डॉ. क्षिप्रा माथुर
‘संरपंच बण तो जावां पण खूब दोरो काम होवे’…यह हरियाणा की एक पंचायत की सरपंच रहीं गायत्री के दिल की आवाज है जो पास जाते ही और स्पष्ट सुनाई देती है। जन-प्रतिनिधि के बतौर गांवों के विकास की कमान संभालने वाली महिलाओं की राह आसान नहीं है। ज्यादातर महिलाएं चुने जाने के बाद अपने घर-परिवार के पुरुषों को ही आगे किए रहती हैं। कभी मजबूरी में तो कभी सिर्फ झिझक की वजह से। लेकिन महिलाएं हर काम-काज के लिए दौड़-धूप करती नजर आएं, यह इसीलिए जरूरी है ताकि उनके आत्मविश्वास और दुनियादारी की समझ में बेहतरी आए। यहां फिक्र आत्मनिर्भर बनने से ज्यादा इस बात की है कि उन्हें किसी आम सरपंच की तरह मदद तो सबकी रहे लेकिन कोई कमतर ना समझे। जिस तरह घर के फैसलों के लिए अक्सर वे खुद पर भरोसा कर लेती हैं उसी तरह गांव की खुशहाली के लिए सोचना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन गांव की राजनीति और खींचतान का सामना करना हर किसी के बूते का नहीं होता।
असल में राजनीति अकेला ऐसा समाधान नहीं है कि हम महिलाओं को उनकी अहमियत और हिम्मत का अहसास करा पाएं। बात समाज की है जो उसे वह माहौल दे सके जहां काम और ओहदे की इज्जत हो, ग्राम सभाओं के जरिए प्रतिनिधियों के हाथ मजबूत हों और साझेदारी के साथ व्यक्तिगत हितों को परे रखकर फैसलें हों। अगर हर गांव का रवैया ऐसा होता तो ग्रामीण भारत की तस्वीर आज और ज्यादा खूबसूरत होती और पंचायती राज के रास्ते महिलाओं की तरक्की जानने के लिए मशक्कत नहीं करनी पड़ती। सरकारी विज्ञापनों और जन-संगठनों की रिपोर्ट में नजर आने वाली झूठी-सच्ची तस्वीरें अक्सर हकीकत से काफी दूर होती हैं। लेकिन इसी बीच पंचायतों में चुनी हुई मौजूदा साढ़े चौदह लाख महिलाओं में ऐसे किरदार तलाशे जा सकते हैं जिन्हें देखकर तसल्ली हो कि असल भागीदारी की धीमी रफ्तार के बावजूद आने वाला दौर बेहतर ही होगा।
रियायत नहीं, उचित हक
पंचायती राज व्यवस्था ने महिलाओं की हिस्सेदारी तय की और जन-प्रतिनिधि के तौर पर पंचायतों की कमान उन्हें थमाने को एक तिहाई सीटें उनके लिए तय होने के लिए साल 1992 में संविधान का 73वां संशोधन किया गया। इसकी भूमिका बंधी साठ से सत्तर के दशक के बीच। 1959 में बलवन्त राय मेहता समिति की 20 सदस्यीय पंचायत समिति में दो महिलाओं को नामित करने और 1978 में अशोक मेहता समिति की रिपोर्ट में चुनाव में अच्छी तादाद में वोट लाने वाली दो महिलाओं को पंचायत में शामिल करने की सिफारिश की गई। इसके बाद 1985 में कर्नाटक के मंडल प्रजा परिषद् में महिलाओं के लिए 25 फीसद जगह और अगले साल आन्ध्र प्रदेश में 22-25 फीसद जगह ग्राम पंचायत में तय की गई। 1988 में देश की दिशा तय करने के लिए बने ‘नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान’ में पंचायतों में 30 फीसद सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने की सिफारिश हुई। और इस तरह यह सोच आगे बढ़ते हुए 73वें संशोधन तक पहुंची। सोच के इस बहाव में पूरी दुनिया की नुमाइंदगी का दावा करने वाले संगठन संयुक्त राष्ट्र ने 1952 में पहल की और महिलाओं के राजनीतिक हक की बात उठाई। इसके लिए यूएन कन्वेन्शन में बराबर की भागीदारी, निर्णायक पदों में 30 फीसद हिस्सेदारी के लिए अनुच्छेद 15(3) की खास व्यवस्था की गई।
