डॉ. मोहिंदर सिंह
भारत में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने, रोजगार देने, उद्योगों और सेवा क्षेत्रों के विकास को गति प्रदान करने में कृषि क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। हरित क्रांति के बाद भारत न केवल समग्र स्तर पर आत्मनिर्भर बना, बल्कि खाद्य निर्यातक देश भी बना। फसलों की लाभकारी कीमत और कृषि आदानों पर सब्सिडी उत्पादन में वृद्धि का प्रमुख आधार रही। इसके अलावा, बेहतर तकनीक, उन्नत और गुणवत्ता वाले बीजों, उर्वरक, सिंचाई आदि के कारण भी उत्पादन में वृद्धि हुई। लेकिन उस अनुपात में किसानों की आय नहीं बढ़ी। इसलिए सरकार का पूरा जोर किसानों की आय बढ़ाने पर है। साथ ही, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) भी इस दिशा में काम कर रही है। वर्ष 2015-16 की तुलना में 2022-23 तक किसानों की वास्तविक आय को दोगुना करने का लक्ष्य है। मतलब, कृषि आय में तेजी से वृद्धि लानी होगी। कृषि क्षेत्र की आय को दोगुना करने के लिए किसानों की आय में 10.41 प्रतिशत की सालाना वृद्धि की जरूरत है। इसके लिए कृषि क्षेत्र में दक्ष संसाधनों के उपयोग से उत्पादन में सुधार, फसल विविधीकरण और किसानों की आय बढ़ाने वाले सभी संभावित स्रोतों का दोहन करने के लिए ठोस उपाए करने होंगे।
हालांकि देश ने खाद्य उत्पादन में सराहनीय स्थान हासिल किया है, लेकिन बढ़ती लागत और गैर-आर्थिक जोत के कारण खेती गैर-लाभकारी हो गई। भूमि जोत के औसत आकार में गिरावट, 60 प्रतिशत वर्षा आधारित खेती, 85 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान, मानसून की अनिश्चितता, सिकुड़ते प्राकृतिक संसाधन, बहु-पोषक तत्वों की कमी और जलवायु परिवर्तन के कारण 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना काफी चुनौतीपूर्ण है। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के कुशल प्रबंधन, फसल उत्पादन में वृद्धि, कुशल वर्षा जल प्रबंधन, सतत कृषि प्रबंधन, विभिन्न पहलुओं में कृषि के विविधीकरण, कुशल अवशेष प्रबंधन, फसल कटाई के बाद उन्नत तकनीकों का उपयोग और किसानों द्वारा बेहतर मूल्य प्राप्ति आदि के प्रबंधन से इस दूरगामी लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
आय बढ़ाने पर जोर
नीति आयोग ने मौजूदा विपणन ढांचे में सुधार करके किसानों के लिए लाभकारी मूल्य, उत्पादन वृद्धि, कृषि नीति में सुधार तथा राहत उपाय कर किसानों की आय दोगुनी करने के लिए चार सूत्री कार्य योजना पेश की है। इसके अलावा, भारत सरकार की ‘किसानों की आय दोगुना’ करने की रणनीति में आय वृद्धि के सात स्रोत शामिल हैं-1. फसल उत्पादकता में सुधार, 2. पशुधन उत्पादकता में सुधार, 3. उत्पादन लागत में कमी, 4. फसल गहनता में वृद्धि, 5. उच्च मूल्य वाली फसलों का विविधीकरण 6. किसानों को प्राप्त वास्तविक कीमतों में सुधार और 7. खेत से गैर-कृषि व्यवसायों में बदलाव। इसके केंद्र सरकार ने किसानों की आय बढ़ाने के लिए कई विकास कार्यक्रम, योजनाएं शुरू की हैं तथा सुधारों व नीतियों को अपनाया है। इन सभी नीतियों और कार्यक्रमों के लिए अच्छे- खासे बजट आवंटित किए गए हैं तथा गैर-बजटीय वित्तीय संसाधनों के जरिये कॉर्पस फंड व प्रधानमंत्री किसान योजना के तहत भी किसानों को वित्तीय सहायता दी जा रही है।
सरकार से आर्थिक मदद
किसानों की आय वृद्धि के लिए नवीनतम प्रमुख योजनाओं में ‘आत्मनिर्भर भारत-कृषि’ भी शामिल है। इसके तहत, व्यापक बाजार सुधार के साथ कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड (एआईएफ) की व्यवस्था भी की गई है। एआईएफ का दायरा भी बढ़ाया गया है ताकि खेती से जुड़े ढांचे का विकास हो सके और फसल उत्पादन के बाद बेहतर ढांचागत सुविधा किसानों को मुहैया कराई जा सके। आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत एक लाख करोड़ रुपये का जो एआईएफ दिया गया था, उसका उपयोग कृषि उपज मंडियां (एपीएमसी) भी कर सकती हैं। इसके अलावा, राज्य सरकारें और राष्ट्रीय स्तर की कोआॅपरेटिव या स्व-सहायता फेडरेशन भी इसका लाभ उठा सकेंगी। सरकार एक अम्ब्रेला योजना ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान’ (पीएम-आशा) भी चला रही है। 