आज महिलाएं हर उस काम को कर रही हैं, जिसे कुछ समय पहले तक माना जाता था कि यह तो पुरुषों का काम है। जैसे होटल चलाना। लेकिन आज अनेक ऐसे होटल मिल जाएंगे, जिन्हें केवल और केवल महिलाएं चला रही हैं। एक ऐसा ही होटल ‘शी हाट’ के नाम से हिमाचल प्रदेश में है। यहां काम करने वाली महिलाएं घरेलू हैं। एकदम ठेठ ग्रामीण। कोई तामझाम नहीं। फिर भी सोच और काम का तरीका एक दम कॉर्पोरेट। ये व्यावसायिक अंदाज में बात करती हैं। खुद पर विश्वास इतना कि उनके सामने बड़ा से बड़ा कारोबारी भी बौना पड़ जाए। ये होटल और घर साथ-साथ चलाती हैं। ये महिलाएं साबित कर रही हैं … एक मौका तो दीजिए, फिर देखिए महिलाएं क्या कर सकती हैं।
सशक्त स्त्री, समर्थ भारत
बता दें कि शिमला-नहान हाईवे पर पच्छाद विधानसभा क्षेत्र के गांव बाग पशोग में हिमाचल सरकार ने यह प्रयोग किया है। ‘शी हाट’ नाम से एक एथेनिक रेस्तरां चलाया जा रहा है। यहां हिमाचल के वे व्यंजन, जो लुप्त होते जा रहे हैं, आसानी से उपलब्ध हैं। इन व्यंजनों को पारंपरिक तरीके से ही बनाया जाता है और उसी तरह से परोसा जाता है।
करीब 70,00,000 रुपए की लागत से ‘शी हाट’ को तैयार किया गया है। इसे 25 महिलाओं का एक स्वयं सहायता समूह संचालित कर रहा है। यहां हिमाचल के पारंपरिक खानों के साथ-साथ जैविक उत्पाद, ‘होम स्टे’ की सुविधा भी उपलब्ध है। इसके साथ-साथ यह पूरी तरह से सौर ऊर्जा से संचालित है। यहां बरसात के पानी का संग्रह किया जाता है। इसके साथ ही यहां एक्यूप्रेशर ट्रैक और वायु शुद्ध करने वाले संयंत्र भी लगाए गए हैं।
तीन पाली में होता है काम
यहां काम के घंटे तय नहीं हैं। जब जिस महिला सदस्य को अपने घर के काम से फुर्सत मिलती है वह ‘शी हाट’ में आ जाती है। यहां कोई प्रबंधक नहीं है। कोई ‘वेटर’ या ‘कुक’ भी नहीं है। सब काम महिलाएं खुद ही करती हैं। खाना बनाने से लेकर परोसने तक। कोई एक महिला कार्यकर्ता बर्तन उठाने का काम करती है, तो कोई बिल बनाती है। समूह की प्रमुख अनीता शर्मा ने बताया कि यहां किसी के लिए कोई काम तय नहीं है। जिसके सामने जो काम आता है, उसे वह कर देती है। इस भाव के साथ काम करने से अभी तक का सफर बेहद शानदार है।
उल्लेखनीय है कि दिसंबर, 2020 में ‘शी हाट’ की शुरुआत हुई थी। बीच में कोविड का दौर भी आया। इसके बाद भी रेस्तरां का काम बहुत अच्छा चल रहा है। अनीता ने बताया कि यहां खाने-पीने का घरेलू सामान इस्तेमाल होता है। सुबह सात बजे से लेकर शाम के सात बजे तक काम किया जाता है।
समूह की एक सदस्य रीना शर्मा ने बताया कि यहां वह व्यंजन उपलब्ध कराया जाता है, जो विशुद्ध हिमाचली है, जो यहां के गांव-देहात में खाया जाता है। यह पारंपरिक खाना है, जिसे पारंपरिक तरीके से तैयार किया जाता है। जैसे कुछ व्यंजन पत्थर पर तैयार होते हैं। इसके लिए उसी तरह का चूल्हा तैयार किया गया है, जिस तरह का चूल्हा आम हिमाचली खानों में भी होता है। इन खानों में लुसके, पतोंडे, पटांडे, हिमाचली दाल, शक्कर और घी का इस्तेमाल किया जाता है। रीना शर्मा ने बताया कि समस्या यह है कि ये व्यंजन हमारी रसोई से भी गायब हो रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के बहुत कम परिवार इस तरह के व्यंजनों का इस्तेमाल करते हैं। जबकि ये पौष्टिक तो हैं ही, इसके साथ ही हमारी पहचान भी हैं, क्योंकि व्यंजन अपने आप में एक संस्कृति है। यदि कोई खाना या रेसिपी खत्म हो जाए तो समझो, वह एक संस्कृति खत्म होने जैसा है। हम ‘शी हाट’ के माध्यम से लुप्त हो रही अपनी देसी रेसिपी को बचाने और इसे बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं।
