आज ग्रामीण महिलाओं के प्रत्यक्ष योगदान एवं सक्रिय भागीदारी के फलस्वरूप हमारा देश अनेक प्रकार के फल, सब्जी और अनाज के मामले में महत्वपूर्ण उत्पादक देश बन गया है। जीवट की धनी इन महिलाओं ने विविध क्षेत्रों में सफलता के कई प्रशंसनीय आयाम गढ़े हैं। महिला दिवस के अवसर पर प्रस्तुत हैं कुछ सफल महिला कृषकों की प्रेरक कहानियां-
106 वर्ष की आयु में खेती
आमतौर पर किसान के बारे में सोचते समय दिमाग में धूप में फावड़ा चलाते, मेहनत करते पसीने से तरबतर अधेड़ पुरुष की छवि बनती है। लेकिन तमिलनाडु के कोयंबतूरकी 106 वर्षीया महिला कृषक पद्मश्री पप्पाम्मल ने इस धारणा को तोड़ा है। 1914 में कोयंबतूर के देवलापुरम् में जन्मी पप्पाम्मल देश की सबसे बुजुर्ग किसान मानी जाती हैं। उन्हें तमिलनाडु में जैविक कृषि की प्रणेता माना जाता है और वह तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय से जुड़ी हैं। इस उम्र में भी वे अपने 2.5 एकड़ के खेतों में हर दिन काम करती हैं। खास बात यह है वह रसायन वाली खेती नहीं करतीं, बल्कि खुद खाद बनाकर जैविक खेती करती हैं। सुबह चार बजे उठती हैं, साढ़े पांच बजे तक तैयार होकर अपने खेत में पहुंच जाती हैं। फिर पूरा दिन अपने खेतों को, फसलों को समर्पित कर देती हैं। जैविक खेती में अद्वितीय काम के लिए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित पप्पाम्मल का जीवन बेहद प्रेरक है।
महाराष्ट्र की ‘बीज माता’महाराष्ट्र की 61 वर्षीया वनवासी किसान राहीबाई पोपरे उन खास लोगों में शामिल हैं, जिन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक पद्म पुरस्कार मिला है। दर्जनों देशी किस्मों के बीजों का संरक्षण करने वाली राहीबाई पोपरे की उपलब्धियों के सफर तकरीबन दो दशक पहले तब शुरू हुआ था जब उनका पोता जहरीली सब्जी खाने के बाद बीमार पड़ा था। उस पल राहीबाई ने जैविक खेती की शुरुआत करने का मन बनाया। पर बात सिर्फ खेती तक सीमित नहीं रही। आज उनके द्वारा बनाया गया बीज बैंक राज्य के किसानों के लिए बेहद मुफीद साबित हो रहा है। राहीबाई पोपरे आज पारिवारिक ज्ञान और प्राचीन परंपराओं की तकनीकों के साथ जैविक खेती को एक नया आयाम दे रही हैं। भले ही वे कभी स्कूल नहीं गईं लेकिन खेती के क्षेत्र में उनके ज्ञान का लोहा वैज्ञानिक भी मानते हैं। कम सिंचाई में अच्छी फसल देने वाले उनके परंपरागत बीजों की मांग महाराष्ट्र और गुजरात में काफी अधिक है। |
अचार से बेड़ा पारकई लोगों को पर्याप्त पैसे, संसाधन और शिक्षा के बाद भी सफलता नहीं मिलती है, वहीं कुछ लोग अपनी कड़ी मेहनत और लगन के बलबूते संसाधन व शिक्षा के बिना ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ लेते हैं। इसका जीता जागता उदाहरण हैं बुलंदशहर की कृष्णा यादव, जो आज ‘श्रीकृष्णा पिकल्स’ की मालकिन हैं और दिल्ली के नजफगढ़ में रहती हैं। करौंदे का अचार और कैंडी बनाने के शुरुआती दिनों के बाद आज ये कई तरह की चटनी, अचार, मुरब्बा आदि सहित दर्जनों प्रकार के उत्पाद तैयार करती हैं। वर्तमान में उनकी फैक्ट्री में 500 कुंतल फल व सब्जियों का प्रसंस्करण होता है, जिसका सालाना व्यापार लगभग एक करोड़ रुपए से ऊपर का है। वे 8 मार्च, 2016 को भारत सरकार के नारी शक्ति सम्मान, साल 2014 में हरियाणा सरकार से चैंपियन किसान महिला अवार्ड तथा 2013 में वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से 51,000 रुपए का चेक सम्मानस्वरूप पा चुकी हैं। |
कीर्तिमान बनातीं कीर्ति
