देबप्रिया घोष
भारत में सबसे लंबे समय से महिला मुख्यमंत्रियों की सूची में शामिल ममता बनर्जी महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में अपने राज्य को सबसे प्रमुख स्थान पर रखने में कतई विफल नहीं हुई हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में बंगाल लगातार प्रमुख राज्य बना हुआ है भले ही राज्य में 2011 से महिला मुख्यमंत्री हैं।
पार्क स्ट्रीट के बहुचर्चित बलात्कार (6 फरवरी, 2012) मामले में राज्य सरकार का उदासीन रुख साफ था। मुख्यमंत्री के उदासीन रवैये से आम लोगों में भी काफी आक्रोश था। कामदुनी बलात्कार और हत्या मामले (7 जून, 2013) में भी शीघ्र न्याय दिलाने के लिए ममता सरकार ने त्वरित अदालत में जाने को लेकर कोई तत्परता नहीं दिखाई। नंदीग्राम में तापसी मलिक का परिवार अब भी अपनी मृत बेटी के लिए न्याय की बाट जोह रहा है; जबकि नंदीग्राम और सिंगुर के मुद्दे ममता बनर्जी द्वारा बंगाल में वाम मोर्चा सरकार को सत्ता से बदखल करने के प्रमुख कारक थे।
जून, 2013 में छपी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी)की एक रपट कहती है कि ममता बनर्जी शासित पश्चिम बंगाल का महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले वाले राज्यों की सूची में शीर्ष पर होना, राज्य द्वारा महिलाओं की सुरक्षा में विफलता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। एनसीआरबी के आंकड़ों के हवाले से मीडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध में अकेले बंगाल की हिस्सेदारी 12.67% है और यहां 2000 से ज्यादा बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। महानगरों में दिल्ली और बंगलुरु के बाद राजधानी कोलकाता महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहरों की सूची में तीसरे स्थान पर है।
महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में बंगाल का लगातार संवेदनहीन रुक एनसीआरबी के आकड़ों व रपटों से स्पष्ट है। दिसंबर, 2017 की एक चैनल की प्रस्तुत अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार बंगाल महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित इस काले दाग की ओर संकेत करती है। एनसीआरबी की 2016 में जारी रिपोर्ट बताती है कि मानव तस्करी, जिसमें वेश्यावृत्ति एवं यौन शोषण शामिल है; जबरन मजदूरी, विवाह, भीख मांगने और अंग प्रत्यारोपण जैसे अपराधों के मामले की सूची में बंगाल शीर्ष पर है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार हालिया समय में देश में 2019 की तुलना में 2020 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में 8.2% प्रतिशत की कमी आई है। पर बंगाल इससे बेअसर है और लगातार शीर्ष पर अपना स्थान कायम रखे हुए है। ओडिशा और बंगाल में 2019 की तुलना में 2020 में भी महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में बढ़ोतरी हुई। इस चीज से राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) के माथे पर भी परेशानी की लकीरें हैं और उसने महिलाओं की सुरक्षा के प्रति अपनी चिंता जताई है।
ताजा कड़ी में 20-21 चुनाव के बाद हिंसा को भी कम करके नहीं आंका जा सकता, भले ही मुख्य धारा के मीडिया ने इस मुद्दे को सुर्खी नहीं बनाया। शक्ति की इस धरा पर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया और जब बंगाल में राजनीतिक हिंसा की परंपरा जारी रही तो 'बंगला निजेर आई के चाई' बन गया। सोशल मीडिया पर कई विचलित करने वाली घटनाएं साझा की गई और दावा किया गया कि बंगाल में 7,000 से ज्यादा महिलाओं की इज्जत से खिलवाड़ किया गया। लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार और पुलिस ने लीपापोती का प्रयास किया और बिना कोई सुरक्षा प्रदान किए स्थिति को सामान्य दिखाने की कोशिश की। चंद पीड़िताएं अदालत तक पहुंचने में सफल रहीं। सामूहिक बलात्कार की शिकार दो पीड़िताओं, जिसमें एक 60 वर्ष की वृद्धा और एक 17 साल की नाबालिग है, ने उच्चतम न्यायालय पहुंचकर जांच की गुहार लगाई। एक वेबसाइट के एक आलेख, कि किस तरह महिलाएं पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद हिंसा की मार झेल रही हैं, ने महिला मुख्यमंत्री के राज में उभरी राज्य की छवि को उघाड़ कर रख दिया।'