भारत के संविधान ने तो पंचायती राज में एक तिहाई महिलाओं की भागीदारी की बात कही है, लेकिन देश के 20 राज्य ऐसे हैं जहां यह आरक्षण 50 फीसदी तक पहुंच चुका है। गांव पर नीतियोें का जोर भरपूर चलता है और इसका फायदा यह भी है कि गांवों और पंचायतों के बूते ही देश की बड़ी-बड़ी योजनाओं का खाका तैयार होता है। आधी-अधूरी ही सही लेकिन वे जमीन पर उतर पाती हैं तो ग्रामीण भारत की खातिर और उन्हीं के बूते। अलग-अलग सररकारी योजनाओं में मिलने वाली अच्छी-खासी राशि के बावजूद सब अपर्याप्त इसलिए रह जाता है कि उस पर नौकरशाही और राजनीति के गठजोड़ की नजर गढ़ी रहती है। अच्छी मंशा से राजनीति में आए सरपंचों को सीधे-साधे काम के लिए कुछ जयादा मशक्कत करनी पड़ती है। लेन-देन की काली कोठरी में दाखिल होने से परहेज नहीं करने वालों के लिए आज भी आसानी ज्यादा है, चाहे वे गांव हों या शहर। महिला सरपंचों से पूछें तो वे समाज की मानसिकता पर भी सवाल खड़े करती हैं कि किस तरह मनरेगा में घर बैठे पैसे उठाए जाते हैं, निजी कामों के लिए पंचायत पर दबाव बनाया जाता है और बैठकों में आने-जाने पर पीठ पीछे लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। ऐसे में कुछ हौसले कायम रहते हैं तो कुछ पस्त भी हो जाते हैं।
‘लोग समझै कोणी…’
हरियाणा के फतेहाबाद जिले में धांड गांव की गायत्री से कुछ वक्त पहले अमदाबाद में प्रधानमंत्री के सरपंचों से संवाद के कार्यक्रम में मिलना हुआ था। केवल पांच राज्यों की बेटियों को लेकर किए गए अद्भुत काम के लिए हम सबको वहां बोलने का मौका मिला था। गायत्री अपने घर-परिवार की जिम्मेदारियों के बीच सरपंच का जिम्मा संभालते हुए अपने गांव की सूरत तो बदल चुकी हैं लेकिन गांव के लोगों की मानसिकता को लेकर अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर करती हैं। अगली बार चुनाव में खड़े होने से तौबा करने वाली गायत्री कहती हैं कि लोग यह नहीं समझते कि सरपंच की कितनी जवाबदेही होती है। उसे हर काम का हिसाब देना होता है। विकास के लिए आने वाला पैसा भी पूरा नहीं पहुंचता। फिर पढ़े-लिखे लोग भी ज्यादा गड़बड़ फैलाते हैं। लेकिन तमाम चुनौतियों के बीच गांव में बेटियों के लिए किए गए काम का नतीजा यह है कि लिंगानुपात 1000 पर 1003 हो गया। बड़े कामों में पंचायत में 7 एकड़ जमीन पर बनाया स्टेडियम मिसाल बन गया। पांच साल में करीब दो करोड़ 65 लाख रु. की राशि से गलियों की मरम्मत, सड़कों पर 40 से ज्यादा इण्टरलॉकिंग के काम हुए, व्यायामशाला, करीब 15 जन-शौचालय बनवाए। पानी को लेकर अच्छा काम हुआ, टैंक बनवाया और ग्राम सचिवालय का निर्माण हुआ। – गायत्री, जिला फतेहाबाद, हरियाणा |
एनजीओ जगत, हवाई बातें
देश की त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के एक तिहाई आरक्षण से जितनी उम्मीदें बंधी थीं, उसे समाज और स्वयंसेवी संस्थाओं, दोनों के रवैये ने ध्वस्त करने में कसर नहीं छोड़ी। समाज अब भी महिलाओं पर धौंस जमाने में पीछे नहीं है तो इधर चन्द समाजसेवी संस्थाएं ऐसा माहौल बनाने में कामयाब रही हैं कि महिला जनप्रतिनिधियों को आगे की कतार में खड़ा करने की क्रान्ति के जनक वही हैं। गढ़ी गई कहानियां, परोसी गई खबरों की कतरनें और रिपोर्ट उनके देशी-विदेशी दानदाताओं को लुभाने का जरिया होती हैं। मीडिया प्रबन्धन और उजले कागजों में दबी उनकी धुंधली हकीकत को उघाड़ना तो आसान नहीं, लेकिन पिछले सालों में नए कानूनी प्रावधानों के जरिए जन-संगठनों पर पैसों के लेन-देन को लेकर लगी बन्दिशों ने ऐशोआराम और घालमेल के रास्ते जरूर बन्द कर दिए हैं।