पहाड़ी महिलाओं को खाद्य प्रसंस्करण के गुर सिखाने वाली टिहरी (गढ़वाल) के किसान विज्ञान केंद्र की युवा खाद्य वैज्ञानिक कीर्ति कुमारी की उपलब्धियां भी कम सराहनीय नहीं हैं। अब तक लगभग 1,000 महिलाओं को खाद्य उत्पादों की ग्रेडिंग, प्रोसेसिंग व पैकेजिंग का प्रशिक्षण देने वाली कीर्ति बताती हैं कि 2016 में उत्तराखंड में हुए एक सर्वेक्षण में पता चला था कि यहां की 41 प्रतिशत महिलाओं में हीमोग्लोबिन की कमी है। तब उन्होंने टिहरी के महिला सहकारिता समूह द्वारा रागी के लड्डू बनवा कर छात्राओं को मध्याह्न भोजन में दिए। केवल एक महीने में ही छात्राओं में हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ने लगी। इससे उत्साहित होकर सरकार ने इसके लिए 25,00,000 रुपए का अनुदान देकर इन लड्डुओं को पूरे साल बंटवाने का अभियान चलाया। कीर्ति को उनके इन प्रयासों के लिए हिल रत्न, इंडिया स्टार, यूथ आइकोनिक अवॉर्ड व यंग साइंटिस्ट अवॉर्ड मिले हैं। साथ ही वे ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की टिहरी की ‘ब्रांड एम्बेसडर’ भी हैं।
मशरूम से कमा रही हैं मुद्रा
देहरादून में रहने वाली 30 साल की दिव्या रावत का ‘दिव्या मशरूम’ खेती के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम है। ‘मशरूम गर्ल’ के नाम से पहचान बनाने वाली दिव्या को उत्तराखंड सरकार ने मशरूम का ‘ब्रांड एम्बेसडर’ भी बनाया है। मशरूम के जरिए दिव्या आज करीब 2 करोड़ रुपए से अधिक का सालाना कारोबार कर रही हैं। दिव्या के अनुसार मशरूम जल, जमीन, जलवायु की नहीं, बल्कि तापमान की खेती है। इसकी इतनी किस्में होती हैं कि हम हर मौसम में इसकी खेती कर सकते हैं। ताजा मशरूम बाजार में बेच सकते हैं और इसके सह उत्पाद भी बना सकते हैं। उन्होंने मशरूम इसलिए चुना क्योंकि उसके दाम अन्य सभी सब्जियों से अधिक हैं। इसलिए उन्होंने 2015 में मशरूम की खेती का प्रशिक्षण लेकर 3,00,000 रु. की लागत से खेती शुरू की। धीरे-धीरे लोग उनके साथ आते गए और जल्दी ही दिव्या ने अपनी कंपनी भी बना ली। आज वे उत्तराखंड के 10 जिलों में मशरूम उत्पादन की 55 से ज्यादा इकाई लगा चुकी हैं।
दीदियों की दीदी
गुरुग्राम से सटे चन्दू गांव की पूजा शर्मा ने खुद स्वावलंबी बनकर आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाकर एक मिसाल कायम की है। कृषि विज्ञान केंद्र शिकोहपुर, गुरुग्राम से कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन में तकनीकी प्रशिक्षण लेकर पूजा ने स्थानीय कच्चे माल से शहरी लोगों की जरूरतों और पसंद के हिसाब से खाद्य उत्पाद बनाने की शुरुआत की। उन्होंने गेहूं, सोयाबीन, बाजरा और रागी से हेल्दी स्नैक्स बनाना शुरू किया और आस-पास की 10 गरीब महिलाओं के साथ मिल कर 2013 में ‘क्षितिज’ स्वयं सहायता समूह बनाया। शुरू में उन्होंने आसपास के स्कूल, जिम तथा विभिन्न राष्ट्रीय व क्षेत्रीय प्रदर्शनियों में स्टॉल लगाकर अपने उत्पाद बेचे। देखते-देखते उनसे 150 महिलाएं और जुड़ गर्इं। फिर गैर सरकारी संगठन ‘सिटी फाउंडेशन’ की मदद से उन्होंने कुकीज बनाने की एक फैक्ट्री लगायी। आज इनके बने उत्पाद बड़े-बड़े रिटेल स्टोर, बिग बाजार और पांच सितारा होटलों तक जा रहे हैं। पूजा हरियाणा सरकार के नवोन्मेषी कृषक पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं। आज उन्हें दीदियों की दीदी भी कहा जाता है।
इन महिला कृषकों ने इस मिथक को तोड़ा है कि खेती और किसानी केवल पुरुषों का काम है। इनका तो यह भी कहना है कि यदि महिलाओं को समान अवसर मिले तो वे खेती करके भारत को और समृद्ध कर सकती हैं। उम्मीद है कि इनकी बात सरकार और संबंधित लोगों तक पहुंचेगी।
टिप्पणियाँ