भरत शर्मा
रूस और यूक्रेन के बीच संघर्ष आठवें दिन में प्रवेश कर चुका है। अमेरिका और पश्चिमी देशों के लगातार लगाए जा रहे हर तरह के प्रतिबंधों के बावजूद रूसी आक्रामकता कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है। यूक्रेन की राजधानी कीव के ढहने का संकट खड़ा हो गया है। संयुक्त राष्टÑ ने रूस के इस हमले के विरुद्ध दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित किया है। 1 मार्च को इस प्रस्ताव पर हुए मतदान में जिन पांच देशों ने मत नहीं डाला उनमें भारत भी शामिल है। इस पूरे प्रकरण में भारत ने अपनी भूमिका तटस्थ बनाई हुई है।
लेकिन इससे दुनिया हैरान है। इस संघर्ष की शुरुआत से ही भारत पर दबाव डाला जा रहा है कि वह किसी एक देश का पक्ष ले। भारत ने अभी तक इस पूरे विवाद में किसी का भी पक्ष न लेने का निर्णय लिया है। प्रश्न उठता है कि इसका औचित्य क्या है? यदि भारत खुलकर रूस का समर्थन करे तब क्या होगा? या वह युद्ध की विभीषिका झेल रहे यूक्रेन का साथ दे तब क्या होगा? कांग्रेस समेत विपक्ष के कुछ नेता चाहते हैं कि भारत सरकार यूक्रेन के पक्ष में वक्तव्य दे और रूस को सैनिक कार्रवाई बंद करने को कहे। किंतु क्या ऐसा करना उचित होगा?
इसका उत्तर जानने के लिए हमें वर्तमान विश्व व्यवस्था को सही संदर्भ में समझना होगा। यह जानना होगा कि वास्तव में क्या ये मात्र दो पड़ोसी देशों की लड़ाई है या इससे भी अधिक कुछ दांव पर लगा है? हर युद्ध की तरह इसमें भी दो पक्ष हैं। लेकिन ये पक्ष वे नहीं हैं जो पहली दृष्टि में दिखाई दे रहे हैं।
चर्च, दरारें और मानवता का त्रास
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि खंगालें तो इस क्षेत्र से दो ईसाई गुटों की लड़ाई के भी तथ्य उभरते हैं, जो ईस्वी 1053 से ही चल रही है। यह वह वर्ष था जब पूर्वी और पश्चिमी चर्च का विभाजन हुआ। ईस्वी 1521 में पश्चिमी चर्च एक बार फिर से दो हिस्सों, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट में बंटा। यूरोप और अमेरिकी महाद्वीप के कुछ देश कैथोलिक हैं तो कुछ प्रोटेस्टेंट चर्च के प्रभाव में हैं। जिन देशों में ब्रिटेन से जाकर लोग बसे हैं वे अधिकांशत: प्रोटेस्टेंट हैं। इनमें अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे देश भी शामिल हैं। इनके वृहत् समूह को समाजशास्त्र की भाषा में ‘व्हाइट एंग्लो सैक्सन प्रोटेस्टेंट’ कहा जाता है।
यूरोप के प्रभावी ईसाई समूहों से इतर पूर्वी चर्च है, जिसे आर्थोडॉक्स के नाम से जाना जाता है। इसका प्रभाव क्षेत्र रूस और उसके आसपास के देशों में है। किसी भी राजनीति और भू- राजनीतिक समीकरणों से परे यह भी तथ्य है कि रूस और यूक्रेन, दोनों ही आर्थोडॉक्स चर्च के अनुयायी हैं। अमेरिका और यूरोप के प्रोटेस्टेंट ईसाई ऐतिहासिक रूप से आर्थोडॉक्स चर्च के शत्रु हैं और उसे नष्ट करने के लिए प्रयासरत रहे हैं। यूरोप में इस्लाम के आगमन के बाद रूस और तुर्की के बीच तीन युद्ध हुए। इन तीनों में ही प्रोटेस्टेंट चर्च ने इस्लाम का साथ दिया। प्रतिद्वंद्वी समझे जाने वाले कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट चर्च ने दूसरे विश्व युद्ध में आपस में मिलकर जेसेनोवॉक शहर में आॅर्थोडॉक्स चर्च के अनुयायियों का नरसंहार किया था। इसी नरसंहार के दौरान बड़ी संख्या में भारतीय हिंदू मूल के रोमा समुदाय के लोगों को भी मार दिया गया था।
सबसे ताजा उदाहरण 1999 का है, जब यूगोस्लाविया के गृहयुद्ध में अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो सेनाओं ने बोस्निया के मुसलमानों को लाभ पहुंचाने के लिए सर्बिया पर 78 दिन तक बमबारी की थी, जिसमें हजारों की संख्या में आर्थोडॉक्स ईसाइयों की जान गई थी। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र से भी कोई अनुमति नहीं ली गई थी। क्या यह विरोधाभास नहीं है कि जो देश मात्र दो दशक पहले एक आर्थोडॉक्स ईसाई देश पर बमबारी कर रहे थे, वही आज रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले से इतने दुखी हैं?