‘महिला जनप्रतिनिधियों’ को लेकर काम करने वाली ‘हंगर’ जैसी कई संस्थाएं तो महिला सरपंचों की कहानियां अपने आकाओं की मंजूरी से केवल इसी शर्त पर साझा करती हैं जब यह साबित किया जाए कि प्रकाशन वैचारिक तौर पर उनसे मेल खाता है। विचारधाराओं से इस कदर परहेज कोई नई बात नहीं है, क्योंकि संस्था जगत भी राजनीतिक दलों की तरह धड़ों में बंटा हुआ है। लेकिन यह बात इसलिए गंभीर है कि खुलेपन की पैरवी करते दिखाई देने वाले जन-संगठनों के अपने चश्मे इतने रंगे हुए हैं कि इन्हें खरी बात से ज्यादा फिक्र इस बात की रही कि मंच किसका है। बल्कि रवैया अपनी वैचारिक आजादी से काम कर रहे उन पत्रकारों के लिए भी खतरा है जो अभिव्यक्ति की पैरोकारी में किसी मंच से परहेज नहीं करते। यहां बात केवल एक संगठन की नहीं, ‘जेण्डर’ सहित लोकतंत्र को मजबूत करने के नाम पर अपने खास तौर-तरीकों से काम कर रही संस्थाओं ने एक ऐसा जाल खड़ा कर दिया है कि जहां झूठ की नुमाइश में महारत है। विरोधाभासों से भरे इन संगठनों की ठूंसी हुई बातें, आंकड़े, बयान हवा-हवाई मीडिया में जमकर सुनाई देते हैं जिसका हकीकत से अक्सर लेना-देना नहीं होता। ऐसे में समुदाय के बीच से उपजे ईमानदार संगठनों को मजबूत करने की भरपूर गुंजाइश है। महिलाओं की पैरवी करने वाले समाज की हिम्मत भी इसी तरह बंधेगी।
2,63,274
गांवों में पेयजल समितियां बनाई गई हैं
जल जीवन मिशन के अंतर्गत, स्वच्छ जल
की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए
10-12
महिलाओं की सहभागिता वाली
जल समितियां कार्यरत हैं
ग्राम पंचायतों में
जमीनी मुद्दे—पानी, शौचालय, शिक्षा, सड़क
जब भी महिला जन प्रतिनिधियों से बात करें तो वे अच्छी शिक्षा, बच्चियों की सुरक्षा और पानी के मसलों के लिए फिक्रमन्द नजर आती हैं और मानसिकता बदलने पर जोर देती हैं। पानी का मसला सबसे पेचीदा है क्योंकि इसका असर आने वाली पीढ़ियां ज्यादा झेलेंगी। आने वाले दस साल में भारत में धरती की कोख का पानी आधा रह जाएगा और जरूरत दुगुनी हो जाएगी। पानी को लेकर चल रहे मिशन महिलाओं के बगैर तो एक कदम भी नहीं बढ़ सकते। पंचायतों में दस-बारह सदस्यों वाली जल समितियां हैं जिनमें महिलाओं का होना जरूरी होता है। ग्राम सभाओं में भी महिलाओं की पचास फीसद मौजूदगी के बिना बैठकें नहीं हो सकतीं। अब भले की महिला सरपंचों के पति, भाई, जेठ या ससुर उनकी आड़ में काम करें लेकिन हर जगह बैठकों में दस्तखत उन्हीं के होेते हैं, उनके वहां होने की तस्दीक भी होेती है। इस तरह पंचायतों में महिलाआें की कमान में चल रही गाड़ी में उनका अनपढ़ होना और भी बड़ी वजह है कि वे सिर्फ रबड़ की मोहर की तरह इस्तेमाल होती हैं। पंचायत व्यवस्था में साक्षर होने की अनिवार्यता को लेकर राजस्थान में लाए गए कानून के खिलाफ ऐसा माहौल बनाया गया कि आखिरकार अदालत की दस्तक के बीच उसे वापस ही लेना पड़ा। अनपढ़ जन-प्रतिनिधि होना भी आज के वक्त में दाग से कम नहीं है। सूचना, आंकड़ों और कागजों की बातें समझे बगैर कोई भी फैसला जनता के हक का हो ही नहीं सकता।
पानी-सफाई के मसले को लेकर पूरे देश में जाग्रति है और योजनाएं भी हैं। जल-जीवन जैसे मिशन पढ़े-लिखे समझदार जन-प्रतिनिधियों की ताकत से ही आगे बढ़ने की तैयारी में हैं। पंचायतें तो सरपंच के लिए महिला की दावेदारी के लिए आरक्षित होती ही हैं लेकिन गांव में विकास के काम को अंजाम देने के लिए आशा बहन, एएनएम दीदी, वार्ड पंच, साथिन और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की पूरी फौज होती है। पानी के मिशन के एक चरण में देश की 2,63,274 ग्राम पंचायतों में गांवों में साफ पानी के लिए समितियां बनाई गई हैं जिसका जिम्मा सरपंच का ही होगा। समितियों के जरिए पानी की जांच होगी और यह जांच महिलाएं ही करेंगी, जिसके लिए उन्हें एक किट मुहैया करवाई जा रही है। असल बात यह है कि हर मिशन की कामयाबी के लिए जन-प्रतिनिधियों के साथ ही जागरूक समाज भी चाहिए। देश भर में 14 लाख से ज्यादा महिला जन-प्रतिनिधियों को सिर्फ प्रशिक्षण ही नहीं बल्कि इतना हौसला दिया जाना चाहिए कि देश को ऊंचाई पर ले जाने वाले हर मिशन की कामयाबी का सेहरा उसके सिर बंधे।
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