अचानक बुद्धा इन अ ट्रैफिक जाम फिल्म से चर्चा में आए फिल्म निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री की नई फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ कश्मीरी हिन्दुओं की उस त्रासदी को पर्दे पर उकेरती है, जिसे चित्रित करने के अब तक गंभीरता से प्रयास नहीं हुए हैं। जो भी कुछ प्रयास हुए, वे इतने अधूरे थे कि उन्हें प्रयास नहीं कहा जा सकता। यद्यपि यह फिल्म भी शतांश ही दिखाती है, परन्तु यह शतांश भी कुछ लोगों को इतना असहज कर रहा है कि वे अनाप-शनाप बोल रहे हैं, बिलबिला रहे हैं, परन्तु यह बिलबिलाहट क्यों है, यह नहीं समझ में आ रहा?
क्या झूठ खुलने से परेशान हैं?
इस फिल्म में कई संवाद ऐसे हैं, जो उस झूठ पर प्रहार करते हैं, जो इतने वर्षों से अकादमिक जगत में व्याप्त था। इस जगत से यह फिल्मों में फैला। जैसे कश्मीरियत का राग सभी आलापते थे, यह है कश्मीरियत, वह है कश्मीरियत। कश्मीर के इतिहास को मुगलों से जोड़ दिया गया, जबकि मुगलों ने कितनी बार कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार अर्थात् सम्पूर्ण हिन्दू जाति के विध्वंस का प्रयास किया, इसे छिपा लिया गया। कश्मीर के इतिहास में आदि शंकराचार्य का क्या स्थान है, इसे भी छिपा लिया जाता है। कश्मीर में शारदा पीठ क्यों है, कश्मीर के मंदिर कहां हैं? यदि वे टूटे हैं तो कहां हैं, यह सभी फिल्मों द्वारा छिपा लिया जाता था।
फिल्मों में कश्मीर
इस्लामी आतंकवाद का दौर आरम्भ होने से पहले कश्मीर में शूटिंग करना आम चलन था तथा अधिकांश फिल्मों में गाने आदि कश्मीर में ही फिल्माए जाते थे। पर जैसे-जैसे आतंकवाद बढ़ता गया, वैसे-वैसे शूटिंग कम होती गई। बाद में फिल्म मिशन कश्मीर की शूटिंग हुई, दिल से की शूटिंग हुई, और पिछले दिनों सलमान खान की बजरंगी भाईजान, और हैदर फिल्म की शूटिंग हुई। परन्तु इनमें कहीं भी कश्मीरी हिन्दू नहीं थे।
जब छाती को गोलियों से छलनी कर दियापं टिकालाल टपलू पेशे से वकील और जम्मू—कश्मीर, भाजपा के नेता थे। वह शुरुआत से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे। वकालत से वे जो कुछ भी कमाते उसे विधवाओं और उनके बच्चों के कल्याण हेतु दान दे देते थे। पूरे हब्बाकदल निर्वाचन क्षेत्र में हिन्दू—मुसलमान सभी उनका सम्मान करते थे और उन्हें बड़ा भाई कहकर संबोधित करते थे। टपलू जी उस समय कश्मीरी हिन्दुओं के सर्वमान्य और सबसे बड़े नेता थे। अलगाववादियों को उनकी यह छवि कांटे की तरह चुभ रही थी। सो उन्होंने उनकी हत्या करने की साजिश रची। श्री टपलू को आभास हो चुका था कि उनकी हत्या का प्रयास हो सकता है, इसीलिए उन्होंने अपने परिवार को सुरक्षित दिल्ली पहुंचा दिया और 8 सितम्बर को कश्मीर लौट आये। चार दिन बाद उनके आवास पर हमला किया गया। यह हमला उन्हें सचेत करने के लिए था, किंतु वे भागे नहीं और डटे रहे। महज दो दिन बाद 14 सितम्बर को सुबह जब अपने आवास से बाहर निकले तो उन्होंने पड़ोसी की बच्ची को रोते हुए देखा। पूछने पर उसकी मां ने बताया कि स्कूल में कोई कार्यक्रम है और बच्ची के पास पैसे नहीं हैं। टपलू जी ने बच्ची को गोद में उठाया, उसे पांच रुपये दिए और पुचकार कर चुप करा दिया। इसके बाद उन्होंने सड़क पर कुछ कदम ही आगे बढ़ाए कि आतंकवादियों ने उनकी छाती को गोलियों से छलनी कर दिया। कश्मीरी हिन्दुओं के सर्वमान्य नेता को मारकर आतंकियों ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि अब कश्मीर घाटी में ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ ही चलेगा। |