शीत युद्ध से खदबदाती ‘गर्मी’
यूक्रेन भी एक आर्थोडॉक्स देश है और रूस भी। इसलिए यह प्रश्न उठ सकता है कि इस युद्ध में प्रोटेस्टेंट समूह (डब्ल्यूएएसपी) की क्या भूमिका है? शीत युद्ध के काल में अमेरिका ने सोवियत रूस को घेरने के लिए देशों का एक समूह बनाया था, जिसे ‘नाटो’ कहते हैं। अब जबकि सोवियत रूस टूट चुका है तो नाटो की प्रासंगिकता समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अमेरिका लगातार नाटो का विस्तार करता जा रहा है और नए-नए देशों को इसमें जोड़ रहा है। अब यही विस्तार रूस की सीमाओं तक पहुंच गया है।
उल्लेखनीय है कि सोवियत रूस के विघटन के समय तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर ने सोवियत रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को वचन दिया था कि नाटो का विस्तार नहीं होगा। 2008 में अमेरिकी प्रशासन ने व्लादिमिर पुतिन को भी इसी तरह का भरोसा दिलाया था। अब यदि यूक्रेन नाटो में सम्मिलित होता है तो अमेरिका रूस की सीमा पर अपनी मिसाइलें तैनात करने की स्थिति में आ जाएगा। कुछ ऐसी ही स्थिति 1962 में क्यूबा संकट के समय हुई थी, जब रूस ने क्यूबा में अपनी बैलेस्टिक मिसाइलें तैनात कर दी थीं। क्यूबा अमेरिका का पड़ोसी देश है। तब जो चिंता अमेरिका की थी, वही अब रूस की है।
पालेबन्दी बनाम विभाजक रेखाएं
यूक्रेन को अपने पाले में लाने के लिए अमेरिका लंबे समय से जुटा था। इसके लिए उसने एक तरह का मनोवैज्ञानिक अभियान चलाया था। जॉर्ज सोरोस जैसे विध्वंसक अरबपतियों और सीआईए द्वारा पोषित एनजीओ नेटवर्क की सहायता से समाज में रूस विरोधी भावनाओं को भड़काया गया। इसके लिए यूक्रेन के मीडिया और अन्य संचार माध्यमों को भी खरीदा गया। 2014 में एक आंदोलन के माध्यम से यूक्रेन की रूस समर्थक सरकार को अपदस्थ करके वर्तमान सत्ता को स्थापित कर दिया गया। मात्र कुछ वर्षों के इस मनोवैज्ञानिक अभियान का परिणाम यह हुआ कि यूक्रेन में बड़ी संख्या में लोग पड़ोसी रूस को अपना शत्रु और अमेरिका को तारणहार की तरह देखने लगे। यूक्रेन की यह नादानी इस हद तक पहुंच गई कि अंतिम समय तक उसे लगता रहा कि अमेरिका उसे बचाने आएगा। लेकिन वास्तव में अमेरिका की रुचि उसे बचाने में नहीं, बल्कि इस बात में है कि आर्थोडॉक्स ईसाइयों के ये दो देश आपस में लड़ें और अधिक से अधिक लोगों की जान जाए। जबकि इन दोनों देशों के निवासी स्लाव मूल के हैं और उनकी भाषाएं भी एक ही परिवार की हैं। दोनों एक ही आर्थोडॉक्स चर्च को मानने वाले हैं। कुछ इसी तरह से भारत में भी समाज को आर्य-द्रविड़, अगड़े-पिछड़े, सवर्ण-दलित, मूलनिवासी और बाहरी में बांटने के अभियान चलाए जाते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इनके पीछे उसी शक्ति का हाथ है जिसने यूक्रेन और रूस के बीच दरार डाली। (देखें बॉक्स)
