पंकज दास
नेपाल इन दिनों दो ताकतवर देशों के लिए समर भूमि बनता जा रहा है। क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से नेपाल भले ही बहुत छोटा देश हो, लेकिन विश्व मानचित्र में यह जिस स्थान पर बसा है, वह दुनिया के तमाम देशों के लिए सामरिक और रणनीतिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। एक ओर चीन और दूसरी ओर तीन तरफ से भारत से घिरा होने के कारण दोनों देशों की नेपाल में दिलचस्पी तो स्वाभाविक है। लेकिन इन दोनों देशों से भी अधिक अमेरिका और यूरोपीय संघ सहित पश्चिमी देशों और संयुक्त राष्ट्र तक, जिस तरह से नेपाल को विशेष महत्व दे रहे हैं, उससे भी पता चलता है कि यह देश उनके लिए भी कितना महत्वपूर्ण है।
चीन और अमेरिका की जोर-आजमाइश
अमेरिका मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन यानी एमसीसी नाम से दुनिया के करीब 50 देशों में अपनी परियोजना चला रहा है। लेकिन नेपाल भी इसे स्वीकार करे, इसको लेकर अमेरिका ने अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया। इधर, चीन दुनिया के करीब 142 देशों में अपनी महत्वाकांक्षी योजना बीआरआई पर काम कर रहा है। वह नेपाल को भी इसमें शामिल करने के लिए अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहा है। उसने पूरा जोर लगा दिया कि नेपाल में अमेरिकी परियोजना एमसीसी लागू न हो। नेपाल में हर हाल में एमसीसी लागू हो, इसके लिए अमेरिका ने अपने सहायक विदेश मंत्री को नेपाल भेजा। साथ ही, अमेरिकी विदेश मंत्री लगातार नेपाल के नेताओं के साथ दूरभाष से संपर्क में रहे। जितनी राजनीतिक और कूटनीतिक ताकत एमसीसी को लागू करने के लिए अमेरिका लगा रहा था, उससे कहीं अधिक कूटनीतिक और राजनीतिक दबाव चीन दे रहा था। खुद चीन के विदेश मंत्री ने नेपाल के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर सभी दलों के नेताओं को फोन किया और एमसीसी को चीन के खिलाफ अमेरिकी साजिश करार देकर इसे रोकने के लिए दबाव डाला। चीन की कम्युनिष्ट पार्टी के अंतरराष्ट्रीय विभाग के प्रमुख लगातार नेपाली नेताओं को एमसीसी छोड़कर बीआरआई को आगे बढ़ाने के लिए दबावमूलक आग्रह करते रहे।
चीनी विदेश मंत्री का दो दिवसीय दौरा
अब जबकि चीन के विरोध के बावजूद नेपाल की संसद ने एमसीसी को पारित कर दिया है, तब भी चीन हर हाल में उसे बीआरआई को आगे बढ़ाने के लिए कह रहा है। अपने नाक के नीचे अमेरिकी प्रभाव बढ़ने से चिंतित चीन अपने विदेश मंत्री को मार्च के आखिरी हफ्ते में नेपाल के दो दिवसीय दौरे पर भेज रहा है। 2017 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की यात्रा के दौरान ही नेपाल ने बीआरआई का हिस्सा बनने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किया था, लेकिन पांच साल बीतने के बाद भी यह परियोजना धरातल पर नहीं आ सकी। अब चीन अपने विदेश मंत्री के नेपाल दौरे से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहता है कि नेपाल बीआरआई को आगे बढ़ाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करे। लेकिन नेपाल में अभी तक इस पर आम सहमति नहीं बन पाई है। अमेरिका बिल्कुल नहीं चाहता कि नेपाल बीआरआई के नाम पर चीन के ऋणजाल में फंसे। हालांकि एमसीसी के नाम पर 55 करोड़ अमेरिकी डॉलर देने वाले अमेरिका ने बीआरआई से दूरी बढ़ाने के लिए नेपाल को 65.9 करोड़ डॉलर का एक और आर्थिक पैकेज देने का प्रस्ताव दिया है। जाहिर है कि अमेरिका नहीं चाहता कि नेपाल में चीन की उपस्थिति और दखलंदाजी रहे। इसी तरह, चीन भी चाहता है कि अमेरिका सहित पश्चिमी देशों की नेपाल में पकड़ मजबूत हो।
