रेखा शर्मा
विवाह की कानूनी उम्र के संबंध में भारत में महिलाओं के साथ पुरुषों से अलग व्यवहार किया जाता रहा है। दशकों से चले आ रहे अलग-अलग कानूनी मानकों ने इस रूढ़िवादी धारणा को पुष्ट ही किया है कि पत्नियों को अपने पति से छोटा होना चाहिए। इस व्यवस्था से यह धारणा भी कायम रखी जाती है कि महिलाएं समान उम्र के पुरुषों की तुलना में अधिक परिपक्व होती हैं, और इसलिए उन्हें तुलनात्मक रूप से कम उम्र में शादी करने की अनुमति दी जा सकती है।
महिलाओं के लिए भी विवाह की कानूनी उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने का केंद्र का फैसला हमारी बेटियों के साथ अब तक हुए भेदभाव को दूर करने की दिशा में एक ठोस कदम है। यह महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में सराहनीय कदम है और इससे यह सुनिश्चित होगा कि उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने और करियर बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। मोदी सरकार के अधीन पिछले सात वर्ष में हमारे देश की नीतियों में एक सकारात्मक बदलाव आया है और वे अब महिलाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। हम एक ऐसा नया भारत देख रहे हैं जिसमें लड़कियों को स्वतंत्रता प्राप्त करने और अपनी क्षमताओं को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ने के अवसरों के साथ सक्षम बनाने को प्राथमिकता दी जा रही है।
कम उम्र में शादी होने के परिणामस्वरूप महिलाओं पर परिवार और प्रजनन संबंधी भूमिकाएं लाद दी जाती रही हैं जबकि उनके स्वास्थ्य और विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसा होने से महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और आर्थिक विकास के अवसरों तक पहुंचने में भी बाधा पड़ती है। लड़कियों की कम उम्र में शादी होने से उनके सामाजिक संबंध विकसित करने और नागरिक जीवन में भाग लेने की संभावना भी सीमित हो जाती है। बाल विवाह महिलाओं के सामने कम उम्र में गर्भावस्था, कुपोषण और शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक शोषण के खतरे पैदा करता है।
विवाह की कानूनी उम्र बढ़ाने का सीधा प्रभाव लैंगिक असमानताओं और भेदभाव समाप्त करने के अन्य प्रयासों जैसे लड़कियों का जल्दी स्कूल छोड़ना, जल्दी गर्भधारण से स्वास्थ्य संबंधी जोखिम जिसमें मातृ मृत्यु दर, महिला श्रम शक्ति की कम भागीदारी आदि पर रोक लगेगी। विवाह की कानूनी उम्र बढ़ने से महिलाओं को श्रम बाजार में भाग लेने के अवसर मिलेंगे। इससे महिलाओं के स्वास्थ्य और आर्थिक कल्याण से जुड़े पक्षों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
सरकार का निर्णय न केवल महिलाओं को सशक्त करेगा बल्कि भारत के विकास चक्र में उनकी भागीदारी को भी बढ़ाएगा और उन्हें अपने जीवन में आत्मानिर्भर बनने में मदद करेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में, ‘हमारी बेटियां आगे बढ़ने और समान अवसर प्राप्त करने के लिए उच्च अध्ययन करना चाहती हैं; इसलिए लड़कियों के हित को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया गया है। बेटियों की शादी की उम्र बढ़ाकर 21 साल करने से लड़कियों के लिए समान अवसर सुनिश्चित होंगे और यह भी सुनिश्चित होगा कि कम उम्र में शादी उनकी शिक्षा और करियर में बाधा न बने।’
हमारे समाज में विवाह को जीवनपर्यंत चलने वाला समझौता माना जाता है। यह आमतौर पर महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा और न्यायिक विवेक संबंधी इस मूल्य से जुड़ा होता है कि महिलाओं को अपने पति से कम उम्र का होना चाहिए। उम्मीद है कि केंद्र के नए फैसले से इस प्रतिगामी धारणा पर विराम लगेगा। यह भी महत्वपूर्ण है कि लड़कियां और लड़के विवाह जैसी गंभीर प्रतिबद्धता में प्रवेश करने से पहले शारीरिक और भावनात्मक परिपक्वता प्राप्त करें। पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता सुनिश्चित करने के लिए उन्हें विभिन्न अवसरों तक समान रूप से पहुंचने की अनुमति दी जाए।
पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता की मांग को एक सामाजिक मुद्दा माना जाना चाहिए और समाज की मानसिकता में बदलाव ही ठोस बदलाव लाने की कुंजी है। माता-पिता और समाज द्वारा शादी के लिए युवतियों का उत्पीड़न नहीं किया जाना चाहिए। हमें महिलाओं को सशक्त बनाना चाहिए ताकि वे स्वयं अपने निर्णय ले सकें। एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था जरूरी है जो लड़कियों को स्वास्थ्य, विवाह, वित्त और शिक्षा सहित उनके जीवन के हर पहलू पर उन्हें खुद नियंत्रण रखने का अधिकार दे।
भारत ‘महिलाओं के विकास’ से ‘महिलाओं के नेतृत्व में विकास’ के संक्रमण काल से गुजर रहा है और इस नए भारत की वास्तुकार और नेतृत्वकर्ता लड़कियां हैं। यह सुनिश्चित करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि कोई भी लड़की अपने सपनों को साकार करने से पीछे न रह जाए।
(लेखिका राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष हैं)
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