कृषि कानून वापस जा चुके हैं। पांच राज्यों में चुनाव भी हो चुके हैं। उत्तर प्रदेश के परिणामों ने आंदोलनजीवियों को निराश किया है तो वहीं, पंजाब में राजनीति के नए खिलाड़ियों के चेहरे खिले हुए हैं। इस दौरान मंत्रिमंडलों के शपथ ग्रहण समारोहों की गहमागहमी के बीच तीन कृषि कानूनों का अध्ययन करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। समिति इन कानूनों को पूरी तरह निरस्त न करने के पक्ष में थी। इसके बजाय समिति ने निर्धारित मूल्य पर फसलों की खरीद का अधिकार राज्यों को देने और आवश्यक वस्तु कानून को खत्म करने का सुझाव दिया था। समिति के तीन सदस्यों में से एक अनिल घनवट ने यह रिपोर्ट जारी कर दी है। उन्होंने तीन मौकों पर रिपोर्ट जारी करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को पत्र लिखा था लेकिन कोई जबाव नहीं मिलने पर उन्होंने इसे स्वयं जारी कर दिया।
झूठ के चूल्हे पर आंदोलन की हांडी
अब रिपोर्ट सार्वजनिक हो जाने के बाद निंदा और उससे जुड़ी मंशा, इन दोनों पर चर्चाएं हो रही हैं। खेती-किसानी की बात है तो रूपक भी देसी होंगे। ये खुलासे बताते हैं कि झूठ का एक चूल्हा तैयार किया गया था जिस पर आंदोलन की हांडी चढ़ाई गई थी। और ये चूल्हा क्या था? चूल्हा जब बनाते हैं तो कम से कम तीन ईंट रखनी पड़ती है। इसमें पहली ईंट थी – एमएसपी खत्म हो जाएगा, दूसरी थी – मंडी बंद हो जाएगी, तीसरी थी – जमीन छिन जाएगी। तो इन तीन बातों को आधार बनाकर एक झूठा मुद्दा गरमाने की तैयारी की गई।
राजनीति की हांडी, कड्छी किसानी की
अब जब तथ्य सामने आ चुके हैं तो दिखता है कि ऐसे लोग, जो गले तक राजनीति में डूबे हुए हैं और खेत में कभी उतरे नहीं, वे हर मीडिया मोर्चे पर आंदोलन के लिए किसानों के हाथ पर ताल ठोक रहे थे। इसमें दो नाम खासतौर से है। एक हनान मुल्ला, दूसरा योगेन्द्र यादव।
दरअसल ये कांग्रेस और लेफ्ट का एक प्रायोजित खेल था। हनान मुल्ला मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं और योगेन्द्र यादव सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद में रह चुके हैं। योगेन्द्र यादव सलाहकार परिषद में रहते हुए बार-बार यह सलाह देते रहे हैं कि देश में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग और सुधार होना चाहिए। उन्होंने ढेर सारे आलेख लिखे हैं। और, अब वे इसी का विरोध कर रहे हैं। कांग्रेस और लेफ्ट इसलिए भी कहना चाहिए कि केरल में बारी-बारी से इन्हीं दोनों दलों की सरकार बनती रही है। और केरल ऐसा राज्य है जहां एपीएमसी है ही नहीं। यानी, सलाहकार परिषद में रहकर सुधारों की बात करेंगे और केरल में वह तंत्र ही नहीं होगा।
सामने किसान, पीछे अन्य ताकतें
किसान आंदोलन में गाजीपुर बॉर्डर की बात करें, सोनीपत बॉर्डर की बात करें। एक तरफ गुंडागर्दी, गर्मागर्मी हो रही थी। दूसरी तरफ सिंघु बॉर्डर पर तराई से लोगों को लाकर बैठाया गया। वहां कानून हाथ में लेने का ऐसा काम हुआ कि एक युवक को बेरहमी से मारा, उसके हाथ-पैर काटे, उसे रस्सी से बांधकर 100 मीटर घसीटा और जब उसने तड़प-तड़पकर दम तोड़ दिया तो उसके शव को आंदोलन के मंच के सामने बैरिकेड से लटका दिया। लोगों को लगा ही नहीं कि हमारे देश के किसान ऐसे भी हो सकते हैं? ये किसान थे?
इसके पीछे जो लोग थे, उस आह्वान करने वाले नेटवर्क को भी सबने देखा। हजारों लोगों को सिख फॉर जस्टिस के मोस्ट वांटेड अपराधी कनाडा में बैठे गुरपतवंत सिंह पन्नू का फोन गया। यानी सामने किसान हैं, पीछे राजनीतिक दल हैं, एक मोर्चे पर पीछे से अंतरराष्ट्रीय ताकतें हैं। चाहे खालिस्तानी मुद्दे को हवा देने वाली ताकतें हों या आईएसआई के पाकिस्तान में बैठे हुए तत्व हों। साथ ही, चीन ने भी इस आग को भड़काने का काम किया है। कुछ किसान नेताओं ने इसे रेखांकित करने की कोशिश की मगर उनकी बात सुनी नहीं गई। राहुल गांधी मिलान गए और वहां जाकर उन्होंने ट्वीट किया कि किसान आंदोलन जारी रहेगा। ध्यान दीजिए, वहां चीन की कई कंपनियां हैं। चीनी कंपनियों के प्रमुख कार्यालय हैं। वहां पर जाकर ही राहुल ये सारी चीजें क्यों कर रहे थे?