अमेरिका के बढ़ते प्रभाव से चीन चिंतित
चीन को यह अच्छी तरह से मालूम है कि नेपाल की भूमि का प्रयोग अमेरिका सहित पश्चिमी देश क्यों कर रहे हैं? एमसीसी पारित होने के तुरंत बाद अमेरिकी राजदूत सहित करीब आधा दर्जन यूरोपीय संघ के देशों के राजदूत तिब्बती शरणार्थियों के साथ उनका पर्व मनाने के लिए काठमांडू के एक गुम्बा में दिखाई दिए।
चीन की चिंता भी यही है कि अमेरिका और पश्चिमी देश नेपाल के रास्ते तिब्बत की आज़ादी के लिए चल रहे आंदोलन को बढ़ावा दे सकते हैं। वे नेपाल में तिब्बती गतिविधियों को सहयोग व समर्थन दे सकते हैं। जिस तरह से एमसीसी परियोजना पर संसद में प्रस्तािव पारित करने के बाद नेपाल की विदेश नीति का झुकाव अमेरिका की ओर हो गया है, उससे चीन का चिंतित होना स्वाभाविक है।
संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका का समर्थन
यही नहीं, हाल ही में रूस-यूक्रेन मुद्दे पर नेपाल ने संयुक्त राष्ट्र महासभा और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में रूस के खिलाफ लाए गए प्रस्तावों का समर्थन किया। इसे यूक्रेन मुद्दे पर अमेरिका का समर्थन माना जा रहा है। हालांकि नेपाल के विकास में रूस काफी सहयोग करता है, जबकि यूक्रेन के साथ उसका नाम मात्र का कूटनीतिक संबंध है। बावजूद इसके, अमेरिकी प्रभाव में नेपाल सरकार पर रूस के खिलाफ मतदान करने के आरोप लग रहे हैं। सरकार भले ही यह तर्क दे कि नेपाल हमेशा छोटे देशों की स्वतंत्रता और संप्रभुता के पक्ष में तथा बड़े देशों द्वारा किए जाने वाले इस तरह के आक्रमण का विरोध करता रहा है। लेकिन नेपाल सरकार के पास कुछ सवालों के जवाब नहीं हैं। जैसे- क्रीमिया को यूक्रेन से अलग किया गया, तब नेपाल चुप रहा। फिर जनमत संग्रह के नाम पर रूस द्वारा क्रीमिया को अपने भूभाग में विलय कराने के बाद जब संयुक्त राष्ट्र में मतदान हुआ, तब भी नेपाल ने यूक्रेन का साथ न देकर तटस्थ रहने का फैसला किया था। उस समय नेपाल ने अपनी असंलग्न विदेश नीति का हवाला देते हुए किसी का साथ नहीं दिया था।
बहरहाल, चाहे विदेश नीति हो या अंदरूनी राजनीति, नेपाल दो पाटों के बीच फंसा हुआ है। एक ओर उस पर चीन और अमेरिका का बाहरी दबाव है, तो दूसरी ओर चीन समर्थित सत्तारूढ़ वामपंथी दलों का अंदरूनी विरोध। बात-बात पर सरकार गिराने की धमकी देने वाले वामपंथी दल भी नहीं चाहते कि नेपाल किसी भी सूरत में चीन से दूर जाए। सत्ता में साझीदार माओवादी सहित अन्य कम्युनिस्ट दल एमसीसी को राष्ट्रघाती बता रहे हैं। वामपंथी दलों का कहना है कि एमसीसी के बहाने अमेरिकी सेना नेपाल आ सकती है, जिससे चीन की सुरक्षा पर खतरा हो सकता है।
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