मिशन कश्मीर और हैदर, फना, फिदा जैसी फिल्में बनी, जिनमें कश्मीरी आतंकवाद का जिक्र तो था, परन्तु आतंकवाद के असली कारण एवं असली पीड़ितों पर कभी बात नहीं हुई! इतनी फिल्मों में कट्टर इस्लामी आतंकवादी छाए हुए थे, परन्तु उनमें उत्तरदायी कौन था, इस पर बात नहीं हुई। लगभग सभी फिल्मों में भारतीय सेना, अर्थात हिन्दुओं को ही खलनायक दिखाया गया।
एक ऐसा नैरेटिव गढ़ा गया जिसमें हिन्दू भारत, मुसलमान कश्मीर पर अत्याचार कर रहा है। परन्तु यह उत्तर किसी भी फिल्म में खोजने का प्रयास नहीं किया गया कि आखिर वह क्या कारण और शक्तियां थीं जिनके कारण मंदिर टूटते गए? क्या कारण था कि आदि शंकराचार्य का नाम तक मिटाने का प्रयास किया गया? क्या कारण था कि शारदा पीठ आज पाकिस्तान के कब्जे में है? वह कौन-सी विचारधारा थी, जिसने मंदिरों को ही नहीं तोड़ा अपितु पूरे कश्मीर की हिन्दू पहचान को खुरच -खुरच कर मिटा दिया। हां! वे उस चेतना को नहीं मिटा पाए क्योंकि जब तक एक भी कश्मीरी हिन्दू वहां पर उपस्थित है, वह उन टूटे मंदिरों के सामने से गुजरेगा तो उन चीखों और लपटों से घिर जाएगा जो अतीत में उसके ही पुरखों को लील चुकी हैं। जब तक एक भी कश्मीरी हिन्दू है, तब तक वे उस चेतना को नहीं मिटा सकते, जो चेतना भारत के बोध को जीवित रखे हुए है।
फिल्मों में एकतरफा विमर्श
कश्मीर में नब्बे के दशक को भुलाया नहीं जा सकता। तब कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के नेताओं की हत्याएं निशाना बनाकर की जा रही थीं। उन्हें सीमा पार से तो निशाना बनाया ही जा रहा था, कुछ स्थानीय तत्व भी इन साजिशों में शामिल थे। कश्मीर को आधार बनाकर जो भी फिल्में बनीं, सबमें यही दिखाया गया कि चूंकि सेना ने अत्याचार किए तो विवशता में बन्दूक उठाकर लोग आतंकी बन गए। परन्तु वहां सेना आखिर इतनी थी क्यों? इस पर कोई बात नहीं की गई!
आतंकियों ने जस्टिस गंजू को मार डालापं नीलकंठ गंजू, जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी। कुछ समय बाद वह हाई कोर्ट के जज बन चुके थे। 4 नवंबर, 1989 को वह दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी थी। आतंकियों ने जस्टिस गंजू से मकबूल बट की फांसी का प्रतिशोध लिया था। यह वह समय था जब मस्जिदों से नारे लग रहे थे कि —जलजला आ गया है, कुफ्रÞ के मैदान में, लो मुजाहिद आ गये हैं मैदान में। आतंकियों ने जज की हत्या करके भारतीय न्याय, शासन और दंड प्रणाली का चुनौती दे दी थी। उन्हें किसी भीतर का भय नहीं रह गया था। |
इस एकतरफा विमर्श ने जैसे यह स्थापित कर दिया कि कश्मीर में दरअसल दूसरा पक्ष तो है ही नहीं। तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने कश्मीरी हिन्दुओं को वहां से बाहर निकाल लिया और कश्मीर पर भारत ने जबरन कब्जा कर लिया। अब सेना अत्याचार करती है। पर सेना पर क्या अत्याचार होते हैं, सेना के जवानों के साथ वहां के अलगाववादी नेता और तत्व कैसा व्यवहार करते हैं, इस पर बात करने के लिए फिल्में नहीं बनीं!
आतंकवाद को ग्लैमराइज किया गया, उसे बेचा गया। इस बात को पूर्णतया स्थापित किया गया कि कश्मीर में यदि कोई खलनायक है, तो वह है सेना!
