कानून बनाने की छूट बिल्कुल नहीं दी जा सकती।
फिर एक सवाल है कि अब दिल्ली सरकार क्या करेगी? इसका उत्तर है दिल्ली सरकार वास्तव में अब तक कर क्या रही थी? दिल्ली सरकार प्रचार में जिस अनुपात में खर्च करती है, अन्य बड़े राज्यों का प्रचार बजट भी उतना नहीं है। कहा जा सकता है कि दिल्ली सरकार प्रचार के अलावा कुछ नहीं कर पा रही। दिल्ली सरकार को जो कुछ भी बताना होता है, वह विज्ञापन की मार्फत बताती है। उनके पास नारे और दावे ढेर सारे होते हैं, आंकड़े नहीं। विधानसभा में लगातार असंवेदनशीलता और एकपक्षीय तानाशाही का जो उदाहरण दिल्ली देख रही है, वह लोगों को अब उबाऊ लग रहा है।
वास्तव में दिल्ली के बारे में काननू बनाने का अधिकार दिल्ली विधानसभा को है ही नहीं। विधायी शक्तियां नहीं होने पर अन्य काम करने के बजाय दिल्ली सरकार ने प्रचार को ही सबकुछ मान लिया है।
थोथे, तथ्यहीन आरोप
एक और सवाल उठ रहा है। आम आदमी पार्टी अपने राजनीतिक पैंतरे के तहत बार-बार असंवैधानिक और संघीय ढांचे पर प्रहार की बात करती है। यह बिल्कुल थोथा, बोदा और तथ्यहीन आरोप है। जिन्होंने संविधान को दिल्ली विधानसभा को मखौल बना दिया है, वे लोग ऐसा आरोप लगा रहे हैं।
संघीय ढांचे पर प्रहार की बात करें तो दिल्ली विधानसभा जब उन्नाव बलात्कार मामले पर प्रस्ताव पारित करती है, दिल्ली जब बहुत जोर-शोर से कश्मीर की बात उठाती है, कठुआ की घटना पर प्रस्ताव पारित करती है, राष्ट्रपति जिन कानूनों को अनुमोदित करते हैं, उन कानूनों की निंदा करती है, सीएए पर, कृषि कानूनों पर संसद ने जो कहा, दिल्ली उससे उलट रुख अपनाती है, संसद से पारित कृषि कानूनों को दिल्ली विधानसभा में फाड़ा जाता है, विधानसभा के भीतर सत्तापक्ष के विधायकों द्वारा बागी विधायक कपिल मिश्र से मारपीट की जाती है तो लगता है कि संवैधानिक व्यवस्था की मार्फत आने वाले लोग संविधान को ही चुनौती देने का खेल खेल रहे हैं। उस पर तुर्रा यह कि सामने बाबा साहेब का बहुत बड़ा चित्र खड़ा कर रखा है।
निगमों के एकीकरण से दिल्ली का कांटा निकला है। दिल्ली के लोगों को राहत मिलेगी और अराजकता की राजनीति का शूल भी खुद हटेगा, ऐसा लगता है। निगमों के एकीकरण के बाद दिल्ली सरकार को वैधानिक रूप से सौंपे गए कामों को जमीन पर करके दिखाना होगा, अपने होने का औचित्य साबित करना होगा।
@hiteshshankar
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