2018 में घोषित इस योजना का उद्देश्य किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना है। मधुमक्खी पालन के लिए भी 500 करोड़ रुपये जारी किए गए हैं। साथ ही, केंद्र सरकार देश के किसान परिवारों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत सालाना 6000 रुपये भी देती है। यही नहीं, छोटे और सीमांत किसानों की सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से प्रधानमंत्री किसान मानधन योजना (पीएम-केएमवाई) लागू की गई है। इसके तहत, पात्र लघु व सीमांत किसानों को 60 वर्ष की आयु तक न्यूनतम 3,000 रुपये पेंशन दी जा रही है।
फसलों का बीमा
कृषि में जोखिम को कम करने के लिए 2016 खरीफ सीजन से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) शुरू की गई थी। इसके तहत, फसल चक्र के सभी चरणों के लिए बीमा कवर प्रदान किए जा रहे हैं। इसमें किसानों से बहुत कम प्रीमियम लिया जाता है। इसके बाद, किसान की आय बढ़ाने के लिए सरकार 2018-19 में सभी खरीफ और रबी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) उत्पादन लागत से कम से कम 150 प्रतिशत बढ़ाने की मंजूरी दे चुकी है। साथ ही, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना शुरू की गई ताकि रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को युक्तिसंगत बनाया जा सके। ‘प्रति बूंद अधिक फसल’ पहल के तहत पानी का कम से कम उपयोग, सिंचाई पर लागत कम करने और उत्पादन बढ़ाने के लिए ड्रिप/स्प्रिंकलर सिंचाई को प्रोत्साहित किया जा रहा है। साथ ही, जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई), किसानों को इलेक्ट्रॉनिक पारदर्शी और प्रतिस्पर्धी आॅनलाइन व्यापार मंच प्रदान करने के लिए ई-एनएएम भी शुरू किया गया है। ‘हर मेड़ पर पेड़’ के तहत अतिरिक्त आय के लिए कृषि वानिकी को बढ़ावा दिया जा रहा है। भारतीय वन अधिनियम-1927 में संशोधन कर बांस काटने व निर्यात के लिए परमिट की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है। गैर-वन सरकारी के साथ निजी भूमि पर बांस की खेती को बढ़ावा देने, मूल्यवर्धन, उत्पाद विकास और बाजारों पर जोर देने के लिए 2018 में राष्ट्रीय बांस मिशन शुरू किया गया है।
…ताकि आसानी से मिले ऋण
सरकार ने कृषि क्षेत्र में ऋण का प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए वित्त वर्ष 2019-20 के लिए 13.50 लाख करोड़ और वर्ष 2020-21 के लिए 15 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य निर्धारित किया है। सरकार की प्राथमिकता है कि अधिक से अधिक किसानों तक संस्थागत ऋण की पहुंच हो। इसके लिए सरकार तीन लाख रुपये तक के अल्पकालिक फसल ऋण पर 2 प्रतिशत ब्याज अनुदान देती है। अभी ऋण शीघ्र चुकाने वाले किसानों को सालाना 4 प्रतिशत की दर पर ब्याज उपलब्ध है। सरकार पशुपालन और मछली पालन से जुड़ी गतिविधियां शुरू करने वाले किसानों को किसान के्रडिट कार्ड सुविधा भी दे रही है। इसके तहत नए सिरे से नवीनीकरण के लिए सभी प्रसंस्करण शुल्क, निरीक्षण, खाता-बही शुल्क और अन्य सभी सेवा शुल्क माफ कर दिए गए हैं। लघु अवधि के कृषि ऋण के लिए संपार्श्विक शुल्क ऋण सीमा एक लाख से बढ़ाकर 1.60 लाख रुपये कर दी गई है। किसानों की आय को दोगुना करने के लिए केंद्र सरकार ने बाजार सुधार के लिए कई कदम उठाए हैं। इसमें तीन कृषि सुधार कानून भी शामिल थे। इसके अलावा, मॉडल एपीएलएमसी (पदोन्नति और सुविधा) अधिनियम-2017 एकत्रीकरण मंच के तौर पर 22,000 ग्रामीण कृषि बाजारों की स्थापना के लिए कृषि-निर्यात नीति, जिसके तहत 2022 तक कृषि-निर्यात दोगुना करने का लक्ष्य है, भी शामिल है। इसी तरह, 2024 तक 10,000 एफपीओ को बढ़ावा देने के लिए कॉर्पस फंड, सूक्ष्म सिंचाई कोष, राष्ट्रीय कृषि बाजार और ग्रामीण कृषि बाजारों को मजबूत करने के लिए 5,000 करोड़ रुपये का कृषि-विपणन कोष, 2,000 करोड़ रुपये एआईएफ तथा एग्री-लॉजिस्टिक्स (बैकवर्ड और फॉरवर्ड लिंकेज) बनाने के लिए एक लाख करोड़ रुपये का बजट रखा गया है।