प्रोपेगैंडा फिल्मों की वाहवाही
सबसे अधिक रोचक तो द कश्मीर फाइल्स पर हो रहे विवाद यह बिंदु है कि हैदर और शिकारा जैसी प्रोपेगैंडा फिल्मों को सराहने वाला एक बड़ा वर्ग, जो अब तक इस नैरेटिव को पालता रहा कि हिन्दू भारत की सेना मुस्लिम कश्मीर पर अत्याचार कर रही है, अचानक से प्रस्तुत फिल्म को ही प्रोपेगेंडा कह रहा है।
शेक्सपियर के नाटक हैमलेट पर आधारित फिल्म हैदर का एक दृश्य पाठकों की स्मृति में अभी तक ताजा होगा। वह दृश्य फिल्मों द्वारा कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार की चेतना पर किया गया सबसे घातक प्रहार था, इस दृश्य जिसमें शाहिद कपूर अपनी अम्मी और चाचू के निकाह के अवसर पर शैतान को दिखाते हुए नाच रहा है। विशाल भारद्वाज ने वह दृश्य को और कहीं नहीं, बल्कि हिन्दुओं की आस्था के केंद्र मार्तंड मंदिर के अवशेषों के मध्य फिल्माया। हिन्दुओं के मंदिर के अवशेष, जो अभी जीवित होने का प्रमाण देते हैं, परन्तु उसकी पहचान जोड़ दी गई शैतान के साथ।
ऐसे दृश्य सिने माध्यम की शक्ति होते हैं। अब जब भी कश्मीर के मार्तंड मंदिर का उल्लेख होगा तो यही कहा जाएगा, कि जहां हैदर के शैतान वाले गाने की शूटिंग हुई थी और हिन्दुओं के मंदिर में जूते पहनकर नाच हो रहा है, उसे निकाह के जश्न का स्थान बना दिया गया। जहां पर सूर्य की आराधना होती थी, उसे नाच-गाने का स्थल बना दिया गया।
दिल को निशाना बनाकर मारी गोलीपुलवामा के खोनमुहा इलाके में रहने वाले 57 वर्षीय पुष्कर नाथ राजदान अपने घर में थे। उनके साथ 2 बेटे और एक बेटी समेत पत्नी भी मौजूद थीं। 12 अक्टूबर, 1990 को एक दिन कुछ आतंकी जबरन घर में घुसे और राजदान को खींचकर बाहर ले गये। उनकी पत्नी और बच्चे चीखते-चिल्लाते रहे, लेकिन कोई मदद को आगे नहीं आया। आतंकियों ने पुष्कर नाथ के दिल को निशाना बनाते हुए गोली मारी और फरार हो गए। घरवाले उनके तुरंत श्रीनगर के बादामी बाग अस्पताल लेकर आये, जहां उनका आपरेशन किया गया, लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका। |
इसी प्रकार निर्देशक जब विधुविनोद चोपड़ा ने शिकारा फिल्म बनाई तो उसका प्रचार उसी वर्ग ने किया जो आज द कश्मीर फाइल्स का विरोध कर रहा है। यह कहा गया कि यह फिल्म कश्मीरी हिन्दुओं की पीड़ा को बताने के लिए है। परन्तु शीघ्र ही यह अनुभव हो गया कि यह एक बहुत बड़े छल के अतिरिक्त कुछ नहीं है! इस छल का विरोध कश्मीरी हिन्दुओं ने ही किया था!
द कश्मीर फाइल्स इस पूरे झूठे विमर्श या कहें, नैरेटिव पर भारी है, वह उस आईने को पूरी तरह तोड़ देती है जिस आईने में भारत विरोधी कश्मीर को देखा जाता था और जिसमें कश्मीरी हिन्दू सिरे से थे ही नहीं!
पाठकों को सेनबारी का वह हत्याकांड स्मरण होगा जिसमें सीपीआई (एम) कार्यकर्ताओं की भीड़ ने घरों में आग लगा दी, परिवार के दो भाइयों की हत्या कर दी और फिर मां को उनके खून से सने चावल खिलाए गए थे। इन दृश्यों ने उन सभी अत्याचारों को स्मृति में अंकित कर दिया है। यही इस फिल्म की जीत है!
यह वामपंथियों और कट्टर इस्लामिस्ट के इतने वर्षों से गढ़े गए हर नैरेटिव को दृश्यों के जरिए तोड़ती है। यही कारण है कि कथित बुद्धिजीवी अब तड़प रहे हैं, इसके विरोध में लेख दर लेख लिखे जा रहे हैं। परन्तु प्रश्न यही है कि क्या चेतना को मारना इतना सरल है जितना वामपंथी और दाउद के पैसों पर फिल्म बनाने वाले लोग समझते हैं?
यदि उन्हें स्वयं इस बात का उत्तर ज्ञात होता तो आज उनकी यह स्थिति न होती! द कश्मीर फाइल्स चेतना को ले जाकर वहां छोड़ देती है, जहां से इतिहास के सभी पन्ने एकदम स्पष्ट दिखाई देते हैं और यहीं पर फिल्म जीत जाती है और वामपंथी एवं कट्टर इस्लामी नैरेटिव परस्त हो जाता है।
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