…भारत के लिए सबकआर्थिक हमला:अमेरिका ने अपनी बड़ी कंपनियों को रूस के विरुद्ध हथियार की तरह प्रयुक्त किया है। गूगल, एप्पल, फेसबुक और ट्विटर जैसी सारी कंपनियां रूस के हाथ मरोड़ने के काम आ रही हैं। इसी तरह अंतरराष्ट्रीय लेनदेन में प्रयुक्त होने वाले स्विफ़्ट कोड को बंद कर दिया गया है। विदेशों में रूस की 150 अरब डॉलर की संपत्ति भी अमेरिका के दबाव में ब्लॉक कर दी गई है। यह सब कुछ भारत के साथ भी हो सकता है। आज भी भारत का लगभग दो-तिहाई गोल्ड रिजर्व ब्रिटेन और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में रखा हुआ है। केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद इस दिशा में प्राथमिकता के साथ काम हुआ है। आत्मनिर्भर भारत जैसे अभियानों का मूल उद्देश्य विदेशी दादागीरी से मुक्ति पाना ही है। केंद्र सरकार ने रूपे, यूपीआई, भीम जैसे अनेक स्वदेशी मंच उपलब्ध कराए हैं, जिसके कारण भारत आज अधिक सुरक्षित स्थिति में है। मनोवैज्ञानिक हमला: सोशल मीडिया तथा ओटीटी कंटेंट पर नजर रखने वाले जानकार मानते हैं कि जिस तरह से यूक्रेन में अमेरिकी कंपनियों ने असंतोष भड़काया, वही काम भारत में अलग तरीके से हो रहा है। सांस्कृतिक हमला: प्रोटेस्टेंट ईसाई समूह के देश आज भी अपनी औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर नहीं आ पाए हैं। उनकी एकमात्र रुचि भारत जैसे देशों के लोगों को कन्वर्ट करने में है। केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद छल, लालच, भय के माध्यम से लोगों को कन्वर्ट करने की गति कुछ हद तक रुकी है। लेकिन आज भी मीडिया और राजनीतिक पालेबंदियों में ऐसे लोग देखे जा सकते हैं जिनकी गतिविधियां कहीं न कहीं इस पश्चिमी प्रभुत्ववादी गिरोह के सहायक जैसी है। सत्ता पर नियंत्रण: जिस तरह से अमेरिकी तंत्र ने यूक्रेन में अपने भाड़े के पिट्ठू तैयार किए वही काम भारत में भी चल रहा है। कई बड़े सरकारी अधिकारी, प्रभावी तंत्र से जुड़े लोग और राजनेताओं के बेटे-बेटियां अमेरिकी विश्वविद्यालयों में स्कॉलरशिप पर पढ़ाई करते हैं। इनमें से कुछ को विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ऊंचे पदों पर रखा जाता है। यह भी रिश्वत का एक तरीका है और इसके बदले में देश की नीतियों को प्रभावित करने का काम होता है। |
आज विश्व में दो विपरीत विचारधाराएं काम कर रही हैं। एक ओर गैर-अब्राह्मिक सभ्यताएं हैं जैसे भारत, जापान और मंगोलिया। दूसरी ओर, वे अब्राहमिक शक्तियां हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य अपना विस्तार करना और दूसरों पर आधिपत्य पाना है। इस कार्य में वामपंथी और उग्रवादी उनके स्वाभाविक साझीदार हैं। यह संयोग मात्र नहीं है कि अधिकांश वामपंथी-नक्सली और खालिस्तानी संगठन चर्च द्वारा पोषित हैं और उन सभी के निशाने पर गैर-अब्राहमिक सभ्यताएं हैं।
भारत जैसे देशों के लिए यह अपने हितों की चिंता करने का समय है, न कि उनके पक्ष या विपक्ष में होकर अपनी क्षति करने का। हम यह गलती पहले दो विश्व युद्धों में कर चुके हैं। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत के लाखों सैनिक इसी व्हाइट एंग्लो-सैक्सन प्रोटेस्टेंट गुट के झांसे में आकर मारे जा चुके हैं। संभवत: उसी इतिहास को दोहराने का प्रयास एक बार फिर से हो रहा है।
(लेखक आईआईटी, दिल्ली से स्नातक तथा भारतीय सांस्कृतिक विषयों के अध्येता हैं)
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