आईसीएआर का योगदान
1930 में अपनी स्थापना के बाद से ही भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) अनुसंधान, शिक्षा, कृषि उत्पादकता बढ़ाने, विविधीकरण और कृषि विस्तार की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या, बदलती जीवन शैली, बढ़ते शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन उसके अनुसंधान और किसानों की आय दोगुनी करने की राह में चुनौतियां पैदा कर रहे हैं। 1960 से पहले पर्याप्त भोजन की आपूर्ति चुनौती थी, लेकिन अब स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त पोषक तत्व प्रदान करना चुनौती है। हालांकि आईसीएआर सभी चुनौतियों से निपटने में सक्षम है और खुद को एक ऐसे संगठन में बदलने के लिए प्रतिबद्ध है जो पूरी तरह से किसानों, उद्योग, उद्यमियों और उपभोक्ताओं के हितों से जुड़ा रहे। बदलते परिवेश के साथ तालमेल बैठाने के लिए परिषद समय-समय पर अपने दृष्टिकोण और रणनीतियों को अद्यतन करती रही है।
नीति आयोग ने मौजूदा विपणन ढांचे में सुधार करके किसानों के लिए लाभकारी मूल्य, उत्पादन वृद्धि, कृषि नीति में सुधार तथा राहत उपाय कर किसानों की आय दोगुनी करने के लिए चार सूत्री कार्य योजना पेश की है। इसके अलावा, भारत सरकार ने भी आय वृद्धि के सात स्रोत शामिल किए हैं।
आईसीएआर का मुख्य जोर कृषि-व्यवसाय बढ़ाने पर है। इसने अनुसंधान के आधार पर खासतौर से हर राज्य के लिए रणनीति बनाई है। इसमें एक समय में कई काम करने वाले कृषि उद्यमों से खेती के तौर-तरीके बदलने का सुझाव दिया गया है। इसके तहत यदि प्रसंस्करण और मूल्य शृंखला क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि रोजगार सृजित करने में मदद मिलेगी। साथ ही, कहा है कि प्रौद्योगिकी में तेजी से बदलाव को देखते हुए अत्याधुनिक आधुनिक तकनीक अपना कर किसान न केवल अपनी क्षमता, बल्कि आय भी बढ़ा सकते हैं, इसलिए उपयुक्त रणनीति बनाने की जरूरत है। कृषि को लाभदायक बनाकर उद्यमी युवाओं को खेती के लिए आकर्षित करना, पलायन रोकने के लिए कृषि के व्यवसायीकरण और बेहतर तरीकों को अपनाने जैसी नवीन रणनीति को बढ़ावा देने पर भी जोर दिया गया है। इसके अलावा, ई-सुविधाओं का विकास, कीटों और रोगों की निगरानी व समय पर नियंत्रण जैसे उपायों को अपनाने के अलावा, खेत में ही परीक्षण, खराब होने वाली वस्तुओं और खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के लिए विशेष रूप से कोल्ड स्टोरेज की सुविधा विकसित करना तथा सिंचाई, कृषि मशीनरी, ग्रामीण सड़कों और संचार को मजबूत करने जैसे कृषि बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए वित्तीय सहायता देने के सुझाव भी दिए गए हैं।
आईसीएआर की रणनीतियां
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सिंचाई में पानी के कुशल उपयोग के लिए लैंड लेजर लेवलर, मल्चिंग, उन्नत सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों के उपयोग को बढ़ावा देना, पारंपरिक जल भंडारण संरचना को सुदृढ़ करना, संरक्षित खेती को बढ़ावा देना, हरी खाद के लिए जायद मौसम में मूंग और ढेंचा को बढ़ावा देना, फसल विविधीकरण व कृषि वानिकी को बढ़ावा देना।
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दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए बकरी, मुर्गी पालन, डेयरी फार्मिंग उद्यम को अपनाना, उन्नत भैंस और अन्य दुधारू पशुओं का पालन। समय पर रोग प्रबंधन अभ्यास। गुणवत्ता चारा उत्पादन और उपलब्धता। दूध और दुग्ध उत्पादों का मूल्यवर्धन। दूध और दुग्ध उत्पादों के विपणन के लिए कौशल विकास। मिल्क चिलिंग प्लांट की स्थापना। जैव गैस संयंत्रों को लोकप्रिय बनाने के लिए अधिक प्रोत्साहन।
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उत्पादकता बढ़ाने के लिए बीज प्रतिस्थापन अभ्यास में तेजी लाना। विशिष्ट कृषि-पारिस्थितिक स्थितियों के लिए अधिक उपज वाली फसलों की उन्नत किस्मों का चयन। फसलों में कीट और रोग प्रबंधन के लिए बीज उपचार प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देना। मृदा स्वास्थ्य रिपोर्ट के आधार पर उर्वरक के संतुलित उपयोग और समय-निर्धारण को बढ़ावा देना।