मां-माटी-मानुष' का नारा खोखला बन गया जिसकी रत्ती भर कीमत नहीं बची। राजनीति, लिंग, जाति और धर्म से बेपरवाह सरकार अंतत: किसी भी तरह की समानता को बढ़ावा देने में विफल रही जबकि बंगाल में समृद्ध सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत है।
भारत और विशेष रूप से बंगाल मातृ शक्ति की पूजा की धरती है और यहां महिलाओं के लिए एक विशेष भाव है। शरद काल में मां दुर्गा की पूजा का त्योहार किसी भी हिंदू बंगाली के लिए सबसे बड़ा धार्मिक त्योहार और उत्सव है। दुर्गा को भोजन की देवी अन्नपूर्णा या अन्नदा के रूप में भी पूजा जाता है। माना जाता है कि वे जगत की रक्षक हैं और इसलिए उन्हें जगतधात्री के रूप में भी पूजा जाता है। लेकिन जो राज्य की नियंता हैं और बंगाल में तीसरी बार जीती हैं, वे अपनी बेटियों को खतरे से सुरक्षा देने में विफल रहीं। महिलाओं को देवी का अवतार समझा जाता है।
सदियों पुरानी इस परंपरा में समाज में महिलाओं को उनके जीवन के प्रत्येक चरण में आदर-सम्मान दिया जाता है। अविवाहित लड़की को कन्या-कुमारी का स्वरूप माना जाता है, यहां तक कि मातृ पूजा वाली संस्कृति में कुमारी पूजा भी अत्यंत प्रासंगिक है। विवाह हो जाने के उपरांत दांपत्य जीवन के दायित्वों का पालन करने वाली स्त्री को उमा (भगवान शिव की पत्नी) माना जाता है। आम जन में नैतिक मूल्यों और अस्तित्वगत चेतना के विकास पर भारतीय धार्मिक संस्कृति का संपूर्ण असर है। मां काली बंगाल में सबसे अधिक पूजी जाने वाली देवियों में हैं, जिनकी वार्षिक पूजा का उत्सव दुर्गा पूजा के तीन सप्ताह बाद अमावस्या को पड़ता है (ग्रेट वूमन आॅफ इंडिया, 1952, पृष्ठ 78)।
इस तरह से देखें तो शक्ति की उपासना के नाम पर महिला शक्ति के विकास में बंगाल का सर्वप्रमुख स्थान है। लेकिन दुर्भाग्य से भारतभूमि के इस भाग में महिलाओं की सुरक्षा सवालों के घेरे में है। समाज में महिलाओं को आदरणीय स्थान देने के पीछे जो गहरी दार्शनिक समझ थी, वह सत्ता के सौदागरों के मन में कोई भावना या करुणा जगाने में विफल रही। यहां ध्यान देने योग्य बिंदु यह है कि उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में भारतीयों में देशभक्ति की भावना को मातृ वंदना ने काफी हद तक प्रभावित किया। धरती हमारी मां है और उसे हम भारत माता से जोड़कर देखते हैं। यह भाव इस देश की जनता की राजनीतिक चेतना और धार्मिक भावनाओं के सम्मिलन को व्याख्यायित करता है। बंकिम चंद्र द्वारा रचित राष्ट्रगीत वंदे मातरम् राजनीतिक विचारधारा के अंदर धार्मिक भावनाओं की उपस्थिति के सूचक का शुद्ध दस्तावेजी उदाहरण है (ग्रेट वूमन आॅफ इंडिया, 1953, पृष्ठ 86)।
एक महिला मुख्यमंत्री शासित राज्य के इस स्याह पहलू को देखते हुए राज्य की महिलाओं का अपनी पूरी शक्ति से जागना अत्यंत महत्वपूर्ण है। महिलाएं अपनी अंतर्निहित आंतरिक शक्ति को जगाएं और माताओं एवं बेटियों की सुरक्षा के मुद्दे पर सत्ता से सवाल करें। देवी-शक्ति के दर्शन में धार्मिक चेतना और मूल्य बोध की पुनर्स्थापना की भरपूर संभावनाएं हैं। इसी प्रक्रिया के माध्यम से हम लोगों के सांस्कृतिक जीवन में रंग भर सकते हैं और इसकी गुणवत्ता को बेहतर कर सकते हैं।
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