सरकार ने की मदद
अनीता शर्मा ने बताया कि इस प्रयोग की शुरुआत अचानक हुई। कुछ तय नहीं था। सिरमोर के तत्कालीन उपायुक्त डॉ. राजकृष्ण परूथी हाईवे पर एक शौचालय बनाना चाहते थे। तभी ख्याल आया कि क्यों न एक ढाबा बना दिया जाए। इस तरह से धीरे-धीरे ‘शी हाट’ की बुनियाद पड़ती चली गई। उन्होंने सरकार से मदद मांगी। सरकार इसके लिए तैयार हो गई। गांव की पंचायत से बातचीत हुई। इसलिए जो ढाबा बनना था, वह विशुद्ध पारंपरिक हिमाचली खाना उपलब्ध कराने वाले ‘शी हाट’ में तब्दील हो गया। इसके संचालन के लिए 25 महिलाओं का एक स्वयं सहायता समूह बनाया गया। सरकार ने 70,00,000 रुपए की राशि उपलब्ध कराई। गांव की पंचायत ने जमीन दे दी। इस तरह एक सपना सच हो गया।
अनीता बताती हैं, ‘‘यहां समूह की एक महिला चार घंटे काम करती है। काम बंटा हुआ नहीं है। यह खाना तो हम अपने घरों में दादी, नानी को बनाते देखते ही रहे थे। इसलिए किसी प्रशिक्षण की जरूरत नहीं थी। ‘शी हाट’ संभालना बस कुछ ऐसा ही है जैसे कि हमने घर संभाल रखा हो। हम यहां घर की तरह काम करते हैं। यहां हमें खूब आनंद आता है, क्योंकि यहां हम किसी दूसरे के लिए तो काम करते नहीं हैं। अपने लिए सारा काम हो रहा है। किसी का कोई दबाव हमारे ऊपर नहीं है। हमने समय तय कर रखा है। कौन कब आएगा? हां, यदि कभी कोई सदस्य अपने समय पर नहीं आ पाती है, तो आपस में सामंजस्य बैठाकर काम चला लेते हैं।’’
अनीता के अनुसार, ‘‘अब ‘शी हाट’ अपने पांवों पर खड़ा हो रहा है। हमें एक साल के लिए किसी तरह का कोई किराया आदि नहीं देना था, लेकिन अब हम किराया भी देते हैं। 2,000 रु. सालाना गांव की पंचायत को देते हैं। इसके साथ ही लाभ का 25 प्रतिशत सरकार को दिया जाता है। पांच प्रतिशत गांव की पंचायत को दिया जाता है। बाकी जो बचता है, उसे महिलाएं आपस में बांट लेती हैं।’’ वे यह भी कहती हैं,‘‘निश्चित ही अभी तक का सफर बहुत ही मजेदार है। हमें काम भी मिल रहा है। पैसा भी मिल रहा है। संतुष्टि भी मिल रही है कि हम अपने हिमाचली खाने को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे बेहतर हमारे लिए और हो भी क्या सकता है।’’
अनीता ने बताया कि बिना किसी प्रचार के उनका यह प्रयास लोकप्रिय होता जा रहा है। यहां बाहर से बड़ी संख्या में लोग पारंपरिक हिमाचली खाना खाने आते हैं। वे कहती हैं, ‘‘जब भी कोई हमारे बनाए खाने की तारीफ करता है तो उस वक्त जो खुशी मिलती है, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।’’
आगे की योजना क्या है? इस पर अनीता कहती हैं, ‘‘हमारी कोशिश है कि लुप्त हो रही हिमाचल की पारंपरिक रेसिपी को और ज्यादा बढ़ावा दिया जाए। इसके लिए अब बड़े शहरों की ओर जाने की बात चल रही है। हिमाचल सरकार के सक्रिय सहयोग की वजह से आज हम इस मुकाम पर हैं कि हम ऐसा सोच सकते हैं। इसके साथ ही हिमाचल में जैविक खेती को प्रोत्साहित कर यहां पैदा होने वाले जैविक उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने की भी योजना है। इसके साथ ही हिमाचल के बुनकर और यहां के हथकरघा को भी प्रोत्साहित करने का विचार है।’’ इन महिलाओं की मेहनत और साहस को देखकर हर कोई दंग है। आशा है कि इनके कार्य से और महिलाओं को प्रेरणा मिलेगी।
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