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सब्जी और फसलों के बीज उत्पादन कार्यक्रम को बढ़ावा देना। बाय बैक पॉलिसी बनाना। बीज उत्पादन प्रौद्योगिकी के लिए कौशल विकास। बीज प्रसंस्करण, भंडारण और पैकिंग सुविधाओं की स्थापना करना।
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विभिन्न एकीकृत कृषि प्रणाली मॉड्यूल को बढ़ावा देना। जैसे- फसल उत्पादन-चारा फसल-पशुपालन-वर्मी कम्पोस्टिंग-मूल्य दूध उत्पादों को जोड़ना। फसल उत्पादन-बगीचे-सब्जी फसल-मधुमक्खी पालन, फसल उत्पादन-मशरूम उत्पादन-वर्मी कम्पोस्टिंग।
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कृषि लागत को कम करने के लिए चावल-गेहूं प्रणाली में शून्य जुताई प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देना। हैप्पी सीडर को बढ़ावा देना। धान में वैकल्पिक फसल स्थापना तकनीक (डीएसआर और यांत्रिक प्रत्यारोपण), जैविक खाद और जैव-उर्वरक को बढ़ावा देना। कीटनाशकों का विवेकपूर्ण उपयोग।
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कटाई के बाद के नुकसान को कम करना और मूल्यवर्धन करना, खाद्यान्न के लिए भंडारण सुविधाओं का निर्माण। खराब होने वाली सब्जियों और फलों के लिए कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं का निर्माण। परिवहन सुविधाओं का निर्माण। खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना।
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उपज के बेहतर मूल्य के लिए जिला स्तर पर ई-मार्केट/ई-मंडी का विकास। आनलाइन प्रबंधन के लिए एप का विकास। किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए जिला स्तर पर कॉल सेंटर का विकास। सभी उपज किसान से ब्लॉक स्तर पर एमएसपी पर खरीदी जानी चाहिए। प्रमुख फसल पैटर्न के आधार पर उद्योगों की स्थापना।
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बाजरा, मसाले और अन्य फसलों के लिए एमएसपी बढ़ाना। हितधारकों को अधिशेष उपज की खरीद और निपटान के लिए फंड का प्रावधान। प्रत्येक ब्लॉक में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना का कार्यान्वयन। अन्य कारकों विशेष रूप से सूखा, ओलावृष्टि आदि सहित अधिक फसलों के लिए फसल बीमा योजना का विकास।
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भूमिहीन किसानों, कृषि महिलाओं और ग्रामीणों के लिए कौशल विकास को बढ़ावा देना। नर्सरी उत्पादन, मशरूम उत्पादन, मधुमक्खी पालन, फल और सब्जियों का संरक्षण आदि।
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बंजर भूमि में पोषक तत्वों की अत्यधिक हानि और पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण के लिए नीम, पीपल, बरगद, सेहजान और अन्य सजावटी पौधों के रोपण को बढ़ावा देना। वर्षा जल के भंडारण के लिए जल पुनर्भरण प्रणाली को बढ़ावा देना और औषधीय पौधों को बढ़ावा देना, जिनके उत्पादन के लिए कम पानी और खराब भूमि की आवश्यकता होती है। जैविक कार्बन के लिए कृषि वानिकी को बढ़ावा देना।
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कृषि और पशुपालन में महिलाओं की प्रभावी भागीदारी, स्वास्थ्य व पोषण शिक्षा, सिलाई व कपड़ों के अलंकरण आदि के माध्यम से महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण।
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उपयुक्त स्थानों पर कृषि पर्यटन की स्थापना। खेतों पर जैविक गुड़, बिस्किट, लस्सी, मिठाई, स्वादयुक्त दूध और गन्ने का रस आदि मूल्य वर्धित उत्पाद तैयार करना। वेयर हाउस और कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं का सुदृढ़ीकरण।
(लेखक सूक्ष्म सिंचाई एवं नहरी क्षेत्र विकास प्राधिकरण, पंचकूला, हरियाणा के उप-निदेशक हैं)
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