देश और समाज नकारात्मक तत्वों को पीछे छोड़ आगे बढ़ रहा है। कृषि क्षेत्र में सरकार के कदमों और समाज एवं किसानों की पहल से नई सुबह आ रही है। वर्ष प्रतिपदा के इस अवसर पर पाञ्चजन्य ने खेती-किसानी की उन नई मिसालों, नए रुझानों, नई उपलब्धियों को सामने रखा है, जो न सिर्फ गर्व का भाव जगाती हैं, बल्कि करोड़ों लोगों को प्रेरणा भी देती हैं।
यह भी सच है कि इस आंदोलन में काफी संख्या ऐसे लोगों की भी थी जो किसान बनकर आए थे। यह खुद अथवा इनकी पीठ पर हाथ रखने वाले अच्छे-खासे संपन्न लोग थे, जिनका उन किसानों से इनका कोई संबंध नहीं था, जिनके हक में यह कानून बना था। खेती-किसानी के जानकार यह खुलकर कहते हैं कि बलबीर सिंह राजेवाल और गुरनाम सिंह चढूनी जैसे कथित किसान नेता दरअसल बहुत बड़े व्यापारी हैं। इन बातों को खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि पंजाब में तराई और बिहार तक से अनाज से भरे ट्रकों से काफिले भर-भर कर आते रहे। यह सच्चाई है कि पंजाब में बिकने वाला सारा अनाज वहां की उपज नहीं था और इससे मुनाफा कमाने वाले लोग हरगिज किसान नहीं थे। अब जब ये रिपोर्ट बता रही है कि किसानों के साथ छल हुआ है और किसान कानून चाहते थे, तो इसका मतलब यह भी है कि किसानों का भला करने के नाम सजी हुई दुकानों का जाल कितना बड़ा है।
प्रतिबद्ध सरकार
इस सरकार में वास्तव में किसान हित के प्रति एक संकल्प दिखता है। कुछ लोग तो हैं जो किसानों को आगे रखकर उनकी कमर तोड़ने वाली राजनीति करते हैं। मगर इस सरकार ने जब लक्ष्य लिया कि किसानों की आय दुगुनी करेंगे तो इसमें राजनीति नहीं थी। यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि कदम पीछे खींचने से राजनीतिक नुकसान हो सकता था, फिर भी केंद्र सरकार ने किसानों के हित में कदम खींचे, क्योंकि पूरे देश में विभाजक राजनीति और बड़े रक्तपात की लकीरें खिंच गईं थी। यह कदम इसलिए भी राजनीतिक मंशाओं से परे है क्योंकि केन्द्र में वह सरकार है जिसने डीबीटी के माध्यम से किसानों को पैसा दिया है।
दूसरी तरफ, कांग्रेस और लेफ्ट की सरकारों वाले मंडी व्यवस्था से सूने केरल से इतर पंजाब सरकार ने एफसीआई के भुगतान पर शर्त रख दी थी कि उसमें आढ़ती की भी सहमति चाहिए।
इनसे उलट, केन्द्र सरकार लगातार किसानों के लिए काम कर रही थी। डीबीटी के जरिए पैसे देने के अलावा कोरोना काल में एक हजार मंडियों में एक लाख करोड़ रुपये के बुनियादी ढांचे पर काम हुआ है।
2014 के बाद जिन दलों, नेताओं को किसानों की सुध आने लगी, जिसके नाम पर ये कुलबुला रहे हैं, उन्हें बताना चाहिए कि 2014 तक स्वामीनाथन रिपोर्ट का क्या हुआ? तब तक यह रिपोर्ट रद्दी की टोकरी में पड़ी थी। इन्हें अचानक उसकी याद आती है। इनके पास एक भी मुद्दा नहीं था। इन्होंने कहा कि कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से जमीन छिन जाएगी। कई जगह यह पहले से चल रही है। कोई एक मामला तो हुआ हो जिसमें जमीन छिन गई हो? दरअसल, ये उन छोटे किसानों के लिए बनाए गए कानून थे जिनकी परवाह न कभी किसान नेताओं ने की, न राजनीति में किसानों के नाम पर ताल ठोकने वालों ने की।
इस रिपोर्ट के खुलासे ने बता दिया है कि उपद्रवी गठबंधनों की ताकत भी कम नहीं है और ये भावनात्मक मुद्दों को आधार बनाकर पूरे देश में आग लगा सकते हैं। इसलिए सही दिशा में सधे कदमों से आगे बढ़ने का संकल्प लेना समय की आवश्यकता है। और इन उपद्रवियों का इलाज समाज और इस देश का संविधान और कानून भी करेगा।
बहरहाल, चैत्र मास आ गया है। वर्ष प्रतिपदा से नव वर्ष प्रारंभ हो रहा है। गेहूं की बालियां खेतों में कट रही हैं। देश और समाज नकारात्मक तत्वों को पीछे छोड़ आगे बढ़ रहा है। कृषि क्षेत्र में सरकार के कदमों और समाज एवं किसानों की पहल से नई सुबह आ रही है। वर्ष प्रतिपदा के इस अवसर पर पाञ्चजन्य ने खेती-किसानी की उन नई मिसालों, नए रुझानों, नई उपलब्धियों को सामने रखा है, जो न सिर्फ गर्व का भाव जगाती हैं, बल्कि करोड़ों लोगों को प्रेरणा भी देती हैं।
@hiteshshankar
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